कुछ समय पहले माँ की मर्ज़ी के बिना इस घर का पत्ता भी नहीं हिलता था, अक्सर उनकी एक हाँ से कितनी बार हमारे जीवन में खुशियों का अम्बार लगा मगर धीरे धीरे उनकी शक्तिया और उन शक्तियों का महत्व कम होते होते आज नगण्य हो गया !
अब अम्मा से उनकी जरूरतों के बारे में कोई नहीं पूछता, सब अपने अपने में व्यस्त है, खुशियों के मौकों और पार्टी आयोजनों से भी अम्मा को खांसी खखार के कारण दूर ही रखा जाता है !
बाहर डिनर पर न ले जाने का कारण भी हम सबको पता हैं..... कुछ खा तो पायेगी नहीं अतः होटल में एक और प्लेट का भारी भरकम बिल क्यों दिया जाये, और फिर घर पर भी तो कोई चाहिए ...
और परिवार के मॉल जाते समय, धीमे धीमे दरवाजा बंद करने आती माँ की आँखों में छलछलाये आंसू कोई नहीं देख पाता !
अब अम्मा से उनकी जरूरतों के बारे में कोई नहीं पूछता, सब अपने अपने में व्यस्त है, खुशियों के मौकों और पार्टी आयोजनों से भी अम्मा को खांसी खखार के कारण दूर ही रखा जाता है !
बाहर डिनर पर न ले जाने का कारण भी हम सबको पता हैं..... कुछ खा तो पायेगी नहीं अतः होटल में एक और प्लेट का भारी भरकम बिल क्यों दिया जाये, और फिर घर पर भी तो कोई चाहिए ...
और परिवार के मॉल जाते समय, धीमे धीमे दरवाजा बंद करने आती माँ की आँखों में छलछलाये आंसू कोई नहीं देख पाता !
24 comments:
सक्सेना साहब, मार्मिक,
ऐसी ही एक घटना याद आ गयी, बहुत साल पहले चिरंजन पार्क नै दिल्ली में एक आफिस कम गोदाम खोलने के लिए मकान देख रहे थे ! एजेंट एक बंगाली परिवार के घर में ले गया, घर वालो ने जिसमे एक ६०-६५ साल की विरध महिला भी थी माकन का पिछला हिस्सा दिखाया ! वहा जब एक कमरे में हम गए तो कोने पर एक वृद्ध लेटा था ! हमने कहा कि हमें अगले महीने की पहली तारीख से मकान चाहिए , मगर यहाँ ये विरध है इन्हें आप .. मेरी बात बीच में ही काटते हुए घर का बेटा बोला... वो हो जाएगा, पाप्पा को कैंसर है और डाक्टर ने कहा है कि दो हफ्ते से ज्यादा नहीं जी............. उसके बात सुन मै हक्का बक्का रह गया, और मेरे मुख से निकला धन्य है यह देश...... बेटा मकान किराये पर देने के लिए डाक्टर की भविष्यबाणी के सही निकलने की दुआ कर रहा था !
बहुत सी बातें याद दिला देती है आप की यह लघुकथा।
सतीश जी,
हम मॉर्डन लोग हैं...हमें ज़िंदगी में कभी बूढ़ा थोड़े ही होना है...हमें बस आज की चिंता है...सोसायटी में अपने मान का फिक्र है...जहां हमारा अपना फायदा है, वहां हमारे से ज़्यादा विनम्र कोई नहीं...अब इन बूढ़े मां-बाप की हड़्डियों से हमें क्या मिलने वाला है...सब कुछ तो निकाल कर बेशर्मी का घोटा लगाकर हम पहले ही पी चुके हैं...अब ताली बजाओ...भारत महान की हम महान संतान है या नहीं...
जय हिंद...
बहुत मार्मिक .. दिल को छू लेनेवाली .. क्या कहूं ??
kuch nhi kah sakte..........bahut hi marmsparshi.
सतीश जी,
दिल को भेदती हुई लघुकथा जिसका विस्तार असीम है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सतीश जी यह तो कुछ भी नही, लोग मरती हुयी बुढिया को पानी भी तभी देते है, जब बुढिया किसी बेंक के चेक पर साईन कर दे, ओर मकान भी उस बेटे के नाम से कर दे.... वरना मरे भुख प्यास से... मेने देखा है इस गंदी दुनिया का चेहरा बहुत नजदीक से..... कितने कमीने बनते जा रहे है हम .....आप के इस लेख ने फ़िर से बेचेन कर दिया.
धन्यवाद
कहाँ से कहाँ आ गए हम .और बड़ी बड़ी बातें करते हैं भारतीय संस्कृति और सभ्यता की .
पैसे की हाय और जल्दी जन्दी सब कुछ पा जाने की लालसा ही हमारे रिश्तों को कमजोर कर रही है । शरीर और अर्थ से अक्षम होते ही हम जीने के लिये भी अक्षम समझ लिये जाते हैं ।
मां के क़दमों के नीचे जन्नत होती है...मां से बढ़कर कोई नहीं हो सकता...मां खुश है तो रब खुश है...
भोगविलास और भौतिकतावाद के बारे में अभी से अपने बच्चों को बताना जरूरी है!!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
मां की ऐसी हालत न होती, यदि मां की अंटी में पैसा होता.
यही यथार्थ बन कर रह गया है.
लोग इतने प्रैक्टिकल हो चुके हैं कि माँ को भी बोझ समझने लगे हैं
कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया है आपने।
लगता है हर माँ की यही कहानी है. मन भर आया.
बहुत ही मर्मस्पर्शी आलेख। पर कोई भी सत्य परम सत्य नहीं होता। जाने-अनजाने आपने अपने आलेख के पहले वाक्य में ही सत्य का दूसरा पहलू भी उजागर कर दिया है-'कुछ समय पहले माँ की मर्ज़ी के बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था………' मैंनें वास्तविक जीवन में ही ऐसी कई असंवेदनशील/आत्मकेन्द्रित माएं भी देखी हैं जिन्होंने अक्सर अपना बस चलने तक अपनी म्ररज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलने दिया। पर समय तो किसी के वश में नहीं है। यदि समय रहते उन्होंने परिवार को अपनी निजी जागीर और सन्तानों को अपनी प्रजा समझना बन्द कर दिया होता तो शायद सन्तान का व्यवहार भी कुछ भिन्न होता।
बाहर डिनर पर साथ न ले जाने का कारण भी हमेशा 'एक और प्लेट का भारी भरकम बिल' नहीं होता। अपनी 'फ़ूड हैबिट्स'के दायरे में न आने वाले सारे खाद्यों-पेयों को 'अपवित्र' और 'तामसी' मानने की मानसिकता भी इसका कारण हो सकती है जिसके चलते सन्तान और उसके अतिथि/मित्र असहज महसूस करने लगते हैं। जहां तक 'माँ की आँखों में छलछलाये आँसू' न देख पाने का प्रश्न है ऐसा भी अक्सर उन्हीं माँओं के सा्थ होता है जिनकी मर्ज़ी के बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था। उन्हें कब दिखते थे उन पत्तों की आँखों में छलछलाते आँसू?
माँ से सभी सन्तानें प्यार करती हैं। पर माँ से प्यार की अभिव्यक्ति के लिये सन्तानों को 'विलेन'
बना कर प्रोजेक्ट करना कब तक चलता रहेगा?
सतीश जी! आप अच्छी तरह से जानते हैं कि आपकी भावनाओं को आहत करना मेरा उद्देश्य कभी नहीं हो सकता। फिर भी यदि ठेस पहूंची हो तो अनुज समझ कर क्षमा करेंगे।
भुगतान कर्मों का है यही
जरा रोग का धर्म है सही
परिवर्तन का चक्र है वही माँ जिससे उऋण मैं नहीं
@डॉ अमर ज्योति,
आपकी ईमानदारी को मैं ही नहीं आपका हर पाठक पूरे विश्वास के साथ जानता है भाई जी, जहाँ तक माँ बेटे के रिश्ते का सवाल है, मैं आपके उठाये हुए सवालों से भी सहमत हूँ, मगर अधिकतर मौकों पर माँ की ममता को चुनौती नहीं दी जा सकती ! अधिकतर ऐसे मामलों में कोख से जन्में पुत्रों की लापरवाही ही सामने आती है !
सादर
@सतीश सक्सेना जी,
डा अमर ज्योति जी का कहना भी गलत नहीं .. आज अर्थ का प्रभाव हर रिश्ते पर पडा है .. पहले की तरह अब मां बाप भी नहीं रहें .. पहले जमाने में लोग अपनी बेटियों को भूल जाया करते थे .. अब बेटियों को अधिकार देने दिलाने के चक्कर में बहूओं पर अन्याय करने लगे हैं .. सबके घर में तो नहीं .. पर बहुतों के घर में मैने बहू को तकलीफ झेलते देखा है .. खासकर दामाद स्वावलंबी न हो .. यानि भले ही मां बाप का व्यवसाय संभालता हो .. कितने भी संपन्न परिवार में विवाह करके बेटियों के मां बाप निश्चिंत नहीं रह पाते .. पहले की तरह मां बाप अपने अधिकार छोडना नहीं चाहते .. आज कोई भी समस्या एकतरफा नहीं है .. कहीं पति परेशान है तो कहीं पत्नी .. कहीं अभिभावक परेशान हैं तो कहीं बच्चे .. मैने खुशदीप सिंह जी के ब्लाग में भी इस मुद्दे को उठाया था .. पर इसपर बहस आगे नहीं चल सकी .. पूरा अर्थप्रधान युग है और यह शिक्षा बच्चों को अपने अभिभावकों से ही तो मिल रही है !!
जो माँ अपने बच्चे को दो मिनट गीले में नहीं सोने देती,उसी माँ की आँखों को ये संतान एक मिनट में गीला कर देती है!बच्चों की अनगिनत गलतियाँ माफ़ करने वाली माँ यदि कुछ गलती कर भी दे तो भी संतान को चाहिए की वो माँ को उचित सम्मान दे!आजकल बच्चे कहते है की सभी माँ बाप अपने बच्चों को पालते है,मैं उनसे कहना चाहूँगा की आप अपने बच्चो को पालते समय जान जायेंगे की माँ की ममता क्या होती है?कभी भी,किसी भी हालत में हम उनका योगदान भुला नहीं सकते!बेशक माँ बाप पहले जैसे अब ना रहें हो पर..अब की संतानें तो क्या बताये..??? गोदियाल साहब की कहानी अभी भी बार बार रिपीट हो रही है..
aaj subah hi apni maa se baat ki humne.. aur wasie bhi kuch theek nahi lag raha thaa... aur baaki thaa ki apane hamein rula hi diya... padh ke aissa laga ki kahin na kahin hum bhi gunahgaar hain Maa ke iss halat ke liye
मां की आंखों के आंसू कोई नही देख पाता ,किन्तु पाठ्कों की आंखें तो आपने आंसुओं से भर दीं ।नितान्त सत्य ,कटु सत्य ,हर परिवार का सत्य । होटल का बिल क्यों दिया जाये और घर पर भी तो कोई होना चाहिये ।शक्तिया और उनका कम होना, सब का अपने आप मे व्यस्त होना और मां की जरूरतो को न पूछ्ना खांसी के कारण आयोजनों से दूर रखा जाना जो जो घरों में हो रहा है सब व्यक्त कर दिया आपने चन्द लाइनों में
डॉक्टर अमर ज्योति की बात भी सोचने योग्य है। इस विषय पर अधिकतर इकतरफा लिखा जाता है। एक समस्या है जिसका समाधान भावनाओं से ही नहीं किया जा सकता। प्रैक्टिकल उपाय व वृद्ढ़ों की देखभाल करने वालों को सहयोग देकर किया जा सकता है। किसी के घर की कोई एक बात देखकर राय बना लेना बहुत सरल है। वृद्ढ़ों की सेवा व उनका दायित्व निभाते स्वयं वृद्ध होती संतान का कष्ट कम ही लोग समझ पाते हैं।
इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसा नहीं होता।
घुघूती बासूती
ओह्ह!
हर तरफ हर रोज दिखता है पर जब कोई दिखा दे तो सन्न रह जाते हैं!!
shabd dena un aankhon kee nami ko, ....naman yogya hai kalam
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