Wednesday, December 31, 2008

ऐ मां तेरी सूरत से अलग …..

image मैं एक विद्यार्थी था जब “ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी” बहुत जनप्रिय हुआ था. पता नहीं किसकी रचना थी, लेकिन इस एक वाक्य ने एक ऐसे तथ्य को समाज के समक्ष रखा था जिसे हम में से अधिकतर लोग जब पहचानने की हालत में पहुंचते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

कारण यह है कि अनादि काल से मातायें किसी भी प्रकार की मांग रखे बिना, अपनी इच्छाओं को मन में ही छिपा कर रख कर, अपने बालबच्चों का पालन पोषण करती आई हैं.

आप किसी सरकारी दफ्तर में चले जाएं तो वहां का सबसे छोटा कर्मचारी भी अपने आप को लाट साहब से कम नहीं समझता. जब तक आप उसकी मनौती एवं इनामकिताब नही कर देते तब तक वह टस से मस नहीं होता अत: हमें उसकी कीमत एवं उसकी ताकत का अनुमान हो जाता है. आप किसी कबाडिया के यहां जाकर कबाड का सबसे निकृष्ट टुकडा उठा लीजिये, लेकिन वह कीमत चुकाने के बाद ही आप घर ले जा सकते है, अत: आपको कबाडिया के “मूलधन” का अनुमान हो जाता है.

समाज के किसी भी कोने की ओर चले जाईये, हर कोई अपनी सेवा के लिये कीमत पहले मांगता है और आधी अधूरी “सेवा” बाद में देता है और उसके साथ यह शर्त लगा देता है कि सेवा “जहां है, जैसी है” के आधार पर ही मिलेगी, चाहिये तो लो, नही तो छोड कर फूट लो. यहां तक कि भिखारी को भी उसके मनोवांछित पैसा न मिले तो वह आपको पैसे वापस दे देता है और कहता है कि यह अपने घरवाली को दे देना, क्योकि इतने पैसे पर तो मेरा कुत्तर भी मुड कर नहीं देखता है.

कुल मिला कर, हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां हर कोई पहले अपनी कीमत, तुष्टि, मन्नतमनौती, मिन्नत देखता है और उसके बाद आधी अधूरी सेवा करता है. लेकिन इस तरह के कृतघ्न समाज में “माँ” कभी भी शर्तें नहीं रखती. वह हमेशा देती है  लेकिन पलट कर मांगती नहीं है. यही कारण है कि हम में से अधिकतर लोग अपने जीवन की सबसे अमूल्य धरोहर का मूल्य तब तक नहीं पहचानते जब तक वह हम को अप्राप्य नहीं हो जाती.

आईये 2009 में हम माँ के महत्व को पहचानने, उसकी सेवा के लिये रास्ते ढूंढने एवं उसके योगदान के छुपे पहलुओं को उजागर करने के लिये इस चिट्ठे का उपयोग करें!!

जो पाठक इस चिट्ठे के साथ जुडना चाहते हैं वे लोग कृपया Admin.Mataashri@gmail.com पर मुझे अपनी रचनायें प्रेषित कर दें. अपना परिचय एवं अपने चिट्ठे का जालपता भी दे दें जिसे आलेख के अंत में जोडा जा सके.

आप सब को 2009 मुबारक हो!

सस्नेह – शास्त्री (सारथी)

Mother and Child by littlemisskool

Thursday, December 25, 2008

मातृत्व

उसके आने के अहसास से
सिहर उठती हूँ
अपने अंश का
एक नए रूप में प्रादुर्भाव
पता नहीं क्या-क्या सोच
पुलकित हो उठती हूँ
उसकी हर हलचल
भर देती है उमंग मुझमें
बुनने लगी हूँ अभी से
उसकी जिन्दगी का ताना-बाना
शायद मातृत्व का अहसास है।

आकांक्षा यादव
w/o कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com

Wednesday, December 24, 2008

माँ छुपा लो ना मुझे अपने ही आँचल में कहीँ


समझ सकती हूँ मैं माँ ..
वोह दिन कितना ख़ास होगा,
जब कुछ लम्हों के इंतज़ार के बाद एक कली की तरह
मैं तुम्हारे दोनो हाथों में पूरी सिमट गयी हूंगी ,
देखकर मेरी नन्ही नन्ही आँखें रोशनी की तरह
तुम्हारी आँखों में भी चमक भर गयी होगी
फिर अपनी चमकती आँखों में ख्वाब लेकर
प्यार से तुमने मेरे माथे को चूमा होगा
तब तुम्हे ख़ुद पे ही बहुत गुरूर हुआ होगा
जब मैने तुम्हे पहली बार माँ कहा होगा

नये ख्वाबों की नयी मंज़िल सामने देख
तुमने हाथ पकड़ कर मुझे चलना सिखाया होगा
मुझे बार बार गिरते देख,
तुम्हारा दिल भी दर से कंपकापाया होगा
और अपने प्यार भरे आँचल में छुपा कर
कई ज़ख़्मो से मुझे बचाया होगा


फिर धीरे धीरे चढी मैने अपनी मंज़िलों की सीढ़ियाँ
और दुनिया की भीड़ में तेरा हाथ मुझसे कहीं छूट गया
तूने फिर भी थाम कर संभालना सिखाया मुझे
अपनी सीखों से दुनियादारी की अच्छी बुरी बातें बताई मुझे
पर मैने हमेशा ही अपनी ज़िद्द से ठुकराया उसे
समझ सकती हूँ आज मैं दिल से कि
मेरी ज़िद्द के आगे तुमने अपने दिल पे पत्थर रखा होगा


पर आज मुझे यक़ीन हो चला है कि माँ तुम सही थी
और अब मैं एक बार फिर-
वापिस तुम्हारे दोनो हाथों में सिमटना चाहती हूँ
तुम्हारे प्यारे आँचल में फिर छिपना चाहती हूँ
तुम्हारे हाथों के सहारे एक बार फिर से अपने
ड़गमागते हुए कदमाओं को संभालना चाहती हूँ


माँ छुपा लो ना मुझे अपने ही आँचल में कहीँ

मेघा भाटिया ...[पुत्री रंजू भाटिया ]

Tuesday, December 16, 2008

माँ का पत्र

घर का दरवाजा खोलता हूँ
नीचे एक पत्र पड़ा है
शायद डाकिया अंदर डाल गया है
उत्सुकता से खोलता हूँ
माँ का पत्र है
एक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
रात को सपने में देखता हूँ
माँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।


कृष्ण कुमार यादव
http://kkyadav.blogspot.com/
kkyadav.y@rediffmail.

Tuesday, December 9, 2008

मासूम स्मृतियाँ





डूब गई पुरानी सजल
मासूम यादों में
जब मैं मात्र साढ़े सात साल की थी
माँ गई थीं यात्रा पर
यात्रा थी बड़ी कठिन
लम्बी और दुरूह
विदाई के समय
भजन और मंगलगीतों से भीगा
पर उदास वातावरण
सहमा घर का आँगन
सूनी घर की पौरी
दादी के मुख से
आशीष की अजस्र धारा
आखों से छलकते अश्रु
भाई-बहिनों की
माँ को निहारतीं
उदास,मौन और सजल आँखें
कह रही थीं
अपनी ही भाषा में कुछ-कुछ
माँ की आँखों ने
पढ़ा हमारे मन को
पास आकर सहलाया,दुलारा
जाते समय माँ ने दिया
मुझे और मेरी बड़ी बहिन को
आठ आने का एक-एक सिक्का
और मेवा से भरा हरे रंग का
टीन का छोटा डिब्बा
मेवा के साथ-साथ
भरा था जिसमें
माँ का प्यार-दुलार
और माँ की अनगिन यादें
एक रेशमी रूमाल
जिसमें बँधा था डिब्बा
उस पर छपा हुआ था
सन् उन्नीस सौ अड़तीस के
बारह महीनों का कलैंडर
डिब्बा और रूमाल
मेरे अनमोल खजाने में
आज भी हैं सुरक्षित
आज भी माँ के शब्द
गूँज रहे हैं कानों में
’ बेटी! जब मन करे
दोनों बहिनें मेवा खा लेना
पैसों से कुछ ले लेना
पर हाँ! दादी को मत बताना
किसी को परेशान भी मत करना
मैं जल्दी ही यात्रा से आ जाऊँगी ‘
उस समय मेरी छोटी बहिन
जो थी मात्र सवा साल की
गई थी माँ के साथ यात्रा पर
जाने के बाद !
कभी लौटकर नहीं आई माँ
उड़ गई हरियल तोते की तरह
क्रूर नियति ने
छीन लिया माँ का दुलार
कर दिया मातृविहीन
आज जब भी आती है
माँ की याद
डबडबाती हैं आँखें
डगमगाते हैं क़दम
लड़खड़ाता है मन तो
माँ के द्वारा दिए गए
मेवा के डिब्बे की हरियाली
कर देती है मन को हरा
और जब भी खोलती हूँ उसे
तो स्मृतियों के बादल
उड़ने लगते हैं मेरे इर्द-गिर्द
वे थपथपाते हैं मुझे
दिखाते हैं राह
जगाते हैं हिम्मत
विषमताओं में जीने की !
जब देखती हूँ रूमाल
तो माँ की मीठी-मीठी यादें
लगती हैं गुदगुदाने
समय की मार झेलते-झेलते
हो गए हैं रूमाल में अनगिन छेद
मैं उन छोटे-छोटॆ छेदों से
नहीं रिसने देती हूँ रेत बनी
अपनी मासूम स्मृतियों को
और पुनः रख लेती हूँ सहेजकर
मन की अलमारी में !

डॉ. मीना अग्रवाल

Saturday, December 6, 2008

तन्हा माँ के सपने....

माँ,
एक शब्द नहीं,
एक भावना है,
मानव के चरणबद्ध विकास,
उसके बढ़ते स्वरुप की अवधारणा है.
माँ,
जो भूलकर अपना अस्तित्व,
संवारती है
मनुष्य का अस्तित्व,
बड़े जतन से,
बड़े ही मन से,
गढ़ती है एक मनुष्य.
माँ,
जिसके किसी भी कृत्य के पीछे,
किसी भी कार्य के पीछे
नहीं छिपा होता स्वार्थ,
नहीं चाहती उसका कोई अर्थ,
बस लगी रहती है,
सवारने में उसे,
जो निर्मित है उसी के रक्त से,
सृजित है उसी के अंश से.

माँ,
अपने सपनों को,
अपने बच्चे के सपनों में मिला कर,
गिनती है एक-एक दिन,
देखती रहती है सपने,
अपने सपने के सच होने सपने,
उस खुशनुमा दिन के सपने,
जब सच होंगे उसके सपने,
उसके बच्चे के सपने.
फ़िर आता है एक वो भी दिन,
जब संवारते लगते हैं सपने,
महकने लगते हैं सपने.

माँ,
इस महकते सपनों के बीच भी,
सच होते सपनों के बीच भी,
रह जाती है अकेली,
रह जाती है तनहा,
क्योंकि उसका सपना,
उसका अपना,
छोड़ कर उसे सपनों की दुनिया में,
चला जाता है
कहीं दूर,
सच करने को अपने सपने.
और माँ,
माँ, अकेले ही रहकर
अपने सपनों के बीच,
दुआएं देती है,
आशीष देती है कि
सच होते रहें उसके बच्चे के सपने,
बच्चे के सपनों में मिले उसके सपने.

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
dr.kumarendra@gmail.com

Thursday, December 4, 2008

मेरा प्यारा सा बच्चा

मेरा प्यारा सा बच्चा
गोद में भर लेती है बच्चे को
चेहरे पर नजर न लगे
माथे पर काजल का टीका लगाती है
कोई बुरी आत्मा न छू सके
बाँहों में ताबीज बाँध देती है।

बच्चा स्कूल जाने लगा है
सुबह से ही माँ जुट जाती है
चैके-बर्तन में
कहीं बेटा भूखा न चला जाये।
लड़कर आता है पड़ोसियों के बच्चों से
माँ के आँचल में छुप जाता है
अब उसे कुछ नहीं हो सकता।

बच्चा बड़ा होता जाता है
माँ मन्नतें माँगती है
देवी-देवताओं से
बेटे के सुनहरे भविष्य की खातिर
बेटा कामयाबी पाता है
माँ भर लेती है उसे बाँहों में
अब बेटा नजरों से दूर हो जायेगा।

फिर एक दिन आता है
शहनाईयाँ गूँज उठती हैं
माँ के कदम आज जमीं पर नहीं
कभी इधर दौड़ती है, कभी उधर
बहू के कदमों का इंतजार है उसे
आशीर्वाद देती है दोनों को
एक नई जिन्दगी की शुरूआत के लिए।

माँ सिखाती है बहू को
परिवार की परम्परायें व संस्कार
बेटे का हाथ बहू के हाथों में रख
बोलती है
बहुत नाजों से पाला है इसे
अब तुम्हें ही देखना है।

माँ की खुशी भरी आँखों से
आँसू की एक गरम बूँद
गिरती है बहू की हथेली पर। 

कृष्ण कुमार यादव                      
भारतीय डाक सेवा  | वरिष्ठ डाक अधीक्षक
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
Kkyadav.y@rediffmail.com