Tuesday, September 30, 2008

माँ के जाने के बाद

तुम तो कहती थी माँ कि..
रह नही सकती एक पल भी
लाडली मैं बिन तुम्हारे
लगता नही दिल मेरा
मुझे एक पल भी बिना निहारे
जाने कैसे जी पाऊँगी
जब तू अपने पिया के घर चली जायेगी
तेरी पाजेब की यह रुनझुन मुझे
बहुत याद आएगी .....


पर आज लगता है कि
तुम भी झूठी थी
इस दुनिया की तरह
नही तो एक पल को सोचती
यूं हमसे मुहं मोड़ जाते वक्त
तोड़ती मोह के हर बन्धन को
और जान लेती दिल की तड़प

पर क्या सच में ..
उस दूर गगन में जा कर
बसने वाले तारे कहलाते हैं
और वहाँ जगमगाने की खातिर
यूं सबको अकेला तन्हा छोड़ जाते हैं

******************************
***********

ढल चुकी हो तुम एक तस्वीर में माँ
पर दिल के आज भी उतनी ही करीब हो
जब भी झाँक के देखा है आंखो में तुम्हारी
एक मीठा सा एहसास बन कर आज भी
तुम जैसे मेरी गलती को सुधार देती हो
संवार देती हो आज भी मेरे पथ को
और आज भी इन झाकंती आंखों से
जैसे दिल में एक हूक सी उठ जाती है
आज भी तेरे प्यार की रौशनी
मेरे जीने का एक सहारा बन जाती है !!


रंजू

मेरे प्रथम काव्य संग्रह ""साया"' में से माँ के लिए कुछ लफ्ज़ ..

मां बेटी!! (छायाचित्र)

MotherDaughter

Picture: by Manish Bansal

A woman and her daughter are returning from the communal tap with filled pots. Per capita availability of water in India has come down from 6000 cubic metres at the time of independence in 1947 to 1600 cubic metres now (minimum required) and it is expected to dip further to 750 cubic metres by 2025. 

 

शास्त्री । सारथी

ArticlePedia | Guide4Income | All Things Indian

Monday, September 29, 2008

तेरी ममता जीवनदायी …माई ओ माई …

जाने अनजाने माफ़ किया था मेरी हर ग़लती को,
हर शरारत को हँस के भुलाया था,
दुनिया हो जाए चाहे कितनी पराई,
पर तुमने मुझे कभी नही किया पराया था,
दिल जब भी भटका जीवन के सेहरा में,
तेरे प्यार ने ही नयी राह को दिखाया था

 

माँ वह व्यक्ति है जिसे मानवजगत में सबसे अधिक आदर, सम्मान एवं सहारा मिलना चाहिये. दुर्भाग्य यह है कि कई बार जिसे मिलना चाहिये उसे तो नहीं मिल पाता, लेकिन जो सम्मान के कतई योग्य नहीं होता वह हम से हर तरह का आदर, सम्मान एवं सहारा पा लेता है.

उम्मीद है कि कम से कम  माँ चिट्ठा इस संसार के एक कोने में कुछ हजार (जल्दी ही कुछ लाख) हिन्दीभाषियों को इस स्थिति से उबारने में मदद करेगा जिससे कम से कम वे अपने अपने मित्रों को इस विषय में शिक्षित एवं सचेत कर सकें.

माँ पर पहला आलेख हम किसी माँ से छपवाना चाहते थे, लेकिन माँ तू महान है आलेख को छाप कर अंकित बाजी मार ले गये. अच्छा ही हुआ क्योंकि पढाई के लिये माँ से बिछुड कर रहने वाले एक युवा से अधिक कौन माँ के बारें में लिख सकता है. अंकित का दिल निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं:

मैं, अंकित, यहाँ इंदौर में अपने घर से काफी दूर पढने के लिए आया हूँ। कोई भी दिन ऐसा नही जिस दिन मैंने माँ को याद नही किया हों। जैसा की मैंने पहले ही कहा है माँ को शब्दों में नही बाँध सकतें।

लेकिन कई लोग छुट्टियों में वापस मां के पास जाने की बाट नहीं जोह सकते एवं ऐसे एक व्यक्ति की अनुभूति छापी है उज्ज्वल ने मेरे पास माँ नहीं है!!! में. उनका कहना है,

अब माँ तो चली गई और रह गये आप- बिल्कुल अकेले क्योकि वो प्यार-दुलार, ममता और कोई दूसरा आपको चाहकर भी न तो दे सकता है और ना ही आप उससे ले सकते है। एक शून्य जैसा एहसास होने लगता है आसपास- जैसे कि आप अभी तक एक खोल मे सिमटे पड़े थे और अचानक आपको किसी ने छिलके से बाहर निकाल दिया हो।

इस बीच डबडबाई आँखों से ताहिर फ़राज के गीत के कुछ बोल उनको सलाम करते हुए सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने तेरी ममता जीवनदायी …माई ओ माई … मे दिया. हर पाठक रो पडा.

अजब संजोग  में धीरु सिंह ने बताया कि कैसे उनकी माताश्री उनको छोड चली गईं. विशिष्ठ होना कई बार ठीक नहीं रहता. हमारे भारी मनों को कुछ राहत दी रंजना [रंजू भाटिया] ने मर्मस्पर्शी कविता माँ कभी ख़त्म नही होती .... में.  इसके फौरन बाद पंकज शुक्ल मेंरे मन से एक गाना “उठा” लिया एवं मातृदिवस के लिये लिखे लेख मां के साथ प्रस्तुत कर दिया.

केरेक्टर फोटोग्राफी में दक्ष मुझे सतीश सक्सेना ने अम्मा ! में कैसा छुआ यह कहना मुश्किल है. चित्र के साथ उनकी कविता और जुड गई तो इस मोती का मूल्य बहुत हो गया.

यह तो सिर्फ सफर का आरंभ मात्र है. रास्ते में और भी हैं बेशकीमती हीरे, जिनको देखेंगे अगली चर्चा में!!

शास्त्री । सारथी
माँ चिट्ठे के आलेखों की चर्चा 001

Saturday, September 27, 2008

माँ: यादों का एक सफ़र !!

शास्त्री जी एवं अरविंद जी का न्यौता पा कर हम बहुत खुश थे( अब भी हैं), मां विषय ही ऐसा है। मां पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है, अब लिखने बैठे हैं तो न जाने कितनी यादें जहन में तुफ़ान मचाये हैं।सोच रही हूँ क्या भूलूं क्या याद करुं कि तर्ज पर आप को क्या बताऊं और क्या नहीं।

आइस्क्रीम वाले की घंटी सुनते ही जैसे बच्चे सब छोड़ दौड़ पड़ते हैं और सैकड़ों हाथ आइस्क्रीम लपक लेने को ललायित हो उठते हैं कुछ ऐसा ही हाल मेरी यादों का है। हर याद दूसरी याद पर चढ़ हमसे कह रही है पहले मैं, नहीं पहले मैं। एक नरम दिल इंसान होने के नाते मैं किसी को नाराज नहीं करना चाह्ती, इस लिए बिना ये सोचे कि ये याद कड़ी में बैठती है या नहीं, जैसे जैसे ये मेरा ध्यानाकर्षण कर रही हैं वैसे वैसे इन्हें यहां टांकती जा रही हूँ। आशा है आप इनकी धमाचौकड़ी से परेशान हो उठ कर नहीं चले जायेगें। तो आइए आप से प्रार्थना है कि मेरी यादों का हमसफ़र बन कदम दो कदम साथ चलें।

पीछे दूर तक द्रष्टि जाती है तो दिखाई देता है, नहीं सुना है, मम्मी जब रसोई में खाना बना रही होतीं हम पास जा बैठते (2 साल की उम्र में और कर भी क्या सकते थे)। मम्मी मुस्कुरा कर थोड़ा दूर बैठाने के इरादे से सब्जी की टोकरी हमारे सामने रख देतीं। उस जमाने में गैस के चुल्हे सब के घर नहीं होते थे न, और खाना भी फ़र्श पर बैठ कर बनाया जाता था, ज्यादा पास आने पर जल जाने का खतरा होता था। मम्मी खाना बनाती जातीं और साथ में हमसे खेलती जातीं( खेल? नहीं जी पढ़ाई…फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि हमें खेल लगता था) एक एक आलू ए, बी, सी, डी होता और एक एक प्याज 1, 2, 3 होता, कभी मम्मी ये सारे आलू प्याज टौकरी में वापस डालतीं और कभी हम।

गाजियाबाद की बात है, तब भी स्कूल में दाखिला लेने के लिए इंटरव्यू देना पड़ता था। सो हमें भी यह इंटरव्यू देना पड़ा। मम्मी के उस रसोई के खेलों की बदौलत प्रिंसीपल साहिबा ने हमें नर्सरी छोड़ सीधे पहली क्लास में दाखिला दे दिया और पढ़ाई की शुरुवात में ही हमें दो साल का फ़ायदा हो गया।

दूसरी याद मेरा पल्लु खींच कर मुझे याद दिला रही है कि मेरी पढ़ाई  में मम्मी का योगदान एम फ़िल के दिनों तक चला जब हम खुद भी मां बन चुके थे। अरे नहीं नहीं, एम ए के दिनों में मम्मी हमें पढ़ाती नहीं थीं फ़िर भी उनका योगदान कुछ कम नहीं था। बात दरअसल ये है कि उस जमाने में फ़ोटोकॉपी करने की सुविधा इतने व्यापक रूप से प्रचलित नहीं थी जैसे आज है और महंगी भी बहुत थी। सो मैं और मेरी सहेलियां कार्बन पेपर का इस्तेमाल कर नोटस बनाते थे। नोटस बनाने का काम बहुत ज्यादा होता था। मम्मी बिचारी हर दम अपने बच्चों की तकलीफ़ों से द्रवित कहती लाओ मैं कुछ लिख देती हूँ। हम कॉलेज चले जाते और मम्मी घर के सारे काम निपटाने के बाद अपने दोपहर की नींद की बलि चढ़ा कर हमारे नोटस लिखतीं जो हम किताब में निशान लगा जाते। हम शाम को आते जैसे लेक्चर में बैठ कर केन्टीन की टैबल तोड़ कर हम कोई बड़ा काम कर के आये हों और मम्मी बिचारी चायवाय बनाने में लग जातीं।

आज सोचती हूँ कितने आत्मकेंद्रित थे हम। मां को कितना टेकन फ़ोर ग्रांटेड लेते थे। आज हम शर्मसार हैं ये सोच सोच कर कि खुद मां बन जाने के बाद भी हमें ये एहसास बहुत कम था कि कैसे बिना जताये माँ हमारी जिन्दगी का सहारा बनी हुईं हैं। हमने एम फ़िल करने का फ़ैसला किया तो मम्मी ने अपनी ढलती उम्र को दरकिनार कर हमारे बेटे की देखभाल का दायित्व स्वभाविक रूप से अपने ऊपर ले लिया। हम फ़िर अपनी किताबों की दुनिया में खो गये और मम्मी ने एक बार फ़िर आलू प्याज का खेल शुरु कर दिया। इस बार चुनौतियां उनके लिए दुगुनी थी, अंग्रेजी में जो कविताएं सिखानी थीं।

जब हम अपने कैरियर की राह पर अपने कदम जमा रहे थे उनके बूढ़े पैर अपने नाती के उछलते कदमों से कदम मिलाते स्कूल की तरफ़ बढ़ रहे थे। कभी ये कदम बिना नागा अलीगढ़ में मेरे स्कूल की तरफ़ आया करते थे और लोग समझते थे कि वो शायद मास्टरनी हैं। मास्टरनी ही थीं सिर्फ़ औहदा नहीं मिला हुआ था,या कहें मिला ही हुआ था, वो कहते हैं न थानेदार की बीबी थानेदारनी तो मास्टर की पत्नी मास्टरनी हुई न!

हमने कौमार्य की दहलीज पर कदम रखा, पढ़ने का शौक बहुत था और जो हाथ लगता चट्ट कर जाते। एक दिन पिता जी ने हमें गुलशन नंदा का उपन्यास "जय देव" पढ़ते देख लिया। हमें तो कुछ नहीं कहा पर मम्मी से पता नहीं क्या कहा, उस दिन से मम्मी ने उपन्यास तो क्या पत्रिकाएं भी पढ़ना बंद कर दिया। आज हमें उनकी बोरियत का एहसास है। तभी की बात है हम शायद छटी कक्षा में रहे होगें, मम्मी हमें पढ़ा रही थीं और शायद रहीम के दोहे समझाने में असमर्थ रहीं। पापा पास ही बैठे थे, बस आनन फ़ानन में उन्हों ने फ़ैसला लिया कि मम्मी बच्चों की पढ़ाई ठीक से देख सकें इस लिए उन को अपनी पढ़ाई एक बार फ़िर से शुरु कर देनी चाहिए।

मम्मी ने सिर्फ़ इंटर किया हुआ था शादी से पहले। अब पापा के कहने पर कम से कम पंद्रह सालों के अंतराल के बाद उन्हों ने बी ए करने का निश्च्य किया। उस समय तक मेरे दोनों भाई भी उनकी गोद में शोभायमान हो चुके थे और हमें याद है जनवरी की कड़कती ठंड में वो सोफ़े पर बैठी पढ़ रही होती और मेरा छोटा भाई रोता हुआ उनकी गोदी में आ धमकता उनके बिना न सोने की जिद्द करता हुआ। परीक्षा के दिनों में भी आये गये मेहमानों की खातिरदारी करतीं वो पापा के साथ लगभग दौड़ती सी परीक्षा देने जाती और भागती सी वापस आ सीधा चौके में घुस जातीं और फ़िर रात को किताबें उनका इंतजार करती होतीं।

पापा का योगदान इस पूरी प्रक्रिया में ये रहता कि पापा के सहकर्मी दोस्त आ कर मम्मी को थोड़ी गाइडेंस दे जाते और जब तक मम्मी परीक्षा दे रही होती  पापा छोटे भाई को संभालते। हमने पहली बार खाना बनाने का प्रयास उसी समय किया था और मम्मी हमारी बनायी कच्ची पक्की सब्जी को देख कर भी गदगद हो गयी थीं। यह अलग बात है कि खाना तब भी बाहर से मंगाना पड़ा था, आटा गूंधने के प्रयास में हमने कभी पानी ज्यादा और कभी आटा ज्यादा करते करते पूरा डिब्बा जो खाली कर दिया था और पूरे महीने का बजट तो टें बोल गया था। फ़िर भी वो गदगद …ये मां के सिवा कोई और कर सकता है क्या?  

अनिता । कुछ हम कहें

Thursday, September 25, 2008

माँ

कैसी होती है माँ ?

धरती सी सहनशील
सागर सी गुरु-ह्रदय
सूरज सी कार्यरत
बादल सी करुणामय
ईश्वर सी प्रेममयी
साक्षात माया ममता
ऐसी होती है माँ ।

ममता की मृदु छाया
संतानों पे धरती
जीवन की तपिश से
भरसक रक्षा करती
खुद भूखे रहती पर
सब को खाना देती
तन,मन,धन, सारा
न्योछावर कर देती
ऐसी होती है माँ ।

माँ का सम्मान करें
आदर अभिमान धरें
आहत वो हो जाये
ना ऐसी बात करें
थकी हारी देह को
थोडा विश्राम भी दें
हँसी उसे आजाये
कुछ ऐसी बात करें
कितनी है प्यारी माँ
जग से है न्यारी माँ

ashaj45.blogspot.com

Wednesday, September 24, 2008

वंदे मातरम .

हम भारतियों के लिए वंदे मातरम भावना का चरम है ।

माँ ......हर धर्म सस्कृति समाज देश में ,इतिहास के हर मोड़ पे सर्वोच्च सम्मानित सम्बन्ध !

माँ की वंदना....... वंदे मातरम !........हम कहें .........वंदे मातरम !

'वंदे मातरम ' शब्द भारत के हैं ,पर सम्मान हर एक माँ का है !

फ़िर भी ......न कर सकें वंदना तो ना सही।

इतना तो करें....... किसी बेटे की गलती पे किसी ........

माँ को गाली तो न दें .

गलती बेटा करे .......गाली माँ खाए ??????????

वंदे मातरम !

मेरी माँ

अपनी माँ के बारे लिखना एक भावुक कार्य है । उनकी महानता का चित्रण कहीं पाठक आत्म प्रशंसा न समझे । लेकिन अपनी माँ के बारे में लिख कर मैं अपने को धन्य समझूंगा ।

एक ऐसा खानदान जिसमे लड़कियां पैदा होते ही मार दी जाती थी क्योंकि ठाकुर और ऊपर से जमींदार । बहुत समझाने के बाद यह तय हुआ कि एक लड़की जो पहले पैदा हो वोही जिन्दा रखी जायेगी । लेकिन परस्थिति ऐसी कर दी जाती थी कि बेटी जिन्दा न रह सके जैसे माँ का दूध वर्जित ,कोई दवाई नहीं ,कोई ध्यान नहीं -और थोड़े दिन बाद बेटी अपने बाप का सर न झुकवा ने का कारण बन कर मुक्त हो जाती थी ।

उसी परिवार में जन्मी मेरी माँ , लेकिन मेरे नाना को न जाने क्या लगाव हो गया उन्होंने अपनी बेटी को जिन्दा रखने का फैसला किया .लेकिन उनकी माँ यह नहीं चाहती थी ,इसलिए बेटी कैसे मरे उसका प्रयास चलता रहा । बेटी को माँ के दूध की मनाही थी । परन्तु मेरे नाना और नानी ने शहर से डिब्बे वाला दूध जो अंग्रेज अपनी चाय बनाने के काम लाते थे मंगा कर चुपके से अपनी बेटी को पिलाते थे ।

आखिर कष्ट सहते हुए एक फैसला लिय गया और मेरी माँ को अपनी ननसाल भेज दिया । वहां उनके मामा जो मिलट्री में थे उन्होंने अपने पास रख कर पाला। मेरी माँ के बाद ही उस गावं में लड़की बचना शरू हुई । और एक नई शरुआत हुई ,बेटी बचाने की ।
शेष aage

माँ जैसा कोई नही होता ...



नारी हमेशा से ही हर रूप में पूजनीय रही है और उसका हर रूप अदभुत और सुंदर है| एक छोटी सी कहानी कहीं पढ़ी थी वो कहानी दिल को छू गयी !एक बेटे ने अपनी आत्मकथा में अपनी माँ के बारे में लिखा कि उसकी माँ की केवल एक आँख थी...इस कारण वह उस से नफ़रत करता था |एक दिन उसके एक दोस्त ने उस से आ कर कहा कि ;''अरे !तुम्हारी माँ कैसी दिखती है ना एक ही आँख में ?"" यह सुन कर वो शर्म से जैसे ज़मीन में धंस गया| उसका दिल किया यहाँ से कही भाग जाए , छिप जाए और उस दिन उसने अपनी माँ से कहा कि यदि वो चाहती है कि दुनिया में मेरी कोई हँसी ना उड़ाए तो वो यहाँ से चली जाए|

माँ ने कोई उतर नही दिया ,वह इतना गुस्से में था कि एक पल को भी नही सोचा कि उसने माँ से क्या कह दिया है और यह सुन कर उस पर क्या गुजरेगी | कुछ समय बाद उसकी पढ़ाई खत्म हो गयी ,अच्छी नौकरी लग गई और उसने शादी कर ली | एक घर भी खरीद लिया फिर उस के बच्चे भी हुए | एक दिन माँ का दिल नही माना | वो सब खबर तो रखती थी अपने बेटे के बारे में | जब एक दिन ख़ुद को रोक नही पायी तो उन से मिलने को चली गयी | उस के पोता -पोती उसको देख के पहले डर गए फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे बेटा यह देख कर चिल्लाया कि तुमने कैसे हिम्मत की यहाँ आने की ,मेरे बच्चो को डराने की और वहाँ से जाने को कहा |माँ ने कहा कि शायद मैं ग़लत पते पर आ गई हूँ मुझे अफ़सोस है ,और वो यह कह के वहाँ से चली गयी|

एक दिन पुराने स्कूल से पुनर्मिलन समरोह का एक पत्र आया | बेटे ने सोचा कि चलो सब से मिल के आते हैं !वो गया सबसे मिला ,यूँ ही जिज्ञासा हुई कि देखूं माँ है की नही अब भी पुराने घर में|

जब वह वहां गया तो .वहाँ जाने पर पता चला कि अभी कुछ दिन पहले ही उसकी माँ का देहांत हो गया है | यह सुन कर भी बेटे की आँख से एक भी आँसू नही टपका |तभी एक पड़ोसी ने कहा कि वो एक पत्र दे गयी है तुम्हारे लिए .....पत्र में माँ ने लिखा था कि ""मेरे प्यारे बेटे मैं हमेशा तुम्हारे बारे में ही सोचा करती थी और सदा तुम कैसे हो? कहाँ हो ?यह पता लगाती रहती थी | उस दिन मैं तुम्हारे घर में तुम्हारे बच्चो को डराने नही आई थी ,बस रोक नही पाई उन्हे देखने से इस लिए आ गयी थी, मुझे बहुत दुख है की मेरे कारण तुम्हे हमेशा ही एक हीन भावना रही ,पर इस के बारे में मैं तुम्हे एक बात बताना चाहती हूँ कि जब तुम बहुत छोटे थे तो तुम्हारी एक आँख एक दुर्घटना में चली गयी |अब मै माँ होने के नाते कैसे सहन करती कि मेरा बेटा अंधेरे में रहे ,इस लिए मैने अपनी एक आँख तुम्हे दे दी और हमेशा यह सोच के गर्व महसूस करती रही कि अब मैं अपने बेटे की आँख से दुनिया देखूँगी और मेरा बेटा अब पूरी दुनिया देख पाएगा उसके जीवन में अंधेरा नही रहेगा ..
सस्नेह तुम्हारी माँ

यह एक कहानी यही बताती है कि माँ अपनी संतान से कितना प्यार कर सकती है बदले में कुछ नही चाहती नारी का सबसे प्यारा रूप माँ का होता है बस वो सब कुछ उन पर अपना लुटा देती है और कभी यह नही सोचती की बदले में उसका यह उपकार बच्चे उसको कैसे देंगे ! नारी का रूप माँ के रूप में सबसे महान है इसी रूप में वो स्नेह , वात्सलय , ममता मॆं सब उँचाइयों को छू लेती है | उसके सभी दुख अपने बच्चे की एक मुस्कान देख के दूर हो जाते हैं!

तभी हमारे हिंदू संस्कार में माँ को देवता की तरह पूजा जाता है माँ को ही शिशु का पहला गुरु माना जाता है सभी आदर्श रूप एक नारी के रूप में ही पाए जाते हैं जैसे विद्या के रूप में सरस्वती ,धन के रूप में लक्ष्मी, पराक्रम में दुर्गा ,सुन्दरता में रति और पवित्रता में गंगा ..वो उषा की बेला है, सुबह की धूप है ,किरण सी उजली है इस की आत्मा में प्रेम बसता है|
किसी कवि ने सच ही कहा है कि ..

प्रकति की तुम सजल घटा हो
मौसम की अनुपम काया
हर जगह बस तुम ही तुम
और तुम्हारा सजल रूप है समाया !!


रंजना

Tuesday, September 23, 2008

माँ –- किसने तुझे मौत की ओर धकेला!!

noii's मेरी माँ काफी स्वस्थ स्त्री थीं एवं उनका जीवन काफी संघर्षमय था. प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध, चीन के साथ एवं पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान देश में जो अकाल पडा था वह सब उन्होंने सहा था, लेकिन बताया किसी को नहीं.

सत्तर साल की उमर में जब उनको अचानक कैंसर हो गया तो यह परिवार के लिये काफी दु:ख की बात थी. डाक्टर ने उनको सिर्फ 6 महीने और दिये थे, लेकिन अस्पताल-घर-अस्पताल इस तरह उन्होंने तीन साल और बिता दिये. अचानक एक दिन फिर उनको अस्पताल ले जाना पडा एवं मेरी पत्नी सेवा के लिये पुन: उनके पास चली गईं. वह शहर हमारे घर से लगभग 120 किलोमीटर दूर था.

अगले दिन अचानक मेरी पत्नी का फोन आया कि मैं तुरंत सब कुछ छोड अस्पताल पहुंचूँ. ऐसा ही किया. डाक्टरों ने उनको सिर्फ कुछ क्षणों का समय दिया हुआ था. वहां पहुंच कर एक बात मैं ने नोट की कि मां बार बार मूँह खोल रही हैं एवं कुछ कहना चाहती हैं. मेरी पत्नी ने बताया कि प्यास के मारे उनकी हालत खराब हो रही है, एवं पानी मांग रही हैं,  लेकिन डाक्टर एवं नर्से उनको पानी पिलाने नहीं दे रहे.

मुझे यकीन नहीं हुआ कि यह क्या हो रहा है. नर्सों से पूछा तो वे बोलीं कि मां के गले की सारी मांसपेशियां काम करना बंद कर चुकीं है अत: पानी पिलाने पर पानी उनके फेंफडे में जाकर दम घुटने से उनका जीवन जा सकता था. मैं ने पूछा कि प्यासा रखा जाये तो कितने और घंटे वे जीवित रहेंगी. नर्सों ने कहा कि अधिकतम 6 घंटे क्योंकि अब उनकी अंतिम घडी आ गई है. तुरंत जाकर डाक्टर से पूछा तो उन्होंने भी जवाब यही दिया कि अधिकतम 6 घंटे और बचे हैं.

मैं एक क्षण भी वहां न रुका. दौड कर कमरे में जाकर अपनी पत्नी से कहा कि वे तुरंत मां को पानी पिलाये. पत्नी बडी हिचकिचाई कि कुछ अनहोनी हो गई तो लोग बुरा मानेंगे. मैं ने अपनी तुरंत पास खडी अपनी बहिन को बुलाया, एवं पत्नी एवं बहिन  से कहा कि रूई गीली करके वे तब तक मां को पानी पिलाते रहें जब तक उनकी प्यास न बुझ जाये. लोग डाक्टरों एवं संभावित मृत्यु के  डर के मारे कांप गये, लेकिन मेरा कोप देख कर उन्होंने मेरा कहा मान लिया.

मेरी सोच यह थी कि अर्ध मूर्छित पडी मां को प्यासा रख 6 अगले घंटे तक तडपाने के बदले उनकी प्यास पहले बुझाई जाये. अर्धमूर्छित पडी मेरी मां को प्यास से तडपा तडपा  कर  उनके जीवन को 6 घंटे और लम्बा करना मुझे स्वीकार्य न था. मैं चूंकि घर का ज्येष्ठ पुत्र था अत: पिताजी से लेकर किसी ने मेरे निर्णय का विरोध नहीं किया.

लगभग 1 घंटे गीली रूई से पानी पिलाने पर  मां की प्यास पूरी तरह मिट गई एवं वें आराम से सो गईं. 6 घंटे छोडिये, 10 घंटे बीत गये.  उस रात उनको होश आ गया. चार दिन के बाद वे इतनी स्वस्थ हो गईं कि अस्पताल से डिश्चार्ज कर दिया.

इसके बाद मेरी मां दो साल और जीवित रहीं. लेकिन यदि मैं ने अपने रिस्क पर -- मन कडा करके -- एक निर्णय न लिया होता तो उस दिन डीहाईड्रेशन से जरूर उनकी मृत्यु हो जाती. अगले दो साल हमारे लिये मां के साथ बिताये सबसे सुखद साल थे, शायद इस कारण कि समय पर मैं सही निर्णय ले सका.

शास्त्रीसारथी | Picture by noii's

Monday, September 22, 2008

आजकल की माताएँ

alexandralee हमारे जमाने क़ी माओं और आज क़ी माओं में मैने बहुत बड़ा अंतर पाया है. पहले अपने यहाँ संयुक्त परिवारों क़ी व्यवस्था थी. एकल परिवार बिरले थे. संयुक्त परिवार में बच्चे एक उन्मुक्त वातावरण में पलते हैं. घर गृहस्थी के अतिरिक्त माओं पर बच्चों से संबंधित दायित्व उतना ज़्यादा नहीं था जितना आज है. परिवार में दायित्व बहुओं में बँटा रहता था. मैं स्कूल में क्या करता हूँ, क्या पढ़ता हूँ, होमवर्क क्या है आदि क़ी मेरी मां ने कभी सुध नहीं ली. ले भी कैसे, बच्चों क़ी तो लाइन लगी थी. किस बच्चे की सोचे. या ये कहें कि ज़रूरत ही नहीं थी. भगवान ने दिया है तो सब वही संभालेगा. परीक्षा में ९८% अंक प्राप्ति क़ी कल्पना किसी ने क़ी थी क्या? लेकिन आज का परिदृश्य?

मैं रोज देखता हूँ, हर रोज सुबह होते ही, बच्चों को तय्यार करा कर हाथ पकड़ कर ले जाते हुए. स्कूल बस में चढ़ाने. बस्ते का बोझ भी मां ही ढोती है. बच्चों क़ी वापसी के समय पुनः माताएँ सड़क के किनारे खड़ी इंतज़ार करती रहती हैं. बच्चों के आने पर बस्ते को स्वयं कंधे पर लटका कर, घर लाती हैं. बच्चा नाचता गाता इठलाता हुआ आगे आगे चलता है, मां पीछे पीछे. बच्चे के घर पहुँचते ही शुरू हो जाता है, कल के होम वर्क क़ी खोज खबर.

कल ही क़ी बात है. एक दूसरे शहर मे पदस्थ अपने भाई से बात क़ी. बहू के बारे में पूछा. पता चला कि वह अचानक बेटे से मिलने कोडैकनाल अकेले ही चली गयी है. बार बार के तबादलों और बच्चों कि पढ़ाई पर उसके दुष्प्रभाव को ध्यान मे रख कर इसी साल मेरे एक भतीजे को वहाँ क़ी बोर्डिंग स्कूल में भर्ती कराया गया था. वहाँ ठंड कुछ ज़्यादा ही पड रही है और गरम कपड़े उसके पास उतने नहीं थे जितने क़ी ज़रूरत है. अपने इस बेटे के लिए गरम कपड़े लेकर गयी है. वहाँ यह भी देखेगी क़ी उसकी पढ़ाई कैसे चल रही है. सभी कापियों क़ी जाँच भी करेगी. उसका बस चलता तो बेटे के साथ साथ खुद भी होस्टल में ही रहती. एक दूसरा बेटा पास ही दूसरे शहर में इंजनीरिंग के अंतिम पड़ाव में है. पिछले सेमिस्टेर में दो विषयों में कम नंबर मिले. इस बात का टेन्षन भी है. इसलिए उसके पास जाना भी ज़रूरी है.

मेरा एक दूसरा भाई (हम अनेक हैं) कनाडा में पदस्थ था, चार साल के लिए. दो बच्चियाँ है. बड़ी हुनरमंद. वहाँ क़ी पढ़ाई मस्ती भरी होती है. बहू ने भारतीय सीबीएससी क़ी किताबें मंगवाली. बच्चों को स्कूल से आने के बाद इन किताबों को पढ़ना पड़ता था. इस का फ़ायदा यह हुआ कि उनके वापस आने के बाद यहाँ पढ़ाई जारी रखने में कोई दिक्कत नहीं हुई. १० वीं में छोटी को ९४.५% अंक मिले. माता अप्रसन्न थी. उसने बेटी से पूछा - बचे हुए ५.५ किसे दे आई. बड़ी वाली इंजनीरिंग कर रही है और कॉलेज में हमेशा अव्वल.

लगता है कि विश्व में बौद्धिक संपदा पर भारतीय एकाधिकार का मार्ग प्रशस्त करने में हमारी माताओं की अहम भूमिका रहेगी.
 
आलेख: पी एन सुब्रमनियन । चित्र by alexandralee

* एक उलझन *

मेरे गुजराती ब्लॉग मै लिखा हुआ यहा हिन्दी मै पेश करती हू.... कुछ गलती हो तो माफ कीजिएगा.


*एक उलझ़न *
~~~~~~~~

क्या कहू??
कहने को कोई शब्द नही मिलते,
शब्द मिलते है तो,
सुनने को कोई अपने नही मिलते...
मन की बात किसे कहू???
जब कोई मुझे ही समझते...
उल़झन मै फंस जाती हँ,
तब याद आती है उस मॉं की
जिसके बिना ज़िंदगी मै,
सही मंज़िल नहीं मिलती....

Sunday, September 21, 2008

अम्मा !



किस अतीत को याद कर रहीं,
कौन ध्यान में तुम खो बैठी,
चारों धामों का सुख लेकर,
किस चिंता में पड़ी हुई हो!
ममतामय मुख, दुःख में पाकर सारी खुशिया खो जाएँगी,
एक हँसी के बदले अम्मा, फिर से मस्ती छा जायेगी !
सारे जीवन, हमें हंसाया,
सारे घर को स्वर्ग बनाया,
ख़ुद तकलीफ उठाकर अम्मा
हम सबको हंसना सिखलाया
तुमको इन कष्टों में पाकर, हम जीते जी मर जायेंगे ,
एक हँसी के बदले अम्मा, फिर से रौनक आ जायेगी !
कष्ट कोई ना तुमको आए
हम सब तेरे साथ खड़े हैं,
क्यों उदास है चेहरा तेरा,
किन कष्टों को छिपा रही हो
थकी हुई आँखों के आगे , हम सब कैसे हंस पाएंगे !
एक हँसी के बदले अम्मा , रंग गुलाल बिखर जायेंगे
सबका, भाग्य बनाने वाली,
सबको राह दिखाने वाली
क्यों सुस्ती चेहरे पर आयी
सबको हँसी सिखाने बाली
तुमको इस दुविधा में पाकर, हम सब कैसे खिल पायेंगे
तेरी एक हँसी के बदले , हम सब जीवन पा जायेंगे!
मेरे गीत ! पर प्रकाशित !

मां

(यह लेख मदर्स डे पर इसी साल 11 मई को लिखा गया और http://thenewsididnotdo.blogspot.com/ पर प्रकाशित हुआ)

मुंबई
11 मई 2008


इतवार की सुबह सबेरे छह बजे उठना हो, तो ऐसा लगता है कि मानो काला पानी की सज़ा भुगतनी पड़ रही है। लेकिन पिछले करीब नौ महीनों से अगर खादिम मोहल्ला की गलियों में आबपाशी नहीं कर पाया, तो इसकी वजह रही एक ऐसा जुनून, जिसमें इंसान सब कुछ भुला देता है। ये जुनून है बड़े परदे पर एक कहानी को उतारने का, और आज अगर मैं मोहल्ले की गलियों में लौटा हूं तो इसलिए नहीं कि फिल्म का तकरीबन सारा काम आज सिरे तक पहुंच गया और निर्माता ने फिल्म को फाइनल मिक्सिंग के बाद बड़े परदे पर देखकर बेइंतेहा खुशी ज़ाहिर की, बल्कि उस फोन की वजह से जो सुबह सुबह बेटे ने दिल्ली से किया। बोला- मां को हैप्पी मदर्स डे बोल दीजिए। अब उसके लिए उसकी मां सबकी मां है, लेकिन ये फोन आते ही मुझे याद आई अपनी मां, जो आज भी रोज़ाना चार घंटे बिजली वाले एक गांव में शाम होते ही छत पर बैठकर पेड़ों की फुनगियों को निहारती है, कि पत्ता हिलेगा तो तन को हवा भी लगेगी।

तीन किलोमीटर रोज़ाना बस्ता लादकर पैदल जब हम छठी में पढ़ने जाते थे, तब भी जून की तपती दोपहर मां ऐसे ही बिताती थी, और आज भी उसकी गर्मियां ऐसे ही बीतती हैं। मांएं सुखी क्यों नहीं रह पातीं ? चिल्ला जाड़े की कड़कड़ाती ठंड में सुबह सुबह बर्फ जैसे ठंडे गोबर को उतने ही ठंडे पानी में मिलाकर अहाता लीपते मां को बचपन में कई बार देखा है। सुबह शाम कुएं से बीस बीस बाल्टी पानी भरने के बाद हाथों में जो ढड्ठे पड़ते थे, उन पर मां ने कई बार मरहम भी लगाया है। कोई पांच हज़ार फिट में फैले पूरे घर को लीपने के बाद पंद्रह लोगों का दो टाइम खाना, दो टाइम नाश्ता बनाने वाली मां ने कुछ तो हसरतें हम लोगों की निकरें धोते हुए पाली होंगी। पर, आज तक वो कभी बेटों ने जानी नहीं। मांएं खुलकर बोल क्यों नहीं पातीं?

हम गांव में ही थे, जब मां बुआ के घर कानपुर गईं थीं और वहां से संतोषी मां की फोटो और शुक्रवार व्रत कथा की किताब लेकर लौटी थीं। फिल्म जय संतोषी मां रिलीज़ होने के बाद पूरे देश में मुझ जैसे तमाम बच्चों से शुक्रवार की इमली छिन गई थी। कभी गलती से स्कूल में शुक्रवार को चाट भी खा ली, तो लगता था कि कुछ ना कुछ अनिष्ट होकर रहेगा। संतोषी माताएं हमारी मांओं जैसी क्यों नहीं होतीं? शायद वो शुक्रवार का दिन ही रहा होगा, जब आले मे रखा मट्ठा नीचे रखी बर्तनों की पेटी पर गिर गया था। मां ने उस दिन पीतल और कांसे के बर्तन बड़े जतन से मांज मांज कर चमकाए थे, और शाम होती ही सारे बर्तन कसैले हो गए। मां की आंखों की किसी कोर में उस दिन आंसू आ गए थे। मांएं इतनी संवेदनशील क्यों होती हैं?

और, मां का वो चेहरा तो सामने आते ही जैसे पूरा संसार जम सा जाता है, जब मां ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए किडनी देने का फैसला किया था। लखनऊ एम्स के गलियारे में जिस तरह हम दोनों भाई, बहन, और पापा मां के सामने बैठे थे, ऐसा लग रहा था, मानो मां को कसाई के हाथों सौंपने जा रहे हैं। तीसरा भाई जिसने अभी ये भी नहीं समझा कि जवानी क्या होती है, शायद पढ़ाई के बोझ के मारे या किसी शुक्रवार को इमली खाने की वजह से आईसीयू में मौत से बख्शीश मांग रहा था। मांएं कसौटी पर बार बार क्यों कसी जाती हैं? मां की कुर्बानी काम ना आ सकी। छोटा भाई घर तो लौटा, लेकिन इस बार भी उसे भगवान के यहां जाने की जल्दी थी। कमबख्त, मेरे मुरादाबाद से लौटने का इंतज़ार भी न कर सका। बस स्ट्रेचर पर बेहोशी की हालत में मिला। मेरा हाथ लगते ही बोला- भाईजी स्कोर क्या हुआ है? क्रिकेट बहुत देखता था वो, उसे क्या पता कि भगवान उसकी गिल्ली कब की उड़ा चुके हैं। मेरा बेटा भी क्रिकेट बहुत खेलता है। छोटे भाई को भगवान ने जिस तारीख को अपने पास बुलाया, उसके ठीक नौ महीने बाद- ना एक दिन आगे ना एक दिन पीछे- इन महाशय ने अपनी दादी की गोद गंदी की। और, अब इतने बड़े हो गए हैं कि फोन करके मदर्स डे याद दिलाते हैं? हम जैसे गांव वालों को माएं मदर्स डे पर याद क्यों नहीं आतीं?

और चलते चलते वो गाना जो मां के लिए हमने बचपन में सीखा था...

तुझको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी..
ऐ मां, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी..

कहा सुना माफ़...

पंकज शुक्ल

मां तेरे रूप अनेक (छायाचित्र)

ToOliver2

This pen and Ink is based upon an old photo of an actual Sioux woman carrying her child. I believe the photo was taken in 1913 so that baby would be close to 95 years old today. No pencil or charcoal for shading... all shading is done in ink by crosshatching. Everything is freehand. [by ToOliver2]

 

 

शास्त्री: सारथी

मेरी मम्मी (छायाचित्र)

Shashwat_Nagpal

मम्मी मुझ से प्यार करती हैं!!
by Shashwat_Nagpal

 

शास्त्री: सारथी

Saturday, September 20, 2008

माँ कभी ख़त्म नही होती ....


माँ लफ्ज़ ज़िंदगी का वो अनमोल लफ्ज है ... जिसके बिना ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं कही जा सकती ...

मेरा बचपन थक के सो गया माँ तेरी लोरियों के बग़ैर
एक जीवन अधूरा सा रह गया माँ तेरी बातो के बग़ैर

तेरी आँखो में मैने देखे थे अपने लिए सपने कई
वो सपना कही टूट के बिखर गया माँ तेरे बग़ैर.....

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आज तू बहुत दूर है मुझसे, पर दिल के बहुत पास है।
तुम्हारी यादों की वह अमूल्य धरोहर

आज भी मेरे साथ है,

ज़िंदगी की हर जंग को जीतने के लिए,
अपने सर पर मुझे महसूस होता
आज भी तेरा हाथ है।

कैसे भूल सकती हूँ माँ मैं आपके हाथों का स्नेह,

जिन्होने डाला था मेरे मुंह में पहला निवाला,
लेकर मेरा हाथ अपने हाथों में,

दुनिया की राहों में मेरा पहला क़दम था जो डाला

जाने अनजाने माफ़ किया था मेरी हर ग़लती को,

हर शरारत को हँस के भुलाया था,
दुनिया हो जाए चाहे कितनी पराई,
पर तुमने मुझे कभी नही किया पराया था,
दिल जब भी भटका जीवन के सेहरा में,
तेरे प्यार ने ही नयी राह को दिखाया था

ज़िंदगी जब भी उदास हो कर तन्हा हो आई,
माँ तेरे आँचल ने ही मुझे अपने में छिपाया था

आज नही हो तुम जिस्म से साथ मेरे,
पर अपनी बातो से , अपनी अमूल्य यादो से
तुम हर पल आज भी मेरे साथ हो..........
क्योंकि माँ कभी ख़त्म नही होती .........
तुम तो आज भी हर पल मेरे ही पास हो.........
माँ हर पल तुम साथ हो मेरे, मुझ को यह एहसास है


Friday, September 19, 2008

अजब संजोग

आज माँ के बारे में, कैसा अजीब दिन १९९१ ,१९ सित' आखरी दिन जब माँ से मिल रहा था।

लखनऊ का एस जी पी जी आई का वह कमरा आज भी मेरी आँखों के सामने । एक छोटे सा ओपरेशन जो २० तारीख को होना था, बी आई पी मरीज़ स्वास्त मंत्री तीमारदार, मुख्य मंत्री हाल चाल ले रहा हो तो बड़ा डोक्टर आया ओपरेशन करने जो प्रोफेसर था और अनास्तासिया के समय सब कुछ ख़त्म।

विशिस्ट होने कि सजा मिली हमको । इससे आगे फिर कभी आज नहीं क्योंकि आज मेरी माँ बहुत दूर चली गई । और सब कुछ रह गया उनके पीछे । आज जो हम है वह उन्ही कि दें थी । पापा का संसद सदस्य होने में उनकी भूमिका सिर्फ यादें और यादे ...................

Sahitya Shilpi

तेरी ममता जीवनदायी …माई ओ माई …

पिछले वर्ष इलाहाबाद में स्थानान्तरण से आने के बाद मेरे घर में पहली बार कम्प्यूटर आया, ...तत्काल इन्टरनेट लगा और अब ....ब्लॉग जगत में प्रवेश करने के बाद तो जिन्दगी ही बदल गयी है। पहले सत्यार्थमित्र, फिर हिन्दुस्तानी एकेडेमी और अबमाँ’; लगता है जैसे यह सब सपना है। ...लेकिन की-बोर्ड की खटर-पटर आश्वस्त करती है कि मैं जाग्रत अवस्था में हूँ। शास्त्री जी ‘सारथी’ का सानिध्य और उत्साहबर्द्धन तो अमूल्य है।

अपनी माँ के बारे में क्या लिखूँ... जब ०६ वर्ष का था, तभी पेशे से अध्यापक पिता ने गाँव से हटाकर निकट के कस्बे में हम सभी भाई-बहनों को एक शिशु मन्दिर में पढ़ने के लिए किराये के कमरे में स्थापित कर दिया। उनमें मैं सबसे छोटा था और सबसे बड़े भाई थे ११ साल के। हम तभी से स्वपाकी हो गये।

सप्ताहान्त पर गाँव जाना होता तो माँ दरवाजे पर ही प्रतीक्षा करती मिल जातीं ...शनिवार की शाम से लेकर सोमवार की सुबह सात-आठ बजे तक का समय ही के हिस्से में होता, जो हमारे गन्दे कपड़ों की सफाई, सरसो के उबटन से साप्ताहिक मालिश, चार भाई-बहनों के बीच सप्ताह भर में हुए विभिन्न झगड़ों के निपटारे और आगामी सप्ताह के लिए भोज्य पदार्थों और ‘नसीहतों’ की पोटली बाँधने में बीत जाती। ...यही समय हमारे लिए स्पेशल डिश खाने का भी होता जिसे बनाने में उन्हें विशेष महारत हासिल थी।


‘हाई स्कूलमें आकर हम और दूर हो गए। माँ का सानिध्य साप्ताहिक से बढ़कर मासिक या इससे भी लम्बा होता गया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद तो हम वार्षिक त्यौहारों में ही के आँचल की छाँव पा सकते थे। उस जमाने में गाँव पर टेलीफोन या बिजली भी नहीं थी। चिठ्ठियों से हाल-चाल मिला करता था। फिर नौकरी मिली तो भी माँ को अपने पास स्थायी रूप से नहीं बुला सका। बड़े से संयुक्त परिवार में सबसे बड़ी होने के नाते वह गाँव नहीं छोड़ सकीं।


इलाहाबाद ने मुझे उनकी सेवा का अवसर भी दिया है। मेरा बेटा जब दिसम्बर में एक साल का हुआ तो उस अवसर पर आने का मेरा आग्रह वे टाल नहीं सकीं। उसके बाद यहाँ के माघ-मेले का लोभ-संवरण वे खुद ही नहीं कर पायीं। यहाँ करीब महीने भर का दुर्लभ सानिध्य हमें बहुत सुख दे गया।


...इसी अवसर पर त्रिवेणी महोत्सव का भव्य आयोजन हुआ था। यहाँ का ‘कवि सम्मेलन’ और ‘मुशायरा’ उत्कृष्ट था। मैने वहाँ जब ताहिर फ़राज के कण्ठ से इस गीत को अत्यन्त भावुक स्वर में सुना तो अनायास मेरी आँखें भर आयीं…। …मैने क्या-क्या नहीं गवाँ दिया इस जीवन में माँ से दूर रहकर।


आप भी इन पंक्तियों को पढ़िएमुझे विश्वास है कि आप भी वैसा ही कुछ महसूस करेंगे..

अम्बर की ऊँचाई, सागर की ये गहराई

तेरे मन में है समाईमाई ओ माई

तेरा मन अमृत का प्याला, यहीं क़ाबा यहीं शिवाला

तेरी ममता जीवनदायी माई ओ माई


जी चाहे क्यूँ तेरे साथ रहूँ मैं बन के तेरा हमजोली

तेरे हाथ न आऊँ छुप जाऊँ, यूँ खेलूँ आँख मिचौली

परियों की कहानी सुनाके, कोई मीठी लोरी गाके

करदे सपने सुखदायीमाई ओ माई।


संसार के ताने-बाने से घबराता है मन मेरा

इन झूठे रिश्ते नातों में, बस प्यार है सच्चा तेरा

सब दुख सुख में ढल जाएँ, तेरी बाहें जो मिल जाए

मिल जाए मुझे खुदाईमाई ओ माई


जाड़े की ठण्डी रातों में जब देर से घर मै आऊँ

हल्की सी दस्तक पर अपनी तुझे जागता हुआ मैं पाऊँ

र्दी से ठिठुरती जाए, ठण्डा बिस्तर अपना

मुझे दे दे गरम रजाईमाई ओ माई


फ़िर कोई शरारत हो मुझसे नाराज करूँ मै तुझको

फ़िर गाल पे थप्पी मार के तू सीने से लगा ले मुझको

बचपन की प्यास बुझादे अपने हाँथों से खिलादे

पल्लू में बँधी मिठाई…..माई ओ माई

डबडबाई आँखों से मैने गीत के ये बोल मद्धिम रोशनी में कागज पर उतारे थे। ताहिर फ़राज साहब को सलाम करते हुए इन्हें यहाँ दे रहा हूँ। कोई शब्द बदल गया हो तो जरुर बताएं।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)