Thursday, April 9, 2009

माँ का मर्म (लघु कथा)

"बधाई हो! घर में लक्ष्मी आई है", कहते हुए नन्हीं सी बिटिया को दादी की गोद में देते हुए नर्स बोली। "हुँह..... क्या खाक बधाई। पहली ही बहू के पहली संतान वो भी लड़की हुई और वो भी सिजेरियन......" कहते हुए उन्होंने मुँह फेर लिया और उस नन्हीं सी जान पर स्नेह की एक बूँद भी बरसाने की जरूरत नहीं समझी प्रीती की सासू माँ ने। जल्द ही अपनी गोद हल्की करते हुए बच्ची को बढ़ा दिया अपने बेटे की गोद में। रवि को तो जैसे सारा जहाँ मिल गया अपने अंश को अपने सामने पाकर। पिछले नौ महीने कितनी कल्पनाओं के साथ एक-एक पल रोमांच के साथ बिताया था प्रीती और रवि ने। खुशी के आँसू की दो बूँदें टपक पड़ी उस नन्ही सी बिटिया पर।

कुछ दिनों के अंतराल पर अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जब घर जाने की तैयारी हुई तो प्रीती फूली न समा रही थी। पिछले नौ महीनों से जिस घड़ी की इंतजार वह कर रही थी, आज आ ही गई। अपनी गोद भरी हुई पाकर जब प्रीति ने घर में प्रवेश किया तो मारे खुशी के उसके आँसू बहने लगे। वह इस खुशी के पल को संभालने की कोशिश करने लगी। हँसते-खेलते ग्यारह दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। लेकिन सासू माँ का मुँह टेढ़ा ही बना रहा। प्रीति चाहती थी कि दादी का प्यार उस नन्हीं सी जान को मिले, लेकिन उसकी ऐसी किस्मत कहाँ ?

खैर, जब बारहवें दिन बरही-रस्म की बात आयी तो सासू माँ को जैसे सब कुछ सुनाने का अवसर मिल गया और इतने दिन का गुबार उन्होंने एक पल में ही निकाल लिया...... "कैसी बरही, किसकी बरही, बिटिया ही तो जन्मी है। हमारे यहाँ बिटिया के जन्म पर कोई रस्म-रिवाज नहीं होता.... कौन सी खुशी है जो मैं ढोल बजाऊँ, सबको मिठाई खिलाऊँ.... कितनी बार कहा था जाँच करा लो, लेकिन नहीं माने तुम सब। लो अब भुगतो, मुझे नहीं मनाना कोई रस्म-रिवाज......।

सासू माँ की ऐसी बात सुनकर प्रीति का दिल भर आया। रूँधे हुए गले से बोली, "सासू माँ! आज अगर यह बेटी मेरी गोद में नहीं होती तो कुछ दिन बाद आप ही मुझे बाँझ कहती और हो सकता तो अपने बेटे को दूसरी शादी के लिए भी कहती जो शायद आपको दादी बना सके, लेकिन आज इसी लड़की की वजह से मैं माँ बन सकी हूँ। यह शब्द एक लड़की के जीवन में क्या मायने रखता हैं, यह आप भी अच्छी तरह जानती हैं। आप उस बाँझ के या उस औरत के दर्द को नहीं समझ सकेंगी, जिसका बच्चा या बच्ची पैदा होते ही मर जाते हैं। ये तो ईश्वर की दया है सासू माँ, कि मुझे वह दिन नहीं देखना पड़ा। आपको तो खुश होना चाहिए कि आप दादी बन चुकी हैं, फिर चाहे वह एक लड़की की ही। आप तो खुद ही एक नारी हैं और लड़की के जन्म होने पर ऐसे बोल रही हैं। कम से कम आपके मुँह से ऐसे शब्द नहीं शोभा देते, सासू माँ!" इतना कहते ही इतनी देर से रोके हुए आँसुओं को और नहीं रोक सकी प्रीती।

प्रीती की बातों ने सासू माँ को नयी दृष्टि दी और उन्हें उसनी बातों का मर्म समझ में आ गया था। उन्होंने तुरन्त ही बहू प्रीती की गोद से उस नन्हीं सी बच्ची को गोद में ले लिया और अपनी सम्पूर्ण ममता उस पर न्यौछावर कर उसको आलिंगन में भर लिया।शायद उन्होंने इस सत्य को स्वीकार लिया कि लड़की भी तो ईश्वर की ही सृष्टि है। जहाँ पर नवरात्र के पर्व पर कुँवारी कन्याओं को खिलाने की लोग तमन्ना पालते हैं, जहाँ दुर्गा, लक्ष्मी, काली इत्यादि देवियों की पूजा होती है, वहाँ हम मनुष्य ये निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि हमें सिर्फ लड़का चाहिए, लड़की नहीं।

आकांक्षा यादव
w/o कृष्ण कुमार यादव kkyadav.y@rediffmail.com

33 comments:

Anonymous said...

एक प्रभावशाली लघुकथा जो पहली ही नजर में ध्यान खींचती है. जहाँ आज लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहाँ आकांक्षा जी की यह लघु कथा नए राह खोलती है.

Amit Kumar Yadav said...

इस लघुकथा को पढ़कर लगता है की हम भले ही प्रगतिशीलता का कितना भी ढोल पीट लें पर अभी भी हमारी सोच १६-१७ वीं सदी की ही है. आज भी बहुत से परिवारों में बेटी के जन्म पर बरही नहीं मनाई जाती, यह सौभाग्य सिर्फ लड़कों को मिलता है...आखिर क्यों ??....बेहतर होगा हम इस पर सोचें.किसी रचना को मात्र टिपण्णी के बाद भूल जाना सार्थक नहीं लगता, उसमें निहित भावनाओं को समाज की संवेदनाओं से जोड़ने की भी जरुरत है. वाकई आकांक्षा जी इस लघु-कथा के लिए बधाई की पात्र हैं.

Amit Kumar Yadav said...
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श्यामल सुमन said...

महिला मुक्ति आन्दोलन का समाज पर बहुत प्रभाव है।
जन्म से पहले ही महिलाओं की मुक्ति का प्रस्ताव है।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

संगीता पुरी said...

समाज के वास्‍तविक हालत को बहुत अच्‍छे ढंग से चित्रित किया गया है इस कहानी के माध्‍यम से ... बहुत अच्‍छा लिखा है।

* મારી રચના * said...

shayad iss laghu kathaa ke jariye wapas betian kel iye samaaj mai nayi roshni aaye...

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

अब नयी पीढ़ी की महिलाओं को इस मुद्दे पर सजग होकर अपनी दकियानूसी सासू माँ लोगों का दिमाग खोलना चाहिए। पुरुष वर्ग शायद इतनी ओछी सोच को जल्दी त्याग दे। जरूरत बेटियों को जागरूक बनाने की ही है।

Unknown said...

समाज की विसंगतियों पर आकांक्षा यादव जी की लेखनी सक्रिय है. इतनी सहज भाषा में आप अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर रही हैं कि बरबस ही उनका प्रिंट-आउट निकलकर फाइल में सुरक्षित रख लेता हूँ. इस बेहतरीन लघुकथा के लिए साधुवाद !!

Dr. Brajesh Swaroop said...

कम शब्दों में आकांक्षा यादव ने बेहद सारगर्भित बात कही है, यही तो लघुकथा की जान है.आशा है की इससे समाज को भी सीख मिलेगी.

Dr. Brajesh Swaroop said...

कम शब्दों में आकांक्षा यादव ने बेहद सारगर्भित बात कही है, यही तो लघुकथा की जान है.आशा है की इससे समाज को भी सीख मिलेगी.

Ram Shiv Murti Yadav said...

जहाँ पर नवरात्र के पर्व पर कुँवारी कन्याओं को खिलाने की लोग तमन्ना पालते हैं, जहाँ दुर्गा, लक्ष्मी, काली इत्यादि देवियों की पूजा होती है, वहाँ हम मनुष्य ये निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि हमें सिर्फ लड़का चाहिए, लड़की नहीं।
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बहुत सही बात कही है आपने...बधाई.

Ram Shiv Murti Yadav said...
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www.dakbabu.blogspot.com said...

वाह! अद्भुत लघुकथा. दिल को छूती है.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

इस लघु कहानी के लिए आकांक्षा जी की जितनी भी तारीफ की जय कम होगी. नारी के दर्द को भला नारी से ज्यादा कौन समझ सकता है. पर इसके लिए कभी-कभी नारी में ही दंद पैदा हो जाता है. कसे हुए शब्दों में बात को संजीदगी से रखती एवं समाज को राह दिखाती एक बेहतरीन कहानी...अनुपम!!

Bhanwar Singh said...

आकांक्षा यादव की यह लघुकथा नकारात्मक सोच पर चोट करते हुए एक सकारात्मक सोच को बल देती है। इस मर्मस्पर्शी लघुकथा हेतु आकांक्षा जी को बधाई.

Bhanwar Singh said...
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www.जीवन के अनुभव said...

हर एक माँ को ऐसी पहल करनी चाहिए लेकिन हमारी मांए तो खुद ही उस रूडिवादी सोच के आगे घुटने टेकती नजर आती है। फिर इस प्रगतिवादी सोच का क्या। बहुत ही संवेदनशील अभिव्यक्ति। वाह क्या बात है.......................

शरद कुमार said...

पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ...अच्छा लगा. आकांक्षा जी की लघुकथा बेहद प्रभावी हैं.

Jayshree varma said...

सच्चाईभरी कहानी है.... मां सिर्फ एक शब्द से नहीं बनता.... शुभकामनाएं

शरद कुमार said...
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Ashish (Ashu) said...

वाह, सच मे दिल कि बात कही आपने...

Urmi said...

पहले तो मै आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हू कि आपको मेरी शायरी पसन्द आयी और मेरी पैन्टिग भी!
बहुत बढिया!! इसी तरह से लिखते रहिए !

Unknown said...

मां। सिर्फ मां नहीं होती। सृष्टि रचयिता, जग जननी। उसका नाता एक परिवार से नहीं। पूरा विश्व की पालनहार है मां। मां का मर्म हम जान ही नहीं सकते । ममता का अथाह सागर। लेकिन इस कथा में सासू मां का कैरेक्टर काफी दिलचस्प है। जल्दी अहसास हो गया। अपनी गलतफहमी का। बहरहाल अच्छी कहानी थी।

admin said...

एक कम्युनिटी ब्लॉग पर इतने दिनों से किसी नई पोस्ट का न आना चिन्ता का विषय है।
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अभिनय के उस्ताद जानवर
लो भई, अब ऊँट का क्लोन

admin said...

एक कम्युनिटी ब्लॉग पर इतने दिनों तक कोईनई पोस्ट न आना चिन्ता का कारण है।

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TSALIIM.
-SBAI-

Dileepraaj Nagpal said...

No words....bahut shaandaar likha aapne

Pratik Ghosh said...

बहुत अच्चा लेख है!

-प्रतिक घोष
http://kikorinakori.blogspot.com/

Dr (Mrs) N.Swarnalekha said...

very good

Asha Joglekar said...

Ek man ke dil kee bat doosari man ke liye.

ज्योति सिंह said...

nari man ke taklifo ko umda tarike se darsaya gaya hai .

shama said...

Kaash har saas itnee aasaaneese baat samajh jaaye..!
Warnaa zindagee beet jaatee hai aur potekehee aas rehtee hai...usepe sneh nichhawar hota hai...

KK Yadav said...

Thanks for ur inspiring comments.

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत सुन्दर लघु कथा...बधाई.