बचपन से ही देखता आ रहा हूँ माँ के आँसू
सुख में भी, दुख में भी
जिनकी कोई कीमत नहीं
मैं अपना जीवन अर्पित करके भी
इनका कर्ज नहीं चुका सकता।
हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये
ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया
लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया
सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा
माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा
शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो
पर यह मेरी भूल थी।
आज मैं सफल व्यक्ति हूँ
सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ
पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने?
माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा
जिसे वह छाती से लगा जी भर कर प्यार कर सके
पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ
माँ का साथ दूर होता जाता है
शायद यही नियम है प्रकृति का।
कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com
Tuesday, January 20, 2009
Monday, January 12, 2009
* फोन की घंटी *
बजी फोन की घंटी
मै एकदम से चौकी
सामने से आवाज़ मैने सुनी
कैसी हो तुम सोनी ???
रोम रोम मेरा जाग उठा
मधुर स्वर से कान गूंज उठा
माँ नज़रो के सामने थी
आंखो मै मेरे नमी सी छा गई
हलक से जैसे आवाज़ छीन गई
मै बहुत ही बढ़िया हू
आसानी से जूठ बोल दिया
भूल गई की सामने माँ थी
मेरे अणु अणु को पहेचानती थी
मेरी जन्मदात्री जो थी
याद कर रही थी ना मुजे??
पता चल गया
तभी तो आज इतनी देर से
मैने तुजे फोन लगाया
जाने कैसे पता चल जाती है
माँ को मेरी हर बात
अब तक ना मिला कोई जवाब
मै एकदम से चौकी
सामने से आवाज़ मैने सुनी
कैसी हो तुम सोनी ???
रोम रोम मेरा जाग उठा
मधुर स्वर से कान गूंज उठा
माँ नज़रो के सामने थी
आंखो मै मेरे नमी सी छा गई
हलक से जैसे आवाज़ छीन गई
मै बहुत ही बढ़िया हू
आसानी से जूठ बोल दिया
भूल गई की सामने माँ थी
मेरे अणु अणु को पहेचानती थी
मेरी जन्मदात्री जो थी
याद कर रही थी ना मुजे??
पता चल गया
तभी तो आज इतनी देर से
मैने तुजे फोन लगाया
जाने कैसे पता चल जाती है
माँ को मेरी हर बात
अब तक ना मिला कोई जवाब
Thursday, January 8, 2009
कुछ नया लिखूँ
बचपन से आज तक की यात्रा
आहिस्ता-आहिस्ता की है पूरी
पर आज भी है मन में
एक आस है अधूरी
नहीं ढाल पाई अपने को
उस आकार में
जैसा माँ चाहती थी
माँ की मीठी यादें
उनके संग बिताए
क्षणों की स्मृतियाँ
आज हो गईं हैं धुँधली
छा गया है धुआँ
विस्मृति का
मन-मस्तिष्क पर छाए
धुएँ को हटाकर
जब झाँकती हूँ अंदर
जब उतरती हूँ
धीरे-धीरे अंतर में
तो माँ की हँसती
मुस्कुराती सलोनी सूरत
देती है प्रेरणा
करती है प्रेरित
कि कुछ नया करूँ
समय की स्लेट पर
भावों के स्वर्णिम अक्षरों से
कुछ नया लिखूँ
पर माँ ! मन के भाव
न जाने क्यों सोए हैं
क्यों नहीं होती झंकृति
रोम-रोम में
क्यों नहीं बजती बाँसुरी
तन-मन में
क्यों नहीं सितार के तार
बजने को होते हैं व्याकुल
क्यों नहीं हाथ
बजाने को होते हैं आकुल
लगता है
तुझसे मिले संस्कार
तन्द्रा में हैं अलसाए
रिसती जा रही हैं स्मृतियाँ
घिसती जा रही है ज़िंदगी
सोते जा रहे हैं भाव
थपथपाऊँगी भावों को
जगाऊँगी उन्हें
और ले जाऊँगी
कल्पना के सागर के उस पार
जहाँ लगाकर डुबकी
लाएँगे ढूँढकर
अनगिनत काव्य-मोती
मोतियों की माला से
सजाऊँगी वैरागी मन
तब होगा नवसृजन
बजेगी चैन की बाँसुरी
पहनकर दर्द के घुँघुरू
नाचेगी जब पीड़ा
ता थेई तत् तत्
शब्दों की ढोलक
देगी थाप
ता किट धा
व्याकुलता की बजेगी
उर में झाँझ
साथ देगी
कल्पना की सारंगी
होगी अनोखी झंकार
मिलेगा आकार
मन के भावों को
माँ ! दो आशीर्वाद
कर सकूँ नवसृजन
और जब आऊँ
तुम्हारे पास
तो तुम्हें पा मुस्कुराऊँ
एक ही संकल्प
बार-बार और क्षण-क्षण
न दोहराऊँ
सभी का प्यार-दुलार
और विश्वास पाऊँ !
- डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, January 4, 2009
परी
बचपन में
माँ रख देती थी चाॅकलेट
तकिये के नीचे
कितना खुश होता
सुबह-सुबह चाॅकलेट देखकर
माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट
मुझे क्या पता था
वो परी कोई और नहीं
माँ ही थी !!!
कृष्ण कुमार यादव
माँ रख देती थी चाॅकलेट
तकिये के नीचे
कितना खुश होता
सुबह-सुबह चाॅकलेट देखकर
माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट
मुझे क्या पता था
वो परी कोई और नहीं
माँ ही थी !!!
कृष्ण कुमार यादव
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