मॉ शब्द को सुनते ही सबसे पहले परंपरागत स्वरूपवाली उस मॉ की छवि ऑखो में कौंधती है , जिसके दो चार नहीं , पांच छह से आठ दस बच्चे तक होते थे , पर उन्हें पालने में उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। हमारे यहां 90 के दशक तक संयुक्त परिवार की बहुलता थी। अपने सारे बच्चों की देखभाल के साथ ही साथ उन्हें अपनी पूरी युवावस्था ससुराल के माहौल में अपने को खपाते हुए सास श्वसुर के आदेशों के साथ ही साथ ननद देवरों के नखरों को सहनें में भी काटना पडता था।
दिनभर संयुक्त परिवार की बडी रसोई के बडे बडे बरतनों में खाना बनाने में व्यस्त रहने के बाद जब खाने का वक्त होता , अपने प्लेट में बचा खुचा खाना लेकर भी वह संतुष्ट बनीं रहती, पर बच्चों की देखभाल में कोई कसर नहीं छोडती थी। पर युवावस्था के समाप्त होते ही और वृद्धावस्था के काफी पहले ही पहले ही उनके आराम का समय आरंभ हो जाता था। या तो बेटियां बडी होकर उनका काम आसान कर देती थी या फिर बहूएं आकर। तब एक मालकिन की तरह ही उनके आदेशों निर्देशों का पालन होने लगता था और वह घर की प्रमुख बन जाया करती थी। अपनी सास की जगह उसे स्वयमेव मिल जाया करती थी।
पर आज मां का वह चेहरा लुप्त हो गया है। आज की आधुनिक स्वरूपवाली मां , जो अधिकांशत: एकल परिवार में ही रहना पसंद कर रही हैं , के मात्र एक या दो ही बच्चे होते हैं , पर उन्हें पालने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पडती है। आज की महत्वाकांक्षी मां अपने हर बच्चे को सुपर बच्चा बनाने की होड में लगी है। इसलिए बच्चों को भी नियमों और अनुशासन तले दिनभर व्यस्तता में ही गुजारना पडता है। आज के युग में हर क्षेत्र में प्रतियोगिता को देखते हुए आधुनिक मां की यह कार्यशैली भी स्वाभाविक है , पर आज की मॉ एक और बात के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गयी है। अपने बच्चे के भविष्य के निर्माण के साथ ही साथ यह मां अपना भविष्य भी सुरक्षित रखने की पूरी कोशिश में रहती है , ताकि वृद्धावस्था में उन्हे अपने संतान के आश्रित नहीं रहना पडे यानि अब अपने ही बच्चे पर उसका भरोसा नहीं रह गया है।
मात्र 20 वर्ष के अंदर भारतीय मध्यम वर्गीय समाज में यह बडा परिवर्तन आया है , जिसका सबसे बडी शिकार रही हैं वे माएं , जिनका जन्म 50 या 60 के दशक में हुआ है और 70 या 80 के दशक में मां बनीं हैं। उन्होने अपनी युवावस्था में जिन परंपराओं का निर्वाह किया , वृद्धावस्था में अचानक से ही गायब पाया है। इन मांओं में से जिन्हें अपने पति का सान्निध्य प्राप्त है या जो शारीरिक , मानसिक या आर्थिक रूप से मजबूत हैं , उनकी राह तो थोडी आसान है , पर बाकी के कष्ट का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। संयुक्त परिवार मुश्किल से बचे हैं ,विवाह के बाद बहूएं परिवार में रहना नहीं पसंद करने लगी हैं। सास की मजबूरी हो , तो वह बहू के घर में रह सकतीं हैं , पर वहां उसके अनुभवों की कोई पूछ नही है , वह एक बोझ बनकर ही परिवार में रहने को बाध्य है , अपने ही बेटे बहू के घर में उसकी हालत बद से भी बदतर है। कहा जाता है कि प्रकृति को भूलने की आदत नहीं होती है , जो जैसे कर्म करता है , चाहे भला हो या बुरा , वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है , एक कहावत भी है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ यदि यह बात सही है , तो प्रकृति इन मांओं के साथ क्यो अन्याय कर रही हैं ?
दिनभर संयुक्त परिवार की बडी रसोई के बडे बडे बरतनों में खाना बनाने में व्यस्त रहने के बाद जब खाने का वक्त होता , अपने प्लेट में बचा खुचा खाना लेकर भी वह संतुष्ट बनीं रहती, पर बच्चों की देखभाल में कोई कसर नहीं छोडती थी। पर युवावस्था के समाप्त होते ही और वृद्धावस्था के काफी पहले ही पहले ही उनके आराम का समय आरंभ हो जाता था। या तो बेटियां बडी होकर उनका काम आसान कर देती थी या फिर बहूएं आकर। तब एक मालकिन की तरह ही उनके आदेशों निर्देशों का पालन होने लगता था और वह घर की प्रमुख बन जाया करती थी। अपनी सास की जगह उसे स्वयमेव मिल जाया करती थी।
पर आज मां का वह चेहरा लुप्त हो गया है। आज की आधुनिक स्वरूपवाली मां , जो अधिकांशत: एकल परिवार में ही रहना पसंद कर रही हैं , के मात्र एक या दो ही बच्चे होते हैं , पर उन्हें पालने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पडती है। आज की महत्वाकांक्षी मां अपने हर बच्चे को सुपर बच्चा बनाने की होड में लगी है। इसलिए बच्चों को भी नियमों और अनुशासन तले दिनभर व्यस्तता में ही गुजारना पडता है। आज के युग में हर क्षेत्र में प्रतियोगिता को देखते हुए आधुनिक मां की यह कार्यशैली भी स्वाभाविक है , पर आज की मॉ एक और बात के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो गयी है। अपने बच्चे के भविष्य के निर्माण के साथ ही साथ यह मां अपना भविष्य भी सुरक्षित रखने की पूरी कोशिश में रहती है , ताकि वृद्धावस्था में उन्हे अपने संतान के आश्रित नहीं रहना पडे यानि अब अपने ही बच्चे पर उसका भरोसा नहीं रह गया है।
मात्र 20 वर्ष के अंदर भारतीय मध्यम वर्गीय समाज में यह बडा परिवर्तन आया है , जिसका सबसे बडी शिकार रही हैं वे माएं , जिनका जन्म 50 या 60 के दशक में हुआ है और 70 या 80 के दशक में मां बनीं हैं। उन्होने अपनी युवावस्था में जिन परंपराओं का निर्वाह किया , वृद्धावस्था में अचानक से ही गायब पाया है। इन मांओं में से जिन्हें अपने पति का सान्निध्य प्राप्त है या जो शारीरिक , मानसिक या आर्थिक रूप से मजबूत हैं , उनकी राह तो थोडी आसान है , पर बाकी के कष्ट का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। संयुक्त परिवार मुश्किल से बचे हैं ,विवाह के बाद बहूएं परिवार में रहना नहीं पसंद करने लगी हैं। सास की मजबूरी हो , तो वह बहू के घर में रह सकतीं हैं , पर वहां उसके अनुभवों की कोई पूछ नही है , वह एक बोझ बनकर ही परिवार में रहने को बाध्य है , अपने ही बेटे बहू के घर में उसकी हालत बद से भी बदतर है। कहा जाता है कि प्रकृति को भूलने की आदत नहीं होती है , जो जैसे कर्म करता है , चाहे भला हो या बुरा , वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है , एक कहावत भी है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ यदि यह बात सही है , तो प्रकृति इन मांओं के साथ क्यो अन्याय कर रही हैं ?
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17 comments:
accha lekh
regards
आज की सच्चाई का बहुत बढिया मंथन किया है।विचारणीय लेख है।
sachchai bayan ki hai aapne
बच्चों पर विश्वास हो न हो स्वयं पर करना बहुत आवश्यक है । जबतक बिल्कुल असहाय न हो जाएं बच्चों के साथ रहने से बचना चाहिए । क्योंकि ऐसा होता आया है इसलिए सदा होता रहे तो कोई उचित कारण नहीं है ।
घुघूती बासूती
अच्छा लगे ना लगे, पर जब समाज बदल रहा है, सोच बदल रही है, मानसिकताएं बदल रही हैं। तो प्रकृति के इशारे को समझ अभी से खुद को भविष्य के लिए तैयार कर लेने में ही समझदारी है।
आप ने तालाब में पत्थर फेंक दिया है। लेकिन एकल परिवारों में वृद्धों के लिए स्थान बनाना होगा। और नयी परिस्थितियों में वृद्धों को भी ढलना होगा।
"वह एक बोझ बनकर ही परिवार में रहने को बाध्य है , अपने ही बेटे बहू के घर में उसकी हालत बद से भी बदतर है"
यह एक कम अक्ल लडकी की बेवकूफी ही है जो इस माँ को कष्ट देकर खुशी महसूस करते समय वह अपनी माँ को भूल जाती है कि उसकी भाभी भी उसकी माँ के साथ वही सलूक कर रही होगी ! इस मूर्ख लडकी को यह भी याद नही कि कल वह भी सास बनेगी इसी घर में ....
जो यह लड़किया बो रही है वह काटेंगी जरूर ! कांटे बो कर कांटे ही मिलेंगे !
संगीता जी
नमस्कार
संयुक्त परिवार की महाता को प्रतिपादित करने वाला ये आलेख आज के परिवेश में एक चिन्तन का विषय है, इस लेख को गंम्भीरता से पढने पर हमें समझ में आता है कि वाकई संयुक्त परिवार में बुराइयां कम और अच्छाइयां ज्यादा हैं.
साथ ही साथ यह भी पता चला कि लेखिका ने कितने सरल और सहज रूप से यह भी बता दिया है कि जैसी करनी वैसी भरनी
इस महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए
बधाई"
आपका
विजय
har maa ki kahani....
kafi sarahniye lekh hai
यह सामाजिक परिवर्तन का एक पहेलू है. परिवर्तन हमेशा सुखदायी भी नहीं होता. कहा गया है ना कि "समय बड़ा बलवान", वह सिखा देता है. निश्चित ही उन माताओं की दशा विचारणीय है जिन्होने ५० या ६० के दशक में जन्म लिया. मुद्दा गंभीर है. सुंदर लेख के लिए आभार.
विवाह के बाद बहूएं परिवार में रहना नहीं पसंद करने लगी हैं। सास की मजबूरी हो , तो वह बहू के घर में रह सकतीं हैं , पर वहां उसके अनुभवों की कोई पूछ नही है , वह एक बोझ बनकर ही परिवार में रहने को बाध्य है , अपने ही बेटे बहू के घर में उसकी हालत बद से भी बदतर है।
इस महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए
बधाई"
bahut achchhe vichar hai.
अच्छा लिखा आपने ......
lekh achchha hai ,parantu yah poora sach nahin...........
sikke ke donon pahluon par gaur farmayen
kuchh aaptti janak lage to kshamaa chahti hoon
sachai hai..
मैंने मरने के लिए रिश्वत ली है ,मरने के लिए घूस ली है ????
๑۩۞۩๑वन्दना
शब्दों की๑۩۞۩๑
आप पढना और ये बात लोगो तक पहुंचानी जरुरी है ,,,,,
उन सैनिकों के साहस के लिए बलिदान और समर्पण के लिए देश की हमारी रक्षा के लिए जो बिना किसी स्वार्थ से बिना मतलब के हमारे लिए जान तक दे देते हैं
अक्षय-मन
Dost Apke bhaav ati uttam hai... Humein Maa ke saath saath apni Matribhoomi ka bhi Khayal rakhna chahiye.
www.prakharhindu.blogspot.com
new articles added
....क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि इन तथ्यों से हमारे लोगों में केवल आत्मदया का ही संचार होगा। इतिहास में या वर्तमान में हो रहे अत्याचारों से केवल जुगुप्सा ही पैदा होगी जिससे हमारे लोगों में इस्लाम का डर और मज़बूत हो जाएगा।
क्रान्ति को तो वीर रस की ज़रूरत होती है। इसलिए हमें जो परिस्थिति, जो तथ्य आत्मदया का बोध कराए उससे दूर रहना और सम्भव हो तो मिटा देना ही अच्छा है। हिन्दुओं का क़त्ले-आम, नृशंस मुसलमानों द्वारा देश की दुर्दशा और इसी तरह के अन्य विलाप मैंने बहुत बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्रों में पढ़े हैं। पर इन से न तो हिन्दुत्व का भला हुआ न ही देश का................
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