डॉ अमर ज्योति की अम्मा पर लिखी रचना जब पढने लगा तो पहली बार लगा कि इस रचना को दोबारा पढूं, फिर तीसरी बार और फिर चौथी बार एक एक लाइन को बार बार पढने का मन किया ! हर लाइन का बेहद गूढ़ अर्थ है इसमें ! बच्चे को छाया एवं सुरक्षा महसूस होती रहे और अभाव महसूस ना हों इसके लिए माँ क्या क्या प्रयत्न करती है, शायद ही कोई पिता यह महसूस कर पाया होगा !
सरदी में गुनगुनी धूप सी, ममता भरी रजाई अम्मा,
जीवन की हर शीत-लहर में बार-बार याद आई अम्मा।
जीवन की हर शीत-लहर में बार-बार याद आई अम्मा।
भैय्या से खटपट, अब्बू की डाँट-डपट, जिज्जी से झंझट,
दिन भर की हर टूट-फूट की करती थी भरपाई अम्मा।
दिन भर की हर टूट-फूट की करती थी भरपाई अम्मा।
कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो,
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बौराई अम्मा।
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बौराई अम्मा।
भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।
बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
12 comments:
माँ चिट्ठे के चिट्ठाकार कृपया मेरा अभिवादन एवं अनुमोदन स्वीकार करें!
माँ विश्व में वह शाक्ति है जो चलाचल पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है, लेकिन जिसे (अपवादों को छोड) हर कोई भुला देता है.
आज डा अमर की एस रचना को पढ एक बार और आंसू आ गये, खास कर उन्होंने जब बासी रोटी की बात लिखी. यह मेरा भी अनुभव है, प्रिय डाक्टर, लेकिन आपने उसे जो शब्द दिया वह मर्मस्पर्शी है. शायद मैं उसे इस तरह न लिख पाता.
सस्नेह -- शास्त्री
बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
" bhut saaf saccha manbhavan chitran aama ke rup ka..."
Regards
बहुत अच्छा किया , जो आपने इस कविता को यहां प्रकाशित कर दिया। बहुत अच्छी कविता है।
भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।
बहुत ही अच्छी कविता लिखी है ये और मां का स्पष्ट रूप झलक आया कविता पढकर
बहुत खूबसूरत और जिदंगी की सच्चाईयों को दर्शाती हुई रचना के लिये बहुत-बहुत बधाई। हम ई-कविता पर इसे पढ़ चुके थे...यहाँ चिट्ठे पर लाने के लिये आपको साधुवाद।
भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।
बहुत बहुत सुंदर बात लिखी है ..माँ का हर रूप सुंदर लगता है
मर्मस्पर्शी.....
बहुत सुंदर और अंतरंग रचना है।
प्यारे सतीश जी,
यह बेहतरीन शब्द-दृश्य पढ़वाने के लिए धन्यवाद स्वीकार करें।
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आदरणीय शास्त्री जी,
अब मैं अपनी नकल मारने की प्रतिभा का समुचित प्रयोग करके इसमें कुछ जोड़ने का प्रयास करूंगा। कृपया इजाजत दें। :)
@सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
इजाजत ही इजाजत है. मां को महिमामंडित करने के लिये कुछ भी करें, हरेक को इजाजत ही इजाजत है!!
आप सभी का हार्दिक आभार।
अमर
बेहतरीन कविता।
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