Wednesday, October 29, 2008

माँ के ख़त


माँ ..
दीवाली के रोशन दीयों की तरह
मैंने तुम्हारी हर याद को
अपने ह्रदय के हर कोने में
संजों रखा है

आज भी सुरक्षित है
मेरे पास तुम्हारा लिखा
वह हर लफ्ज़
जो खतों के रूप में
कभी तुमने मुझे भेजा था

आशीर्वाद के
यह अनमोल मोती
आज भी मेरे जीवन के
दुर्गम पथ को
राह दिखाते हैं
आज भी रोशनी से यह
जगमगाते आखर और
नसीहत देती
तुम्हारी वह उक्तियाँ
मेरे पथ प्रदर्शक बन जाते हैं
और तुम्हारे साथ -साथ
चलने का
एक मीठा सा एहसास
मुझ में भर देते हैं ..

रंजना [रंजू ] भाटिया

Saturday, October 25, 2008

जीवन दायिनी, शक्तिदायिनी माँ


मै और मेरी माँ


आज धन-तेरस है, मेरी माँ का जन्म-दिवस, कहते है धन-तेरस के दिन सोना, चाँदी, रत्न आदि की खरीदारी को श्रेष्ठ माना जाता है, मेरी माँ भी एक रत्न के रूप में मेरे नाना को धन-तेरस के दिन प्राप्त हुई थी। माता-पिता की लाडली सन्तान होने के साथ-साथ मेरी माँ चार भाईयों की इकलौती बहन भी थी, नाना बड़े प्यार से उन्हे संतोष कहकर पुकारा करते थे, जैसा नाम वैसा ही गुण, खूबसूरत होने के साथ-साथ कोयली सी मीठी बोली सबको लुभाती थी।

नाना-नानी और चार भाईयों के प्यार में माँ पल कर बड़ी हुई। नटखट हिरनी सी यहाँ-वहाँ कुलाँचे भरती माँ सभी के मन को मोह लेती थी, तभी तो दादा जी उन्हे देख पोते की बहू बनाने को लालायित हो उठे थे। छोटी सी उम्र में माँ नाना का घर छोड़ एक अन्जान शहर में आ गई। लाड़ प्यार से पली माँ एक घर की बहू बन बैठी और वो भी घर की बड़ी बहू। घर में सब माँ को पाकर बहुत खुश थे। एक-एक कर मेरी दो बहन और भाई का जन्म हुआ, फ़िर मै पैदा हुई, समय जैसे पंख लगा उड़ता रहा। घर में खुशियाँ ही खुशियाँ लहरा रही थी, मेरे पिता की मै ही छोटी और लाडली बेटी थी, तभी मुझे पता चला मुझसे छोटा भी कोई आने वाला है, मेरे दादा-दादी एक बेटे की आस लगाये माँ का चेहरा निहारते रहते, हम सब की खुशी का पारावार न रहा जब मेरे छोटे भाई ने जन्म लिया।

रोमांच और खुशी से सारा घर नाच उठा मगर तभी सब पर बिजली सी गिरी एक दुर्घटना में मेरे पिता की दोनो आँखे चली गई। हम पर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। स्वाभिमान से जीने वाले मेरे पिता को हर काम के लिये किसी न किसी का सहारा लेना पड़ता था। कमाई का कोई साधन न था। किसी तरह चाचा के भेजे हुऎ पैसे ही घर की गुजर-बसर के काम आते थे। मैने अपनी माँ को पल्लू से मुँह छिपा कर कई बार रोते देखा था। नाना, मामा आ-आकर माँ को वापिस चलने के लिये कहते थे। नाना कहते थे संतोष इनके बच्चों को छोड़ और चल हमारे साथ, क्या सारी जिंदगी एक अंधे के साथ बितायेगी? अभी तेरी उम्र ही क्या है, हम तेरी दूसरी शादी कर देंगें, दर असल माँ उस समय सिर्फ़ सत्ताईस साल की थी। और उनके आगे पूरी जिंदगी पहाड़ सी खड़ी थी।

लेकिन माँ ने हिम्मत न हारी और अपने पिता को यह कह कर लौटा दिया कि यह हादसा अगर मेरे साथ या आपके अपने बेटे के साथ हो जाता तब भी क्या आप यही सलाह देते? नाना जी बेटी के सवाल का जवाब न दे पायें और उन्हे इश्वर के हवाले कर चले गये। ऎसा नही की माँ उस समय डरी नही, माँ बहुत डरी-सहमी सी रहती थी, परन्तु उन्हे मजबूत बनाने में मेरी दादी ने पूरी मदद की थी । दादी की हर डाँट-फ़टकार को माँ एक सबक की तरह लिया करती थी। पिता का नेत्रहीन होना अब उन्हे खलता नही क्योंकि पिता ने भी अपना हर काम खुद करना सीख लिया था, अब घर की कमान सम्भाली माँ के मजबूत हाथों नें। घर में ही रह कर उन्होने कपड़े सीलने, स्वेटर बनाने का काम शुरू कर दिया था। हम सब भाई-बहनों ने पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम आपस में बाँट लिया था। मेरे पिता ने भी विपरीत परिस्थितियों में धैर्य नही खोया। माँ का हाथ बटाने की उन्होने भरसक कोशिश की।

मुझे आज भी याद है ठण्डी रोटी को गुड़ के साथ चूर कर वो हमारे लिये लड्डू बनाया करते थे। जिसे खाकर हम भाई बहन स्कूल जाया करते थे। दुनियां भर की तकलीफ़ों, रूकावटों के बावजूद माँ और बाबा ने हिम्मत नही हारी और हमें खूब पढ़ाया। इस काबिल बनाया की हम अपनी जिंदगी खुशी से बिता सकें। खुद अभावों में रहकर भी हमारे लिये सुख की कामना करने वाली वो माँ आज बहुत खुश है क्योंकि उसके दोनो बेटे आज ऊँची-ऊँची पोस्ट पर है और वो बेटियाँ जो हर पल उनकी आँखों में उम्मीद बन कर रहती थी। उनकी आँखों की रोशनी बन गई हैं।

आज भी जब कोई मुझे कहता है कि मुझमें बहुत आत्मविश्वास है, मै अपने पीछे माँ को खड़ा महसूस करती हूँ। पहले पढ़ा करते थे, अकबर और शिवाजी की तरह धरती माँ के न जाने कितने वीर-विरांगनाएं हैं जिन्हे माँ से संबल मिला है। मुझे भी मेरी माँ से ही विषम परिस्थितियों का डट कर सामना करने की प्रेरणा मिली है। माँ ने ही बताया कि कठीन परिश्रम, रिश्तों में इमानदारी बड़े से बड़े खतरों से भी हमें उबार लेती हैं। किसी रिश्ते को तोड़ना जितना आसान है निभाना उतना ही मुश्किल। माँ का होना जीवन में हर दिन धन तेरस सा लगता है। माँ वो नायाब रत्न है जिसे संजो कर वर्षों से मैने अपने दिल में सजा रखा है।

सुनीता शानू

Thursday, October 23, 2008

गोपाल

आज गोपाल याद आ रहा है।

“डाक्टर मेरे पेट में बहुत ज़ोर से दुख रहा है। देखो ना”

भोली सी उसकी शक्ल....मासूम सी आवाज़....पास ही रहता था....

क्या हुआ...??.शुरुआत में बड़ा दिल लगाकर उसे देखती, परखती....पर कुछ समझ नहीं आता।

उसकी एकटक निगाहें मुझे देखती रहती। कुछ देर बाद उसका दर्द गायब हो जाता और वह अपनी दिनचर्या सुनाने लगता।

स्कूल, दोस्त, पढ़ाई, खेल सभी के बारे में कहने के लिये इतना कुछ.....नहीं कहता तो अपने परिवार के बारे में। अक्सर देखा था...उसकी माँ,पापा,बहन.....साधारण सा ही परिवार था...आर्थिक स्थिति भी ठीक ही लगती थी.....पर कुछ तो कमी उस बच्चे में झलकती थी।

अब तो गोपाल हर रोज़ आने लगा था। मुझे भी उससे लगाव होने लगा था। मेरे साथ ही बैठ नास्ता कर लेता..... “कितने बड़े नाखून हो गये हैं...काटते क्यों नहीं ?”, मैं झिड़कती...तो वह भोलेपन से लाड़ करके कहता.... “काट दो ना!!”

उस दिन मैं व्यस्त थी...देखा था गोपाल को....उतरा सा चेहरा.....पर मुझे जाना था.....

“सिस्टर ज़रा गोपाल को देखना ” बोलकर मैं बाहर के लिये निकल गई।

लौटी तो काफी देर हो गई थी। गोपाल वहीं था। बिस्तर पर लेटा हुआ।

शरीर तप रहा था। पास गई तो मेरी तरफ सिमट गया। “इसे यहाँ क्यूँ रहने दिया है....घर भेजना चाहिये ना....इसकी माँ को कहा कि नहीं”

सिस्टर कुछ कहती उससे पहले....गोपाल के तपते हाथों ने मेरी उँगली पकड़ी...... “मैं घर नहीं जाऊँगा।
मेरे पास बैठो ना”

कब मेरी गोदी में आया और सो गया पता ही नहीं लगा। उसके पापा को पूछा था...तो कहा , “आपको तकलीफ ना हो तो रहने दो उसे।”

सो कर उठा तो तरोताजा लग रहा था.....मैने कहा..., “चलो घर जाओ माँ चिन्ता कर रही होगी....

"माँ तो भगवान के पास है...।”
मेरे चेहरे को पढ़ते हुए गोपाल बोला..., “जो घर में है....मुझे माँ नहीं लगती.....।”

“मैं जाऊँ” कहकर दरवाजे तक गया....पिर दौड़कर वापस आ गया.... “मुझे आप बहुत अच्छी लगती हैं..”,फिर भाग कर ओझल हो गया।

एक दो बार फिर आया.....फिर नहीं आया....पियोन ने बताया उनका तबादला हो गया है।

पर गोपाल अक्सर याद आ जाता है....कभी जब मेरा बेटा बीमार होता है....कभी जब माँ याद आती है...।

Wednesday, October 22, 2008

तुम्हारा प्रतिबिम्ब


हूँ मैं
तेरी ही छाया
तुम्हारे ही भावों
में ढली
तुम्हारी ही आकृति हूँ
हूँ  मैं ही तो
तुम्हारे स्नेह का अंकुर
तुम्हारे ही अंतर्मन
के रंगों से सजी
तुम्हारी  ही तस्वीर हूँ
हूँ मैं ही तो ....
तुम्हारे दिल की धडकन
तुम्हारे सासों की सरगम
इस सुनहरे संसार में
गहरे से इस सागर अपार में
तुम्हारा ही तो प्रतिबिम्ब हूँ !!


बच्चे अपने माता पिता के ही प्रतिबिम्ब होते हैं | मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कोई कहता है मेरे पास आ कर कि मैं बिल्कुल अपने पापा की शकल की दिखायी देती हूँ ..या बहुत दिनों बाद मिलने वाला जब यह कहता है कि मेरी शकल  में मेरी माँ का अक्स दिखायी देता है ...| लगता है कहीं तो हम उनको छू पाये | अब उम्र धीरे धीरे बीत रही है..मेरी ख़ुद की बच्चियां अब बड़ी हो रही है ..और अब मिलने वाले उनको कहते हैं अरे !!आपकी बेटी तो बिल्कुल आपके कालेज टाइम मैं जैसी आप थी,वैसी दिखायी देती है ..:) समय बदलता जाता है पर कुछ लफ्ज़ शायद कभी नही बदलते ..यूँ ही पीढी दर पीढी  हम कहते चले जाते हैं | यही विचार जब दिल में उमड पड़े तो कविता में ढल गए |

रंजना [रंजू]भाटिया

Tuesday, October 21, 2008

माँ तुझे सलाम

माँ अगर भगवान् नहीं तो भगवान् से कम भी नहीं.......
कहते हैं माँ का उसके बच्चों के लिए प्यार कभी कम नहीं होता
चाहे वो जिस भी रूप में हो
माँ माँ है.................

Monday, October 20, 2008

मेरी माँ

अब आगे..........

दहेज़ में देने के लिए हाथी ही गया था

समय सुखमय चल रहा था, बाबा विनोबा भाबे का भूदान आन्दोलन जोरो पर चल रहा थाजमींदार स्वेचा से अपनी जमीं उनेह भेट कर रहे थेलेकिन बज्रपात जमिन्दरिया समाप्त कर दी गई, सीलिंग लागु हो गई

खर्चे उतने ही थे आमदनियां कम हो गईउस समय के भारत में वैसे भी उपज कम होती थी, सैकडो बीघा खेत में कुछ ही कुंतल फसल होती थी सिचाई के साधन भी सीमित थे, सुब कुछ प्रक्रति पर निर्भेर था

पहले जमींदारी के समय औरो से लगान, महसूल बसूल किया जाता थासब खत्म हो गया थाजो घोडो , हातियों से सफर करते थे वोह हल जोतने को मजबूर थेजो समय के साथ बदल गए वोह सुखी हो गये और जो बदले वोह धीरे -धीरे कंगाली की तरफ बढ़ गएउनका अतीत उनेह यह समजने नहीं देता था कि समय बदल गया है, और समय के साथ बदले तो मिट जाओगे

खैर मेरे नाना बदले और एक किसान के रूप में भी सफल हुए. लेकिन समय करवट लेता रहता हैमनुष्य रूप में जन्मे भगवान को भी कष्ट सहने पड़ते है

एक दिन खेत पर लडाई हुई, पानी को लेकर दोनों तरफों से गोली चली मेरे नाना के हाथ से दो कत्ल हो गए उनका निशाने बाज़ होना काम आयाजिदगी तो बच गई गृहस्थी उजड़ गई

नाना और बड़े मामा जेल चले गए. मुकद्दमा चला और नानाजी को उम्र कैद हो गयीएक घर बर्बाद हुआ कि उसका मरा थाऔर एक घर इसलिए बर्बाद हो गया उसके हाथ से मरादुश्मनी दोनों पक्षों को बर्बाद करती है मैंने नज़दीक से महसूस किया है .......


शेष फिर .......


मेरी माँ

अब आगे

हम आर्य है और आर्य श्रेष्ठ मनु ने कहा है "कन्याप्येंव पालनीया शिक्षा ......... । पुत्रियों का पुत्रो की समान सावधानी और ध्यान से पालन और शिक्षण होना चाहिए । लेकिन ऐसा होता कहा हैं ।

मेरी माँ का नाम रखा गया 'विजय लक्ष्मी ' । बड़े घरों की बेटियाँ स्कूल पढने नहीं जाती थी । मुश्किल से ५ वी जमात तक ही पढाई हो पाई। पर उस समय की पढाई अज की किताबी पढाई से लाख गुना बेहतर थी। और जो काम लड़किओं को जिन्दगी भर करने होते उसकी शिक्षा बखूबी सिखाई गई । और सीखी भी कढाई, बुनाई ,सिलाई और सबसे ज्यादा दुनिआदारी ।

जमींदारो के यहाँ महिलाओं को ,बेटिओं को खेत पर जाने की मनाही थी । अज भी परम्परागत परिवारों की महिलाएं यह नहीं जानती उनके खेत कहाँ पर है । सिर्फ चारदीवारी दुनिया थी उस समय ।

मेरे नाना गज़ब के शिकारी थे । ४-४ महीने जंगलो में शिकार खेलते थे । बैल गाड़ियों से रसद व कारतूस पहुचते रहते थे ,उधर से हिरन ,शेर ,चीते की खाले घर भिजवाई जाती थी । जमींदारो के शौक ने जंगली जानवर तो खत्म किये ही साथ ही अपने शौको को पूरा करने के लिए अपनी जमींदारियां भी खत्म कर दी ।

उधर माँ अपने मामा के पास से वापिस आ गई , लाड -प्यार हावी हो रहा था लेकिन नानी के कुशल निर्देशन में मेरी माँ घरेलू कामो में पारंगत हो चुकी थी । मेरे मामा जो माँ से बड़े थे उन्हें एक मास्टर घर पर पढाने आते थे । बहुत मारते थे ,लाढ़-प्यार में पले मामा की तरफदारी नाना करते थे । और मास्टर को मनाही हो गई की मार न हो । मास्टरजी ने फिर मारा उसका परिणाम यह हुआ उनकी नाक कटवा ली गई । इसके बाद पढाई से मेरी ननिहाल का नाता टूट गया । कोई मामा ज्यादा न पढ़ सका ।

नाना नानी ने अपनी बेटी के लिए दहेज सहेजना शुरू किया उस समय हाथी दहेज में देना शान की बात थी । इसलिए एक हाथी खरीदा गया ,बेटी को देने के लिए ....................

शेष आगे ...


Wednesday, October 15, 2008

संसार का सबसे मीठा शब्द ""माँ""


शब्दों का संसार रचा
हर शब्द का अर्थ नया बना
पर कोई शब्द
छू पाया
माँ शब्द की मिठास को

माँ जो है ......
संसार का सबसे मीठा शब्द
इस दुनिया को रचने वाले की
सबसे अनोखी और
आद्वितीय कृति

है यह प्यार का
गहरा सागर
जो हर लेता है
हर पीड़ा को
अपनी ही शीतलता से

इंसान तो क्या
स्वयंम विधाता
भी इसके मोह पाश से
बच पाये है
तभी तो इसकी
ममता की छांव में
सिमटने को
तरह तरह के रुप धर कर
यहाँ जन्म लेते आए हैं

रंजना [रंजू ] भाटिया

Monday, October 13, 2008

माँ को तरसता... “टुअरा”

श्री प्रमोद कुमार मिश्र बिहार के पश्चिमी चम्पारण में प्राथमिक स्तर के शिक्षक हैं। बच्चों को क, ख, ग ... की शिक्षा देने का काम है इनका, लेकिन अपने वातावरण के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होने से इनका जीवन इस छोटे से काम को भी बड़ी गम्भीरता से करने में गुजरता है। ये अन्य शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का दायित्व भी बखूबी निभाते हैं। श्री मिश्र ने अपनी शैक्षणिक गतिविधियों को रोचकता का नया रंग देने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी इसमें शामिल करने का कारगर उपाय ढूँढ निकाला है।

दशहरे की छुट्टियों में मेरी इनसे मुलाकात हो गयी। अपने गाँव में अत्यन्त सादगी भरा जीवन गुजारते हुए इनका जीवन आधुनिक साधनों से बहुत दूर है। बात-बात में इनसे माँ के सम्बन्ध में चर्चा हुई तो भावुक हो उठे। कुरेदने पर उन्होंने एक ऐसे बच्चे की कहानी सुनायी जिसके माँ-बाप नहीं थे, बिलकुल अनाथ था, और इनके स्कूल में पढ़ने आया था। उसके दुःख पर इनके कवि हृदय से जो शब्द फूट पड़े उन्हें सुनाने लगे तो मेरा मन भी भर आया। मेरे अनुरोध पर इन्होंने इसे गाकर सुनाया तो मैने अपने मोबाइल के कैमरे को चालू कर लिया। बिना किसी साज़ के एक घरेलू बर्तन पर हाथ फेरते हुए इन्होंने जो आँखें नम कर देने वाली स्वर लहरी बिखेरी उन्हें आपके लिए सजो लाया हूँ। सुनिए:




आपकी सुविधा के लिए इस भोजपुरी गीत के बोल और इसका भावार्थ नीचे दे रहा हूँ।

गीत के बोल भोजपुरी में:

कवना जनम के बैर हमसे लिया गइल।
हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
का होला माई-बाप, हमहू ना जानी;
गोदिया के सुख का होला, कइेसे हम मानी।
जनमें से नाव मोरा, ‘टुअराधरा ग‍इल;
...........हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
केहू देहल माड़-भात, केहू तरकारी;
कबहू भगई पहिनी, कबहू उघारी।
एही गति बीतल मोरा, बचपन सिरा गइ;
..............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
बकरी चरावत मोरा, बितलि लरिक‍इया;
केहू बाबूकहल, केहू ना ‘भ‍इया’
कहि-कहिअभागालोगवा, जियरा जरा गइ;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
केकरा संघे खेले जाईं, केहू ना खेलावल;
अपना में टुअरा के, केहू ना मिलावल।
रोए-रोए मनवा मोरा, अँखिया लोरा ग‍इल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा ग‍इल॥
भावार्थ:
हे ईश्वर, तूने मुझे किस जन्म (के बुरे कर्म) की सजा दी है, तुम्हारा ध्यान किस ओर खो गया है?
(१) माँ-बाप क्या होते हैं, यह मैं नहीं जानता, न ही मुझे गोद के सुख का कोई पता है। मेरा तो जन्म के बाद नाम ही अनाथ (टुअरा) रख दिया गया।
(२) किसी ने (दयावश) मुझे चावल दे दिया तो किसी ने सब्जी, कभी जांघिया पहनने को मिला तो कभी नंगा ही रहना पड़ा; और इसी तरह से मेरा बचपन बीत गया।
(३) मेरा बचपन बकरी चराते हुए बीता, मुझे कभी किसी ने ‘बाबू’ या ‘भइया’ कहकर सम्बोधित नहीं किया। मुझे तो ‘अभागा’ कह-कहकर लोगों ने मेरा जी जला डाला।
(४) मैं किसके साथ खेलने जाऊँ, मुझे कोई नहीं खिलाता; इस अनाथ को अपने दल में कोई शामिल नहीं करता। इसके लिए रो-रोकर मेरी आँखें आँसू से भर गयीं हैं।

(सिद्धार्थ)

Friday, October 10, 2008

ममता की उधेड़बुन

हाथ सिलाई की मशीन देख,
आज फिर बचपन की याद आ गई...
टुक टिक टुक टिक की धुन...
फिर आ कानों में छा गई...

कितने रंगों में सजाया करती थी....
कितने सपनों को सिला करती थी...
कभी रात भर जग कर तुरपाई...
फिर कुर्सी पर लगी आँख...सोई चारपाई

तेरे सपनों में अच्छी दिखती थी...
काला ठीका लगा कर चलती थी....
तू कल के माप के सपने बुनती थी...
मैं उन्हे पहन कर हँसती थी ...

फिर एक दिन ना जाने क्या हुआ था
...समय ने कुछ इस तरह छुआ था....
तूने चलना सिखाया मैं उड़ने लगी थी...
तेरे रंगों से कतराने लगी थी....

उस दिन तू अपना सपना लेकर...
रोई थी कोने में सिसक कर...
उस दिन एक लम्बी चिट्ठी लिखी थी.......
तूने सोचा मैं सोई.......
मैं सोई नहीं थी...

रंग मेरा बहुत सुंदर नहीं था...
पल्लू पकड़ तुझसे कहा था...
मुझे भी सिखाओ सपनों को बुनना....
तेरे सपने अब नहीं है पहनना....

रात भर जग कर जो सपना बुना था...
मशीन बंद कर उसपर रखा था....
"बड़ी तू हो गई...
जा खुद ही सिलना...... "
तूने सोचा मैं गई....
मैं वहीं पर खड़ी थी .....

किताबों को पढ़कर चली कुछ बनाने....
सखी ने कहा बड़ा सुन्दर बना है...
तुझको दिया था बड़े प्यार से...
तू पहनेगी इसको इस अरमान से..
तूने उसको एक कोने में टाँगा........
तूने सोचा मैने देखा नहीं...
भरी आँख ले वहीं पर खड़ी थी....

कितने ख्वाबों को मैने बुना है....
सबने कहा खूबसूरत बना है...
तूने उसे कभी देखा ही नहीं......
शायद इसलिए कभी मुझे भाया नहीं है

अकेले एक दिन मेरे कमरे में आकर...
तह किए ख्वाबों को तू देख रही थी...
तेरे सपनों के रंगों जैसे ही थे यह...
हल्की मुस्कान थी...आंसू की चमक भी......
तूने सोचा मैं वहाँ पर नहीं थी..
तेरे आशीष के लिए तरसी रुकी थी....

आज फिर यह धुन यादों में आई....
साथ में पुराने सपने भी लाई....

बिटिया मेरे सपनों में सजी थी....
काला ठीका लगा हँस कर खड़ी थी...

कोने में कुछ भी ना टंगा था...
क्या माँ ने उसको ओढ़े रखा था ...???

Thursday, October 9, 2008

हर रूप में तेरा ही स्वरूप ..

जब ईश्वर ने दुनिया रची तो कुदरत के भेद समझाने के लिए इंसान को और नैतिक मूल्यों को विचार देने के लिए हर विचार को एक आकार दिया .यानी किसी देवी या देवता का स्वरूप चित्रित किया ..यह मूर्तियाँ मिथक थी ..पर हमारे अन्दर कैसे कैसे गुण भरे हुए हैं यह उन मूर्तियों में भर दिया ताकि एक आम इंसान उन गुणों को अपने अन्दर ही पहचान सके ...

भारत में सदियों से माता की शक्ति को दुर्गा का रूप माना जाता रहा है | एक ऐसी शक्ति का जिनकी शरण में देवता भी जाने से नही हिचकचाते हैं | शक्ति प्रतीक है उस सत्ता का जो नव जीवन देती है .जिसका माँ सवरूप सबके लिए पूजनीय है | प्रत्येक महिला वह शक्ति है वह देवी माँ हैं जिसने जन्म दिया है .अनेक पेगम्बरों को ,मसीहों को ,अवतारों को और सूफियों संतों को .....वह अपने शरीर से एक नए जीवन को जन्म देती है ..

पुराने समय में अनेक पति या पत्नी को दर्शाया जाता है .इसका गहरा अर्थ ले तो मुझे इसका मतलब यह समझ आता है कि अधिकाँश पति व पत्नी अनेक गुणों के प्रतीक हैं ...जैसे जैसे समरूपता हमें देवी देवताओं में दिखायी देती है वह हमारे ही मनुष्य जीवन के कई रूपों और कई नामों की समरूपता ही है ..

लक्ष्मी का आदि रूप पृथ्वी है कमल के फूल पर बैठी हुई देवी | यह एक द्रविड़ कल्पना थी | आर्यों ने उस को आसन से उतार कर उसका स्थान ब्रह्मा को दे दिया |पर अनेक सदियों तक आम जनता में पृथ्वी की पूजा बनी रही तो लक्ष्मी को ब्रह्मा के साथ बिठा कर वही आसान उसको फ़िर से दे दिया ...बाद में विष्णु के साथ उसको बिठा दिया .विष्णु के वामन अवतार के समय लक्ष्मी पद्मा कहलाई ,परशुराम बनने के समय वह धरणी बनी .राम के अवतार के समय सीता का रूप लिया और कृष्ण के समय राधा का ..बस यही समरूपता का आचरण है ...

इसी प्रकार ज्ञान और कला की देवी सरस्वती वैदिक काल में नदियों की देवी थी .फ़िर विष्णु की गंगा लक्ष्मी के संग एक पत्नी के रूप में आई और फ़िर ब्रहमा की वाक् शक्ति के रूप में ब्रह्मा की पत्नी बनी ..यह सब पति पत्नी बदलने का अर्थ है कि यह सब प्रतीक हुए अलग अलग शक्ति के ..

समरूपता का उदाहरण महादेवी भी हैं जो अपने पति शिव से गुस्सा हो कर अग्नि में भस्म हो गयीं और सती कहलाई ..परन्तु यह उनका एक रूप नही हैं ..वह अम्बिका है ,हेमवती ,गौरी और दुर्गा पार्वती भी .काली भी है ..काली देवी का रूप मूल रूप में अग्नि देवता की पत्नी के रूप में था फ़िर महादेवी सती के रूप में हुआ |

सरस्वती के चारों हाथों में से दो में वीणा लय और संगीत का प्रतीक है ..एक हाथ में पाण्डुलिपि का अर्थ उनकी विदुषी होने का प्रमाण है और चौथे हाथ में कमल का फूल निर्लिप्तता का प्रतीक है ..उनका वहां है हंस दूध ,पानी यानी सच और झूठ को अलग कर सकने का प्रतीक ..एक वर्णन आता है कि ब्रह्मा ने सरस्वती के एक यज के अवसर पर देर से पहुँचने के कारण गायत्री से विवाह कर लिया था ..अब इसकी गहराई में जाए तो पायेंगे की वास्तव में गायत्री से विवाह करना मतलब गायत्री मन्त्र से ,चिंतन से ,जीवन के शून्य को भरने का संकेत है ..गायत्री की मूर्ति में उसके पाँच सिर दिखाए जाते हैं यह एक से अधिक सिर मानसिक शक्ति के प्रतीक हैं ...........इसी तरह गणेश जी की पत्नियां रिद्धि सिद्धि उनकी शक्ति और बुद्धि की प्रतीक हैं

और स्त्री इन्ही सब शक्तियों से भरपूर है ..इस में भी सबसे अधिक सुंदर प्रभावशाली रूप माँ का है ...असल में जब आंतरिक शक्तियां समय पा कर बाहरी प्रतीकों के अनुसार नहीं रहती हैं तो सचमुच शक्तियों का अपमान होता है ..बात सिर्फ़ समझने की है और मानने की है ..कि कैसे हम अपने ही भीतर सत्ता और गरिमा को पहचाने क्यों कि हम ही शक्ति हैं और हम ही ख़ुद का प्रकाश ..

Tuesday, October 7, 2008

माँ !!!

जहां बचपन अपना छिपता उस पल्लू मैं,  है ये.... माँ
जहा चैन की नींद सोए..उस गोदी मै, है ये ......मा
जहा जीद करके किए है पूरे..उस अरमान मै, है ये..... माँ
जिसके गुस्से मै भी छलकता है...उस प्यार मै, है ये......माँ
जब कोई ना मिले तब रोने को..मिलते कंधे मै, है ये.....माँ
जिसकी सदा होती है..उस्स आरज़ू मै, है ये.....माँ
जिसका स्थान है सदा जहा..उस मन मै, है ये.....माँ
जहा छुपे है राज़ हमाँरे ..उस दिल मै है, ये......माँ
जिसके बिना लगे सूनापन..उस जीवन में, है ये .... माँ
जिसपे अंधा भरोसा है..वो सच्ची दोस्त, है ये .....माँ
जिसकी मौजूदगी फैलती जीवन मै..वो *खुशी*, है ये.....माँ

माँ दुर्गा की पूजा का तिहवार भला है...!!


माँ दुर्गा की पूजा का तिहवार भला है।
घर-घर में पूजा-अर्चन का दीप जला है॥
बच्चों के स्कूल बन्द, सब खिले हुए हैं।
छुट्टी औ मेला, माँ का उपहार मिला है॥

माँ की उंगली पकड़ चले माँ के मन्दिर को।
कुछ ने राह पकड़ ली नानीजी के घर को॥
गाँवों में मेला - दंगल पर दाँव चला है।
रावण का पुतला भी इसमें खूब जला है॥

मुझको भी वह दुर्लभ छाँव दिलाती माता।
शहर छोड़कर माँ के चरणों से मिल पाता॥
ममता के आँचल से लेकर मन की ऊर्जा।
नयी राह पर बढ़ने को सिद्धार्थ चला है॥

माँ दुर्गा की पूजा का तिहवार भला है।
घर-घर में पूजा-अर्चन का दीप जला है॥

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

Sunday, October 5, 2008

माँ की कामना !



काफी दिनों से माँ पर लिखने की सोच रहा था, अपनी माँ के बारे में कुछ याद ही नही मगर भावः विह्वल होकर जब भी माँ याद आती है तो एक काल्पनिक आकृति अवश्य उभरती है कि मेरी अम्मा ! भी शायद ऐसी ही होगी ! जब पहली बार डॉ मंजुलता सिंह से मिला तो यकीन नही कर पाया कि क्या कोई महिला ७० वर्ष की उम्र में, इतनी व्यस्त और कार्यशील हो सकती हैं ! डॉ मंजुलता सिंह Ph.D., जन्म १९३८ , लखनऊ यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडलिस्ट, ४० वर्ष शिक्षक सेवा के बाद दौलत राम कॉलेज, दिल्ली यूनिवेर्सिटी हिन्दी विभाग से, रीडर पोस्ट से रिटायर, रेकी ग्रैंड मास्टर (My Sparsh Tarang) के रूप में लोगों की सेवा में कार्यरत ! सात किताबें एवं २०० से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं, इस उम्र में भी वृद्धजनों की सेवा में कार्यरत ! ममतामयी ऐसी कि उनको छोड़कर उठने का दिल ही नही कर रहा था ! ऐसे सशक्त हस्ताक्षर की एक कविता "माँ " में प्रकाशन हेतु भेज रहा हूँ !

माँ की कामना


धरती हैं माँ ,

पृथ्वी हैं माँ

सबके पेरो के नीचे हैं माँ ।

देखती हैं , सुनती हैं , सहती हैं

कोई धीरे धीरे चलता हैं

कोई धम - धम चलता हैं

कोई थूकता है ,

कोई गाली देता हैं

कोई कूड़ा गिराता है

कोई पानी डालता हैं

सभी बच्चे हैं उसके

माँ पृथ्वी कुछ नहीं कहती

कहे भी किससे ?

और क्या कहे ?

जन्म दिया हैं जिनको

उनसे कैसे बदला ले ?

कैसे दंड दे ?

उसे तो क्षमा करना हैं ,

क्षमा - बस क्षमा वहीं उसका सुख हैं ,

वही उसकी सफलता

उसके बच्चे कही भी ,

कैसे भी जाये उसकी छाती पर चढ़ कर

बस आगे बढ़ कर यही उसकी कामना हैं ।

- डॉ मंजुलता सिंह

Wednesday, October 1, 2008