नये ज़माने के रंग में,
पुरानी सी लगती है जो|
aage बढने वालों के बीच,
पिछङी सी लगती है जो|
गिर जाने पर मेरे,
दर्द से सिहर जाती है जो|
चश्मे के पीछे ,आँखें गढाए,
हर चेहरे में मुझे निहारती है जो|
खिङकी के पीछे ,टकटकी लगाए,
मेरा इन्तजार करती है जो|
सुई में धागा डालने के लिये,
हर बार मेरी मनुहार करती है जो|
तवे से उतरे हुए ,गरम फुल्कों में,
जाने कितना स्वाद भर देती है जो|
मुझे परदेस भेज ,अब याद करके,
कभी-कभी पलकें भिगा लेती है जो|
मेरी खुशियों का लवण,
mere जीवन का सार,
मेरी मुस्कुराहटों की मिठास,
merii आशाओं का आधार,
मेरी माँ, हाँ मेरी माँ ही तो है वो|
(मेरा नाम शिल्पा अग्रवाल है | शिक्षा -एम.फिल (अंग्रेजी साहित्य), कभी-कभी कागज़ के पुर्जों पर या इक्कीसवीं सदी के अपने प्रिय मित्र कम्प्यूटरराम को टप-टपा कर अपने चिट्ठे "फुलकारी" (http://shipsag.blogspot.com) पर कविता कह लेती हूँ | फिलहाल प्रवासी भारतीय हूँ, इसलिए अपनेपन की कमी बहुत खलती है यहाँ और हर बात पर अपने देस की याद आ जाती है| )