Tuesday, December 9, 2008

मासूम स्मृतियाँ





डूब गई पुरानी सजल
मासूम यादों में
जब मैं मात्र साढ़े सात साल की थी
माँ गई थीं यात्रा पर
यात्रा थी बड़ी कठिन
लम्बी और दुरूह
विदाई के समय
भजन और मंगलगीतों से भीगा
पर उदास वातावरण
सहमा घर का आँगन
सूनी घर की पौरी
दादी के मुख से
आशीष की अजस्र धारा
आखों से छलकते अश्रु
भाई-बहिनों की
माँ को निहारतीं
उदास,मौन और सजल आँखें
कह रही थीं
अपनी ही भाषा में कुछ-कुछ
माँ की आँखों ने
पढ़ा हमारे मन को
पास आकर सहलाया,दुलारा
जाते समय माँ ने दिया
मुझे और मेरी बड़ी बहिन को
आठ आने का एक-एक सिक्का
और मेवा से भरा हरे रंग का
टीन का छोटा डिब्बा
मेवा के साथ-साथ
भरा था जिसमें
माँ का प्यार-दुलार
और माँ की अनगिन यादें
एक रेशमी रूमाल
जिसमें बँधा था डिब्बा
उस पर छपा हुआ था
सन् उन्नीस सौ अड़तीस के
बारह महीनों का कलैंडर
डिब्बा और रूमाल
मेरे अनमोल खजाने में
आज भी हैं सुरक्षित
आज भी माँ के शब्द
गूँज रहे हैं कानों में
’ बेटी! जब मन करे
दोनों बहिनें मेवा खा लेना
पैसों से कुछ ले लेना
पर हाँ! दादी को मत बताना
किसी को परेशान भी मत करना
मैं जल्दी ही यात्रा से आ जाऊँगी ‘
उस समय मेरी छोटी बहिन
जो थी मात्र सवा साल की
गई थी माँ के साथ यात्रा पर
जाने के बाद !
कभी लौटकर नहीं आई माँ
उड़ गई हरियल तोते की तरह
क्रूर नियति ने
छीन लिया माँ का दुलार
कर दिया मातृविहीन
आज जब भी आती है
माँ की याद
डबडबाती हैं आँखें
डगमगाते हैं क़दम
लड़खड़ाता है मन तो
माँ के द्वारा दिए गए
मेवा के डिब्बे की हरियाली
कर देती है मन को हरा
और जब भी खोलती हूँ उसे
तो स्मृतियों के बादल
उड़ने लगते हैं मेरे इर्द-गिर्द
वे थपथपाते हैं मुझे
दिखाते हैं राह
जगाते हैं हिम्मत
विषमताओं में जीने की !
जब देखती हूँ रूमाल
तो माँ की मीठी-मीठी यादें
लगती हैं गुदगुदाने
समय की मार झेलते-झेलते
हो गए हैं रूमाल में अनगिन छेद
मैं उन छोटे-छोटॆ छेदों से
नहीं रिसने देती हूँ रेत बनी
अपनी मासूम स्मृतियों को
और पुनः रख लेती हूँ सहेजकर
मन की अलमारी में !

डॉ. मीना अग्रवाल

8 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति!!!

Asha Joglekar said...

बेहद सुंदर और भावभीनी कविता ।

सुनीता शानू said...

खूबसूरती से आपने स्मृतियों को कविता में ढाला है...बहुत भावपूर्ण रचना है अच्छा लगा पढ़कर।

Dr. Ravi Srivastava said...

आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है।

‘...माँ की ममता की छाँव,
जैसे नीम-पीपल का गाँव.
माँ करुणामयी, माँ जीवन दात्री,
माँ जगत-जननी, माँ धारित्री...’’

आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे
बधाई स्वीकारें।
आप मेरे ब्लॉग पर आए, शुक्रिया.

‘मेरी पत्रिका’ में आज प्रकाशित नई रचना/पोस्ट पढ़कर अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएँ।
आप के अमूल्य सुझावों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...

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…Ravi Srivastava

संगीता पुरी said...

बेहद सुंदर कविता।

Anubhooti Bhatnagar said...

Ma se ma per likhi kavita ki tariph ker rahi hun
bahut suder likhi hai kavita
man nahi maan raha isliye
bar bar per rahi hun

www.dakbabu.blogspot.com said...

समय की मार झेलते-झेलते
हो गए हैं रूमाल में अनगिन छेद
मैं उन छोटे-छोटॆ छेदों से
नहीं रिसने देती हूँ रेत बनी
अपनी मासूम स्मृतियों को
और पुनः रख लेती हूँ सहेजकर
मन की अलमारी में !
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Dil ko chhu gai apki kavita..badhai.

शारदा अरोरा said...

इस तरह भी कोई जाता है , उफ़ उन पलों को पकड़ा नहीं जा सकता क्या | सदा के लिए बसी स्मृतियाँ और सदा के लिए बसा दर्द , बड़ी जानदार अभिव्यक्ति है ये कविता |