मेरी माँ काफी स्वस्थ स्त्री थीं एवं उनका जीवन काफी संघर्षमय था. प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध, चीन के साथ एवं पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान देश में जो अकाल पडा था वह सब उन्होंने सहा था, लेकिन बताया किसी को नहीं.
सत्तर साल की उमर में जब उनको अचानक कैंसर हो गया तो यह परिवार के लिये काफी दु:ख की बात थी. डाक्टर ने उनको सिर्फ 6 महीने और दिये थे, लेकिन अस्पताल-घर-अस्पताल इस तरह उन्होंने तीन साल और बिता दिये. अचानक एक दिन फिर उनको अस्पताल ले जाना पडा एवं मेरी पत्नी सेवा के लिये पुन: उनके पास चली गईं. वह शहर हमारे घर से लगभग 120 किलोमीटर दूर था.
अगले दिन अचानक मेरी पत्नी का फोन आया कि मैं तुरंत सब कुछ छोड अस्पताल पहुंचूँ. ऐसा ही किया. डाक्टरों ने उनको सिर्फ कुछ क्षणों का समय दिया हुआ था. वहां पहुंच कर एक बात मैं ने नोट की कि मां बार बार मूँह खोल रही हैं एवं कुछ कहना चाहती हैं. मेरी पत्नी ने बताया कि प्यास के मारे उनकी हालत खराब हो रही है, एवं पानी मांग रही हैं, लेकिन डाक्टर एवं नर्से उनको पानी पिलाने नहीं दे रहे.
मुझे यकीन नहीं हुआ कि यह क्या हो रहा है. नर्सों से पूछा तो वे बोलीं कि मां के गले की सारी मांसपेशियां काम करना बंद कर चुकीं है अत: पानी पिलाने पर पानी उनके फेंफडे में जाकर दम घुटने से उनका जीवन जा सकता था. मैं ने पूछा कि प्यासा रखा जाये तो कितने और घंटे वे जीवित रहेंगी. नर्सों ने कहा कि अधिकतम 6 घंटे क्योंकि अब उनकी अंतिम घडी आ गई है. तुरंत जाकर डाक्टर से पूछा तो उन्होंने भी जवाब यही दिया कि अधिकतम 6 घंटे और बचे हैं.
मैं एक क्षण भी वहां न रुका. दौड कर कमरे में जाकर अपनी पत्नी से कहा कि वे तुरंत मां को पानी पिलाये. पत्नी बडी हिचकिचाई कि कुछ अनहोनी हो गई तो लोग बुरा मानेंगे. मैं ने अपनी तुरंत पास खडी अपनी बहिन को बुलाया, एवं पत्नी एवं बहिन से कहा कि रूई गीली करके वे तब तक मां को पानी पिलाते रहें जब तक उनकी प्यास न बुझ जाये. लोग डाक्टरों एवं संभावित मृत्यु के डर के मारे कांप गये, लेकिन मेरा कोप देख कर उन्होंने मेरा कहा मान लिया.
मेरी सोच यह थी कि अर्ध मूर्छित पडी मां को प्यासा रख 6 अगले घंटे तक तडपाने के बदले उनकी प्यास पहले बुझाई जाये. अर्धमूर्छित पडी मेरी मां को प्यास से तडपा तडपा कर उनके जीवन को 6 घंटे और लम्बा करना मुझे स्वीकार्य न था. मैं चूंकि घर का ज्येष्ठ पुत्र था अत: पिताजी से लेकर किसी ने मेरे निर्णय का विरोध नहीं किया.
लगभग 1 घंटे गीली रूई से पानी पिलाने पर मां की प्यास पूरी तरह मिट गई एवं वें आराम से सो गईं. 6 घंटे छोडिये, 10 घंटे बीत गये. उस रात उनको होश आ गया. चार दिन के बाद वे इतनी स्वस्थ हो गईं कि अस्पताल से डिश्चार्ज कर दिया.
इसके बाद मेरी मां दो साल और जीवित रहीं. लेकिन यदि मैं ने अपने रिस्क पर -- मन कडा करके -- एक निर्णय न लिया होता तो उस दिन डीहाईड्रेशन से जरूर उनकी मृत्यु हो जाती. अगले दो साल हमारे लिये मां के साथ बिताये सबसे सुखद साल थे, शायद इस कारण कि समय पर मैं सही निर्णय ले सका.
8 comments:
आपकी हिम्मत की दाद देनी चाहिए- ज्यादातर लोगो ऐसे वक्त में ही कमजोर पड़ जाते है पर आपने बहुत हिम्मत से काम लिया- मेरी माँ भी काफी बीमार रही थी इसलिए मैं अपकी मनोस्थिति समझ सकता हूँ। ईश्वर आपको हमेशा शक्ति दे।
ma ki ekccha puri kar ke aapne jo kaam kiya uska inaam do saal mile ma ke saath rahne ko.
आजकल यही हो रहा है। चिकित्सक मानवीय होने के स्थान पर केवल तकनीकी हुए जा रहे हैं। उस का नतीजा बहुत खराब हो रहा है। कुछ ही दिनों में एक नया प्रकरण ले कर आ रहा हूँ तीसरा खंबा पर चिकित्सा के इन्हीं सौदागरों के बारे में।
आपकी हिम्मत और आस्था को प्रणाम करते हैं हम। सुन्दर संस्मरण...। साधुवाद।
बहुत अच्छा निर्णय लिया आप ने। अक्सर लोग डॉक्टर या लोकलाज के डर से मरीज को वो आराम नहीं देते जिस पर उसका मानवीय अधिकार होता है और मरीज बिचारा असहाय किसी कैदी पशु की तरह पड़ा आत्म सम्मान की भीख मांगता रहता है पर अपनों के कान पर जूँ नहीं रेगतीं
आप के माँ की आत्मा का आशिर्वाद हमेशा आपके साथ रहेगा । जो आपने किया वह बडी पिम्मत का काम था ।
सही निर्णय लिया आपने ..अपनी .माँ को हमने इसी डाक्टरी लापरवाही के कारण खोया ....
har koi aap ke nirnay ko srah rha hai . main bhi unme se hi hu. parantu main aapko isliye bhi dad deta hu ke ho sakta tha maa pani pine ke baad hi swarg sidhar jati. to kam se kam hamare mann me ye gilani to nahi rehti ke maa ne puri zindagi hume wo hi diya jo humne manga, lekin hum unhe vo na de paye jo unhe antim smay (us waqt)me chaiye tha. aap ne ek bete hone ka farz nibhaya hai.
so inpire all the son like tht.
Rakesh Kaushik
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