मेरी माँ अब इस संसार मे नहीं हैं- 1 दिसंबर (मंगलवार) 1998 को लखनऊ के संजय गाँधी पीजीआई अस्पताल के नैफ्रोलॉजी विभाग के आईसी यू में उन्होने तकरीबन दिन के पौने बारह बजे आखिरी सांस ली थी- आज भी मुझे वो वक्त ठीक ऐसे याद है जैसे अभी अभी वही दृश्य मेरे सामने से निकला हो- माँ का जाना कितना दुखद होता है ये शायद माँ के जाने के बाद ही पता चलता है क्योकि जब तक वो आपके साथ होती है आप उसके जाने के बारे मे कभी सोच भी नही सकते और इसीलिए उसका जाना किसी भी बड़े सदमे से भी भयानक और सहमा देने वाला होता है।
अब माँ तो चली गई और रह गये आप- बिल्कुल अकेले क्योकि वो प्यार-दुलार, ममता और कोई दूसरा आपको चाहकर भी न तो दे सकता है और ना ही आप उससे ले सकते है। एक शून्य जैसा एहसास होने लगता है आसपास- जैसे कि आप अभी तक एक खोल मे सिमटे पड़े थे और अचानक आपको किसी ने छिलके से बाहर निकाल दिया हो। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ- समझ नही आ रहा था कि अब कंहा से शुरू करू अपनी जिंदगी को जैसे अचानक तेज रफ्तार से भागती ट्रेन से किसी ने फेंककर मुकाबले के लिए ललकारा हो- कि आ अब रेस कर निकल आगे अगर निकल सकता है तो ।
मेरी माँ करीब पाँच साल से बीमार तो थी लेकिन पलंग पर पड़े पड़े वो हिम्मत देती रहती थी- मानो कह रही हो कि बेटा मैं हूँ ना- और अगर ना भी कहती तो हिम्मत सी बंधी रहती थी और इसी हिम्मत के बल पर मैंने कितनी ही पहाड़ जैसी मुश्किलो को पार कर लिया था ये मैं ही जानता था- लेकिन अब माँ के जाने के बाद वो हिम्मत टूटने सी लगी थी- और हिम्मत से हारा आदमी हर जगह मात खाता है ये तो सब जानते है।
आज माँ को मुझसे दूर गये करीब दस बरस होने को आये लेकिन ये सारी बाते आज भी मुझे अकेलेपन का एहसास करा जाती है- सच है माँ की तुलना में तो प किसी को भी खड़ा नहीं कर सकते- माँ तो वाकई महान होती है लेकिन ये बात अगर माँ के साथ रहते समझ आ जाये तो कहने ही क्या।
आज भी जब मैं किसी को अपनी माँ से बदतमीजी से बात करते देखता हूँ तो सोचता हूँ कि वाकई ये निर्लज्ज नहीं जानता कि ये कितनी बड़ी मूर्खता कर रहा है ये नहीं जानता कि इसके पास क्या है और वो उसके साथ क्या कर रहा है।
अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार जब बचपन मे माँ की बगल मे बैठकर दूरदर्शन पर देखी थी तब शशि कपूर के उस डायलॉग का मतलब समझ नहीं आया था लेकिन माँ के जाने के बाद समझ आया कि मेरे पास माँ है कहना- कितने गर्व और खुशकिस्मती की बात होती है जो कि मेरी नहीं है।
मेरी बहन भी एक माँ है अपने बच्चे की माँ लेकिन उसे भी माँ की कमी सालती रहती है- मतलब माँ को भी एक माँ की जरूरत होती है ये वो जरूरत है जो जिंदगी के किसी भी पड़ाव पर आपको याद आती ही रहती है- कचोटती रहती है आपको मन ही मन- माँ जिससे आप जमाने भर की शिकायत कर सकते हो- जिससे अपने हर झगड़े हर मुसीबत हर बीमारी हर मुश्किल के बारे मे बात कर सकते हो- क्योकि माँ सिर्फ माँ ही नही होती बल्कि एक अच्छी दोस्त भी होती है।
मेरी माँ भी मेरी एक अच्छी दोस्त थी मेरी शायद ही कोई ऐसी बात हो जो उनसे छिपी रह गई हो- मुझे याद है कि किस तरह उन्हे मेरी हर इच्छा बोलने से पहले ही मालुम हो जाती थी- स्कूल से वापस लौटने पर वो मेरा इंतजार करती मुझे मिलती- कल किस सब्जेक्ट का होमवर्क करना है किस सब्जेक्ट का क्लास टैस्ट है एक्ज़ाम की स्कीम वगैरह उन्हे ऐसे याद होता था मानो मेरे और मेरी बहन के लिए जीना ही उनका एकमात्र मकसद हो।
मेरी माँ से मेरी आखिरी बातचीत 28 नवंबर 1998 को दिन के वक्त हुई थी- मेरी उम्र करीब 20 साल की थी और मैं पहली बार दिल्ली का ट्रेड फेयर देखकर लौटा था वो मुझसे काफी देर तक बात करती रही- मेरे करियर के फ्यूचर प्लान्स के बारे मे पूछा और लंबे वक्त तक बात करने के बाद थकने की वजह से सो गई वो अस्पताल के बिस्तर पर ही लेटी थी- उनकी दोनो किडनी लगभग फेल हो चुकी थी- डायलेसिस हो नही सकती थी क्योकि उनका वजन मात्र 29 किलो रह गया था- उनका अंत जल्द ही हो सकता है कही न कही हम सब जानते थे लेकिन उसे स्वीकार करने की ताकत किसी में नही थी-
हाल ही मे 5 सिंतबर को उनका जन्मदिन था - मैने उस दिन उन्हे काफी याद किया- वो बहुत धार्मिक थी हफ्ते मे 4 दिन व्रत रखती थी- फलो को पेड़ से तोड़ कर नहीं खाती थी उन्हे लगता था कि पेड़ से फल तोड़े जाने पर पेड़ो को दर्द होता है- एनसीसी के कैडेट रही मेरी माँ इतिहास मे बी ए तक पढ़ी थी- नाना जी आर्मी मे मेजर थे इसलिए घर का माहौल बेहद अच्छा था लेकिन उनका अंत इस तरह बीमारी के साथ होगा किसी ने कभी सोचा तक न था-
मेरे लेखन की शुरूआत उनके सामने ही हो गई थी- उन्हे अच्छा लगता था जब मेरी रचनाये कही पर प्रकाशित होती थी। आज मेरे पास काफी कुछ है लेकिन जब भी मैं अपने पैसे खर्च करके कुछ खरीदता हूँ तो एक ही बात बहुत चुभती है और वो ये कि मैं कभी अपनी कमाई से अपनी माँ के लिए कुछ भी नहीं खरीद पाया मैं किसी लायक बन पाता इससे पहले ही मां का आंचल मेरे हाथो से छूट गया- ये एक ऐसी छटपटाहट है जिसका कोई इलाज नहीं लेकिन यंहा लिखकर अपने दिल का बोझ हल्का कर रहा हूँ।
एक ही बात कहूँगा कि अगर आपके पास माँ है तो उसकी इज्जत करना सीखो ये ऊपरवाले का ऐसा आनमोल तोहफा है जिसका मोल वही जानता है जिसके पास ये नहीं है।
Thursday, September 18, 2008
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8 comments:
प्रिय उज्ज्वल, क्या सशक्त एवं भावनाओं से भरा लेख है यह!! निम्न वाक्य:
"एक ही बात कहूँगा कि अगर आपके पास माँ है तो उसकी इज्जत करना सीखो ये ऊपरवाले का ऐसा आनमोल तोहफा है जिसका मोल वही जानता है जिसके पास ये नहीं है।"
को देख कर आंसू आ गये!!
शास्त्री
बहुत भावुक कर दिया आपने इस लेख से मुझे ,,क्यूंकि माँ की कीमत क्या होती है वह मैं अच्छे से समझ सकती हूँ .माँ जैसा कोई नही हो सकता और उसकी जरुरत हर वक्त हर उम्र पर है ..आप जीवन में आगे बढे और खूब तरक्की करे ताकि आपकी माँ जहाँ भी हैं देख कर खुश होती रहे ..
आपके ब्लॉग पर आना तो हुआ लेकिन दिल भारी हो गया है.....माँ का प्यार कोई नहीं दे सकता है. माँ का किया कोई चुका नहीं सकता है.सच तो ये है कि माँ के प्यार में स्वार्थ नहीं होता.....बाकी तो सभी रिश्तों स्वार्थ होता है....
मां के क़दमों में जन्नत होती है.
माँ की स्नेह छाया की शीतलता अनमोल है. बहुत भावपूर्ण और दिल को छूने वाली यादें..
नाम की तरह उज्ज्वल आपके विचार
हमें तो खूब पसंद आए आपके विचार
मां खोने का दर्द आप की तरह मुझे भी अब तक सालता है और शायद जिन्दगी भर सालता रहेगा। ये वो दर्द है जो कभी नहीं मिटता।
आप की मां को भी आप से बिछड़ कर चैन न आया होगा, आप की तरक्की की चाह रही होगी। जब जब जिन्दगी में मन चाहा पाएं समझ लिजिएगा मां पास ही खड़ी मुस्कुरा रही है। हमारा आशीर्वाद आप के साथ हैं।
आपने तो भावुक ही कर दिया।
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