Monday, October 13, 2008

माँ को तरसता... “टुअरा”

श्री प्रमोद कुमार मिश्र बिहार के पश्चिमी चम्पारण में प्राथमिक स्तर के शिक्षक हैं। बच्चों को क, ख, ग ... की शिक्षा देने का काम है इनका, लेकिन अपने वातावरण के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होने से इनका जीवन इस छोटे से काम को भी बड़ी गम्भीरता से करने में गुजरता है। ये अन्य शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का दायित्व भी बखूबी निभाते हैं। श्री मिश्र ने अपनी शैक्षणिक गतिविधियों को रोचकता का नया रंग देने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी इसमें शामिल करने का कारगर उपाय ढूँढ निकाला है।

दशहरे की छुट्टियों में मेरी इनसे मुलाकात हो गयी। अपने गाँव में अत्यन्त सादगी भरा जीवन गुजारते हुए इनका जीवन आधुनिक साधनों से बहुत दूर है। बात-बात में इनसे माँ के सम्बन्ध में चर्चा हुई तो भावुक हो उठे। कुरेदने पर उन्होंने एक ऐसे बच्चे की कहानी सुनायी जिसके माँ-बाप नहीं थे, बिलकुल अनाथ था, और इनके स्कूल में पढ़ने आया था। उसके दुःख पर इनके कवि हृदय से जो शब्द फूट पड़े उन्हें सुनाने लगे तो मेरा मन भी भर आया। मेरे अनुरोध पर इन्होंने इसे गाकर सुनाया तो मैने अपने मोबाइल के कैमरे को चालू कर लिया। बिना किसी साज़ के एक घरेलू बर्तन पर हाथ फेरते हुए इन्होंने जो आँखें नम कर देने वाली स्वर लहरी बिखेरी उन्हें आपके लिए सजो लाया हूँ। सुनिए:




आपकी सुविधा के लिए इस भोजपुरी गीत के बोल और इसका भावार्थ नीचे दे रहा हूँ।

गीत के बोल भोजपुरी में:

कवना जनम के बैर हमसे लिया गइल।
हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
का होला माई-बाप, हमहू ना जानी;
गोदिया के सुख का होला, कइेसे हम मानी।
जनमें से नाव मोरा, ‘टुअराधरा ग‍इल;
...........हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
केहू देहल माड़-भात, केहू तरकारी;
कबहू भगई पहिनी, कबहू उघारी।
एही गति बीतल मोरा, बचपन सिरा गइ;
..............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
बकरी चरावत मोरा, बितलि लरिक‍इया;
केहू बाबूकहल, केहू ना ‘भ‍इया’
कहि-कहिअभागालोगवा, जियरा जरा गइ;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
()
केकरा संघे खेले जाईं, केहू ना खेलावल;
अपना में टुअरा के, केहू ना मिलावल।
रोए-रोए मनवा मोरा, अँखिया लोरा ग‍इल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा ग‍इल॥
भावार्थ:
हे ईश्वर, तूने मुझे किस जन्म (के बुरे कर्म) की सजा दी है, तुम्हारा ध्यान किस ओर खो गया है?
(१) माँ-बाप क्या होते हैं, यह मैं नहीं जानता, न ही मुझे गोद के सुख का कोई पता है। मेरा तो जन्म के बाद नाम ही अनाथ (टुअरा) रख दिया गया।
(२) किसी ने (दयावश) मुझे चावल दे दिया तो किसी ने सब्जी, कभी जांघिया पहनने को मिला तो कभी नंगा ही रहना पड़ा; और इसी तरह से मेरा बचपन बीत गया।
(३) मेरा बचपन बकरी चराते हुए बीता, मुझे कभी किसी ने ‘बाबू’ या ‘भइया’ कहकर सम्बोधित नहीं किया। मुझे तो ‘अभागा’ कह-कहकर लोगों ने मेरा जी जला डाला।
(४) मैं किसके साथ खेलने जाऊँ, मुझे कोई नहीं खिलाता; इस अनाथ को अपने दल में कोई शामिल नहीं करता। इसके लिए रो-रोकर मेरी आँखें आँसू से भर गयीं हैं।

(सिद्धार्थ)

16 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

किसी का भी महत्व तभी पता लगता है जब वह नहीं होती है।
बहुत ही भाव प्रवण गीत है और उसे तन्मयता से गाया गया है। इस में जितना संगीत है उतना ही पर्याप्त है। इस से अधिक होने पर वह इस गीत की आत्मा को नष्ट कर देता।

रंजू भाटिया said...

दिल को छू लेने वाले भाव हैं इस गीत के .,,बहुत पसंद आया यह

श्रीकांत पाराशर said...

Man ki gahraiyon tak pahunchnewala geet. bahut badhia. Aap bhagyshali hain ki ek aise uttam vyakti se mile jinse kuchh na kuchh seekha ja sakta hai.Blog ke jariye hamari bhi inse mulakat karai, dhanywad.

Satish Saxena said...

माता पिता की उंगली बचपन में ही छिन जाने का दर्द हर कोई नही महसूस कर पायेगा त्रिपाठी जी ! यह दर्द मैंने अपने बचपन में सहा है ! इस गीत को देने के लिए आपका धन्यवाद !

रंजना said...

केकरा संघे खेले जाईं, केहू ना खेलावल;
अपना में ए टुअरा के, केहू ना मिलावल।
रोए-रोए मनवा मोरा, अँखिया लोरा ग‍इल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा ग‍इल॥"

बहुत बहुत आभार........
गीत आँखें बहा गई.अति सुंदर.

कुन्नू सिंह said...

बहुत भावूक है।
रूला देने वाला लेख है।

मै ईस लेख की जीतनी तारीफ करूं वो कम ही होगा।

Prabhakar Pandey said...

तिवारीजी, नमस्कार। बहुत ही भावुकतापूर्ण एवं सार्थक रचना। टुअरा शब्द अपने आप में ही अपनी कहानी कह देता है। यह शब्द ही इतना मार्मिक है की आँखों को भीगो देता है। बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
आपके इस कार्य ने मेरा मार्गदर्शन किया है। और इस दिवाली में मैं 15-20 दिन के लिए गाँव जा रहा हूँ लेकिन इस बार यह समय गाँव-रिस्तेदारी में घूमकर नहीं बिताऊँगा बल्कि कुछ बुजुर्ग-पुरनिया आदि लोगों से मिलकर कुछ उनके विचार, अपनी परम्परा आदि पर चर्चा करूँगा और फिर मुम्बई आने के बाद इन सब चर्चाओं कों आप महानुभावों के आगे प्रस्तुत करूँगा।
बहुत-बहुत धन्यवाद।

RAJ SINH said...

jo geet kee anchleeyata se bandhen hain ve is geet kee tees mahsoos karenge.dil se gaya gaya.

Asha Joglekar said...

बहुत ही भावनाओं से ओतप्रोत गीत । भोजपुरी भाषा की मधुरता ने इसके भावों को और भी निखारा
है । बहुत सुंदर बधाई त्रिपाठी जी और मास्टर जी को बहुत धन्यवाद ।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

"माँ-बाप क्या होते हैं, यह मैं नहीं जानता, न ही मुझे गोद के सुख का कोई पता है। मेरा तो जन्म के बाद नाम ही अनाथ (टुअरा) रख दिया गया।"
......sach hi jinki maa nahin hoti ... vo kitne abhage hote hain !!

KAUTILYA DUTT said...

nice........

विक्की निम्बल said...

केकरा संघे खेले जाईं, केहू ना खेलावल;
अपना में ए टुअरा के, केहू ना मिलावल।
रोए-रोए मनवा मोरा, अँखिया लोरा ग‍इल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा ग‍इल॥



Jab kuchh kehne yogy hounga keh dunga.
Gala bhar aana kewal suna hi aaj se pehle.

विक्की निम्बल said...

कहि-कहि ‘अभागा’ लोगवा, जियरा जरा गइल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥


Bahut sundar,ati sunder,na jane kitni baar sun chuka hu,fir bhi mn nhi bharta,mn bhar aata hai.

youtube se download karna chahta hu.koi madad kijiye.

AKS said...

shabd nahi hai vyakt karne ke liye...
bahut sundar,ankhe bhig gayi..danyavad

कविता रावत said...

lok geeton kee baat hi kuch nirali hoti hai..
sundar prastuti..

विक्की निम्बल said...

आज 8 साल बाद पुनः सुना। वहीं हालत फिर से हो गयी मेरी। भावुक