(यह लेख मदर्स डे पर इसी साल 11 मई को लिखा गया और http://thenewsididnotdo.blogspot.com/ पर प्रकाशित हुआ)
मुंबई
11 मई 2008
इतवार की सुबह सबेरे छह बजे उठना हो, तो ऐसा लगता है कि मानो काला पानी की सज़ा भुगतनी पड़ रही है। लेकिन पिछले करीब नौ महीनों से अगर खादिम मोहल्ला की गलियों में आबपाशी नहीं कर पाया, तो इसकी वजह रही एक ऐसा जुनून, जिसमें इंसान सब कुछ भुला देता है। ये जुनून है बड़े परदे पर एक कहानी को उतारने का, और आज अगर मैं मोहल्ले की गलियों में लौटा हूं तो इसलिए नहीं कि फिल्म का तकरीबन सारा काम आज सिरे तक पहुंच गया और निर्माता ने फिल्म को फाइनल मिक्सिंग के बाद बड़े परदे पर देखकर बेइंतेहा खुशी ज़ाहिर की, बल्कि उस फोन की वजह से जो सुबह सुबह बेटे ने दिल्ली से किया। बोला- मां को हैप्पी मदर्स डे बोल दीजिए। अब उसके लिए उसकी मां सबकी मां है, लेकिन ये फोन आते ही मुझे याद आई अपनी मां, जो आज भी रोज़ाना चार घंटे बिजली वाले एक गांव में शाम होते ही छत पर बैठकर पेड़ों की फुनगियों को निहारती है, कि पत्ता हिलेगा तो तन को हवा भी लगेगी।
तीन किलोमीटर रोज़ाना बस्ता लादकर पैदल जब हम छठी में पढ़ने जाते थे, तब भी जून की तपती दोपहर मां ऐसे ही बिताती थी, और आज भी उसकी गर्मियां ऐसे ही बीतती हैं। मांएं सुखी क्यों नहीं रह पातीं ? चिल्ला जाड़े की कड़कड़ाती ठंड में सुबह सुबह बर्फ जैसे ठंडे गोबर को उतने ही ठंडे पानी में मिलाकर अहाता लीपते मां को बचपन में कई बार देखा है। सुबह शाम कुएं से बीस बीस बाल्टी पानी भरने के बाद हाथों में जो ढड्ठे पड़ते थे, उन पर मां ने कई बार मरहम भी लगाया है। कोई पांच हज़ार फिट में फैले पूरे घर को लीपने के बाद पंद्रह लोगों का दो टाइम खाना, दो टाइम नाश्ता बनाने वाली मां ने कुछ तो हसरतें हम लोगों की निकरें धोते हुए पाली होंगी। पर, आज तक वो कभी बेटों ने जानी नहीं। मांएं खुलकर बोल क्यों नहीं पातीं?
हम गांव में ही थे, जब मां बुआ के घर कानपुर गईं थीं और वहां से संतोषी मां की फोटो और शुक्रवार व्रत कथा की किताब लेकर लौटी थीं। फिल्म जय संतोषी मां रिलीज़ होने के बाद पूरे देश में मुझ जैसे तमाम बच्चों से शुक्रवार की इमली छिन गई थी। कभी गलती से स्कूल में शुक्रवार को चाट भी खा ली, तो लगता था कि कुछ ना कुछ अनिष्ट होकर रहेगा। संतोषी माताएं हमारी मांओं जैसी क्यों नहीं होतीं? शायद वो शुक्रवार का दिन ही रहा होगा, जब आले मे रखा मट्ठा नीचे रखी बर्तनों की पेटी पर गिर गया था। मां ने उस दिन पीतल और कांसे के बर्तन बड़े जतन से मांज मांज कर चमकाए थे, और शाम होती ही सारे बर्तन कसैले हो गए। मां की आंखों की किसी कोर में उस दिन आंसू आ गए थे। मांएं इतनी संवेदनशील क्यों होती हैं?
और, मां का वो चेहरा तो सामने आते ही जैसे पूरा संसार जम सा जाता है, जब मां ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए किडनी देने का फैसला किया था। लखनऊ एम्स के गलियारे में जिस तरह हम दोनों भाई, बहन, और पापा मां के सामने बैठे थे, ऐसा लग रहा था, मानो मां को कसाई के हाथों सौंपने जा रहे हैं। तीसरा भाई जिसने अभी ये भी नहीं समझा कि जवानी क्या होती है, शायद पढ़ाई के बोझ के मारे या किसी शुक्रवार को इमली खाने की वजह से आईसीयू में मौत से बख्शीश मांग रहा था। मांएं कसौटी पर बार बार क्यों कसी जाती हैं? मां की कुर्बानी काम ना आ सकी। छोटा भाई घर तो लौटा, लेकिन इस बार भी उसे भगवान के यहां जाने की जल्दी थी। कमबख्त, मेरे मुरादाबाद से लौटने का इंतज़ार भी न कर सका। बस स्ट्रेचर पर बेहोशी की हालत में मिला। मेरा हाथ लगते ही बोला- भाईजी स्कोर क्या हुआ है? क्रिकेट बहुत देखता था वो, उसे क्या पता कि भगवान उसकी गिल्ली कब की उड़ा चुके हैं। मेरा बेटा भी क्रिकेट बहुत खेलता है। छोटे भाई को भगवान ने जिस तारीख को अपने पास बुलाया, उसके ठीक नौ महीने बाद- ना एक दिन आगे ना एक दिन पीछे- इन महाशय ने अपनी दादी की गोद गंदी की। और, अब इतने बड़े हो गए हैं कि फोन करके मदर्स डे याद दिलाते हैं? हम जैसे गांव वालों को माएं मदर्स डे पर याद क्यों नहीं आतीं?
और चलते चलते वो गाना जो मां के लिए हमने बचपन में सीखा था...
तुझको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी..
ऐ मां, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी..
कहा सुना माफ़...
पंकज शुक्ल
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10 comments:
"Maa" ye lekh padha...behad achha laga...aankhen bhar aayeen...sach hai, maa kaa pyar kyon itnaa kasauteepe utara jata hai??Maibhee maa hun...kaash koyee mujhbhee istarah yaad kartaa!!Qismatwaaleen hain wo maa!!
Shastriji, aap mere blogpe aaye hue bohot din ho gaye hain!!Mai ek maakeehi duvidhakee aapbeetee shrinkhala likh rahee hun.
i done it sir ow no verification
regards
प्रिय पंकज,
लेख के लिये आभार!!
हम सब इस तरह सक्रिय रहेंगे तो जल्दी ही माँ इस विषय पर एक आधिकारिक चिट्ठा बन जायगा.
आगे से लेख छापो तो अंत में अपने चिट्ठे का नाम जरूर देना एवं उसे एक सक्रिय कडी बना देना.
सस्नेह
-- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
bachpan aur maa ki yaad diladi.. mujse kafi dur pardesh mai basi hai..
anako mai nami chaa gai...
मांएं खुलकर बोल क्यों नहीं पातीं?
मांएं इतनी संवेदनशील क्यों होती हैं?
हम जैसे गांव वालों को माएं मदर्स डे पर याद क्यों नहीं आतीं?
कोशिश रहे कि ये सवाल पूछने के कारण नहीं रहें।
बेहद सुंदर, भावनाओं से भरा लेख । मांएं होती ही ऐसी हैं तभी तो वे मां हैं ।
मार्मिक लेख , अपने पुत्र के प्रति माँ के प्यार की तड़प...
और कुछ चाहिए हमें मां से...क्या हम भी कुछ दे पाए माँ को ...
माँ इसी तरह की होतीं है ..सब जगह वही दिल वही भाव ..दिल को छू लेने वाला भाव है इस लेख में
दिल को छू गया आपका ये लेख...
मेरी दुनिया है मां...
तेरे आंचल में..
जब उसने हमें दुलारा, पुचकारा, गीले से उठाकर सूखे में सुलाया...वो सबको याद रहे बस..यही विनती है ईश्वर से...
आप सभी के स्नेह का आभार...
कहा सुना माफ़,
- पंकज शुक्ल
http://thenewsididnotdo.blogspot.com/
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