Saturday, September 27, 2008

माँ: यादों का एक सफ़र !!

शास्त्री जी एवं अरविंद जी का न्यौता पा कर हम बहुत खुश थे( अब भी हैं), मां विषय ही ऐसा है। मां पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है, अब लिखने बैठे हैं तो न जाने कितनी यादें जहन में तुफ़ान मचाये हैं।सोच रही हूँ क्या भूलूं क्या याद करुं कि तर्ज पर आप को क्या बताऊं और क्या नहीं।

आइस्क्रीम वाले की घंटी सुनते ही जैसे बच्चे सब छोड़ दौड़ पड़ते हैं और सैकड़ों हाथ आइस्क्रीम लपक लेने को ललायित हो उठते हैं कुछ ऐसा ही हाल मेरी यादों का है। हर याद दूसरी याद पर चढ़ हमसे कह रही है पहले मैं, नहीं पहले मैं। एक नरम दिल इंसान होने के नाते मैं किसी को नाराज नहीं करना चाह्ती, इस लिए बिना ये सोचे कि ये याद कड़ी में बैठती है या नहीं, जैसे जैसे ये मेरा ध्यानाकर्षण कर रही हैं वैसे वैसे इन्हें यहां टांकती जा रही हूँ। आशा है आप इनकी धमाचौकड़ी से परेशान हो उठ कर नहीं चले जायेगें। तो आइए आप से प्रार्थना है कि मेरी यादों का हमसफ़र बन कदम दो कदम साथ चलें।

पीछे दूर तक द्रष्टि जाती है तो दिखाई देता है, नहीं सुना है, मम्मी जब रसोई में खाना बना रही होतीं हम पास जा बैठते (2 साल की उम्र में और कर भी क्या सकते थे)। मम्मी मुस्कुरा कर थोड़ा दूर बैठाने के इरादे से सब्जी की टोकरी हमारे सामने रख देतीं। उस जमाने में गैस के चुल्हे सब के घर नहीं होते थे न, और खाना भी फ़र्श पर बैठ कर बनाया जाता था, ज्यादा पास आने पर जल जाने का खतरा होता था। मम्मी खाना बनाती जातीं और साथ में हमसे खेलती जातीं( खेल? नहीं जी पढ़ाई…फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि हमें खेल लगता था) एक एक आलू ए, बी, सी, डी होता और एक एक प्याज 1, 2, 3 होता, कभी मम्मी ये सारे आलू प्याज टौकरी में वापस डालतीं और कभी हम।

गाजियाबाद की बात है, तब भी स्कूल में दाखिला लेने के लिए इंटरव्यू देना पड़ता था। सो हमें भी यह इंटरव्यू देना पड़ा। मम्मी के उस रसोई के खेलों की बदौलत प्रिंसीपल साहिबा ने हमें नर्सरी छोड़ सीधे पहली क्लास में दाखिला दे दिया और पढ़ाई की शुरुवात में ही हमें दो साल का फ़ायदा हो गया।

दूसरी याद मेरा पल्लु खींच कर मुझे याद दिला रही है कि मेरी पढ़ाई  में मम्मी का योगदान एम फ़िल के दिनों तक चला जब हम खुद भी मां बन चुके थे। अरे नहीं नहीं, एम ए के दिनों में मम्मी हमें पढ़ाती नहीं थीं फ़िर भी उनका योगदान कुछ कम नहीं था। बात दरअसल ये है कि उस जमाने में फ़ोटोकॉपी करने की सुविधा इतने व्यापक रूप से प्रचलित नहीं थी जैसे आज है और महंगी भी बहुत थी। सो मैं और मेरी सहेलियां कार्बन पेपर का इस्तेमाल कर नोटस बनाते थे। नोटस बनाने का काम बहुत ज्यादा होता था। मम्मी बिचारी हर दम अपने बच्चों की तकलीफ़ों से द्रवित कहती लाओ मैं कुछ लिख देती हूँ। हम कॉलेज चले जाते और मम्मी घर के सारे काम निपटाने के बाद अपने दोपहर की नींद की बलि चढ़ा कर हमारे नोटस लिखतीं जो हम किताब में निशान लगा जाते। हम शाम को आते जैसे लेक्चर में बैठ कर केन्टीन की टैबल तोड़ कर हम कोई बड़ा काम कर के आये हों और मम्मी बिचारी चायवाय बनाने में लग जातीं।

आज सोचती हूँ कितने आत्मकेंद्रित थे हम। मां को कितना टेकन फ़ोर ग्रांटेड लेते थे। आज हम शर्मसार हैं ये सोच सोच कर कि खुद मां बन जाने के बाद भी हमें ये एहसास बहुत कम था कि कैसे बिना जताये माँ हमारी जिन्दगी का सहारा बनी हुईं हैं। हमने एम फ़िल करने का फ़ैसला किया तो मम्मी ने अपनी ढलती उम्र को दरकिनार कर हमारे बेटे की देखभाल का दायित्व स्वभाविक रूप से अपने ऊपर ले लिया। हम फ़िर अपनी किताबों की दुनिया में खो गये और मम्मी ने एक बार फ़िर आलू प्याज का खेल शुरु कर दिया। इस बार चुनौतियां उनके लिए दुगुनी थी, अंग्रेजी में जो कविताएं सिखानी थीं।

जब हम अपने कैरियर की राह पर अपने कदम जमा रहे थे उनके बूढ़े पैर अपने नाती के उछलते कदमों से कदम मिलाते स्कूल की तरफ़ बढ़ रहे थे। कभी ये कदम बिना नागा अलीगढ़ में मेरे स्कूल की तरफ़ आया करते थे और लोग समझते थे कि वो शायद मास्टरनी हैं। मास्टरनी ही थीं सिर्फ़ औहदा नहीं मिला हुआ था,या कहें मिला ही हुआ था, वो कहते हैं न थानेदार की बीबी थानेदारनी तो मास्टर की पत्नी मास्टरनी हुई न!

हमने कौमार्य की दहलीज पर कदम रखा, पढ़ने का शौक बहुत था और जो हाथ लगता चट्ट कर जाते। एक दिन पिता जी ने हमें गुलशन नंदा का उपन्यास "जय देव" पढ़ते देख लिया। हमें तो कुछ नहीं कहा पर मम्मी से पता नहीं क्या कहा, उस दिन से मम्मी ने उपन्यास तो क्या पत्रिकाएं भी पढ़ना बंद कर दिया। आज हमें उनकी बोरियत का एहसास है। तभी की बात है हम शायद छटी कक्षा में रहे होगें, मम्मी हमें पढ़ा रही थीं और शायद रहीम के दोहे समझाने में असमर्थ रहीं। पापा पास ही बैठे थे, बस आनन फ़ानन में उन्हों ने फ़ैसला लिया कि मम्मी बच्चों की पढ़ाई ठीक से देख सकें इस लिए उन को अपनी पढ़ाई एक बार फ़िर से शुरु कर देनी चाहिए।

मम्मी ने सिर्फ़ इंटर किया हुआ था शादी से पहले। अब पापा के कहने पर कम से कम पंद्रह सालों के अंतराल के बाद उन्हों ने बी ए करने का निश्च्य किया। उस समय तक मेरे दोनों भाई भी उनकी गोद में शोभायमान हो चुके थे और हमें याद है जनवरी की कड़कती ठंड में वो सोफ़े पर बैठी पढ़ रही होती और मेरा छोटा भाई रोता हुआ उनकी गोदी में आ धमकता उनके बिना न सोने की जिद्द करता हुआ। परीक्षा के दिनों में भी आये गये मेहमानों की खातिरदारी करतीं वो पापा के साथ लगभग दौड़ती सी परीक्षा देने जाती और भागती सी वापस आ सीधा चौके में घुस जातीं और फ़िर रात को किताबें उनका इंतजार करती होतीं।

पापा का योगदान इस पूरी प्रक्रिया में ये रहता कि पापा के सहकर्मी दोस्त आ कर मम्मी को थोड़ी गाइडेंस दे जाते और जब तक मम्मी परीक्षा दे रही होती  पापा छोटे भाई को संभालते। हमने पहली बार खाना बनाने का प्रयास उसी समय किया था और मम्मी हमारी बनायी कच्ची पक्की सब्जी को देख कर भी गदगद हो गयी थीं। यह अलग बात है कि खाना तब भी बाहर से मंगाना पड़ा था, आटा गूंधने के प्रयास में हमने कभी पानी ज्यादा और कभी आटा ज्यादा करते करते पूरा डिब्बा जो खाली कर दिया था और पूरे महीने का बजट तो टें बोल गया था। फ़िर भी वो गदगद …ये मां के सिवा कोई और कर सकता है क्या?  

अनिता । कुछ हम कहें

3 comments:

Shastri JC Philip said...

वाह अनीता जी, बेहद सजीव वर्णन है आपका. यह देख कर भी बडा अच्छा लगता है कि परिवारों में एवं माँओं के कार्यों में कितनी समानतायें होती हैं.

-- शास्त्री

-- हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बच्चे तो बच्चे ही रहेंगे, माँ के सामने। चाहे जितने बड़े हो जाएं।

मेरे पिताजी प्रिन्सिपल पद से रिटायर हो गये हैं, लेकिन अभी भी अपनी माँ यानि मेरी दादी जी (मृत्यु-१९७०) को याद करके संजीदा हो जाते हैं।

माँ का सानिध्य बड़ा अनमोल होता है। जिन्हें यह हासिल है उन्हें इसकी हृदय से इज्जत करनी चाहिए।

रंजू भाटिया said...

माँ कितनी प्यारी होती है न ..और कितने बड़े हो जाओ माँ को बच्चे की चिंता हमेशा रहती है ..सुंदर यादे बांटी है आपने