कितनी कितनी कितनों की ही बिगडी बात बनाती अम्मा
हँसते हँसते होंठों में ही अपनी बात छुपाती अम्मा ।
मेरे तेरे इसके उसके दर्द से होती रुआँसी अम्मा,
हम खा जाते चोट तो फिर, हमको कैसे बहलाती अम्मा ।
रात काटती आँखों में जब होते हम बीमार कभी,
सुबह सवेरे पर उनमें ही सूरज नया उगाती अम्मा ।
भोर अंधेरे उठ जाती और सारे काम सम्हालती अम्मा,
रात अंधेरी जब छा जाती, लोरी खूब सुनाती अम्मा ।
अब अम्मा के हाथ थके और आँखों के सूरज बदराये,
फिर भी तो होटों पे हरदम एक मुस्कान खिलाती अम्मा ।
हम अम्मा के पास रहें या उससे दूर ही क्यूं न रहें,
वह रहती है मन में हरदम, हम सबकी महतारी अम्मा ।
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Friday, August 14, 2009
Saturday, March 7, 2009
एक माँ
ट्रेन के कोने में दुबकी सी वह
उसकी गोद में दुधमुँही बच्ची पड़ी है
न जाने कितनी निगाहें उसे घूर रही हैं,
गोद में पड़ी बच्ची बिलबिला रही है
शायद भूखी है
पर डरती है वह उन निगाहों के बीच
अपने स्तनों को बच्ची के मुँह में लगाने से
वह आँखों के किनारों से झाँकती है
अभी भी लोग उसको सवालिया निगाहों से देख रहे हैं
बच्ची अभी भी रो रही है
आखिर माँ की ममता जाग ही जाती है
वह अपने स्तनों को उसके मुँह से लगा देती है
पलटकर लोगों की आँखों में झाँकती है
इन आँखों में है एक विश्वास, ममत्व
उसे घूर रहे लोग अपनी नजरें हटा लेते हैं
अब उनमें एक माँ की नजरों का सामना
करने की हिम्मत नहीं।
कृष्ण कुमार यादव
उसकी गोद में दुधमुँही बच्ची पड़ी है
न जाने कितनी निगाहें उसे घूर रही हैं,
गोद में पड़ी बच्ची बिलबिला रही है
शायद भूखी है
पर डरती है वह उन निगाहों के बीच
अपने स्तनों को बच्ची के मुँह में लगाने से
वह आँखों के किनारों से झाँकती है
अभी भी लोग उसको सवालिया निगाहों से देख रहे हैं
बच्ची अभी भी रो रही है
आखिर माँ की ममता जाग ही जाती है
वह अपने स्तनों को उसके मुँह से लगा देती है
पलटकर लोगों की आँखों में झाँकती है
इन आँखों में है एक विश्वास, ममत्व
उसे घूर रहे लोग अपनी नजरें हटा लेते हैं
अब उनमें एक माँ की नजरों का सामना
करने की हिम्मत नहीं।
कृष्ण कुमार यादव
Tuesday, January 20, 2009
माँ के आँसू
बचपन से ही देखता आ रहा हूँ माँ के आँसू
सुख में भी, दुख में भी
जिनकी कोई कीमत नहीं
मैं अपना जीवन अर्पित करके भी
इनका कर्ज नहीं चुका सकता।
हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये
ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया
लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया
सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा
माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा
शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो
पर यह मेरी भूल थी।
आज मैं सफल व्यक्ति हूँ
सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ
पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने?
माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा
जिसे वह छाती से लगा जी भर कर प्यार कर सके
पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ
माँ का साथ दूर होता जाता है
शायद यही नियम है प्रकृति का।
कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com
सुख में भी, दुख में भी
जिनकी कोई कीमत नहीं
मैं अपना जीवन अर्पित करके भी
इनका कर्ज नहीं चुका सकता।
हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये
ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया
लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया
सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा
माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा
शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो
पर यह मेरी भूल थी।
आज मैं सफल व्यक्ति हूँ
सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ
पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने?
माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा
जिसे वह छाती से लगा जी भर कर प्यार कर सके
पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ
माँ का साथ दूर होता जाता है
शायद यही नियम है प्रकृति का।
कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com
Sunday, January 4, 2009
परी
बचपन में
माँ रख देती थी चाॅकलेट
तकिये के नीचे
कितना खुश होता
सुबह-सुबह चाॅकलेट देखकर
माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट
मुझे क्या पता था
वो परी कोई और नहीं
माँ ही थी !!!
कृष्ण कुमार यादव
माँ रख देती थी चाॅकलेट
तकिये के नीचे
कितना खुश होता
सुबह-सुबह चाॅकलेट देखकर
माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट
मुझे क्या पता था
वो परी कोई और नहीं
माँ ही थी !!!
कृष्ण कुमार यादव
Thursday, December 25, 2008
मातृत्व
उसके आने के अहसास से
सिहर उठती हूँ
अपने अंश का
एक नए रूप में प्रादुर्भाव
पता नहीं क्या-क्या सोच
पुलकित हो उठती हूँ
उसकी हर हलचल
भर देती है उमंग मुझमें
बुनने लगी हूँ अभी से
उसकी जिन्दगी का ताना-बाना
शायद मातृत्व का अहसास है।
आकांक्षा यादव
w/o कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com
सिहर उठती हूँ
अपने अंश का
एक नए रूप में प्रादुर्भाव
पता नहीं क्या-क्या सोच
पुलकित हो उठती हूँ
उसकी हर हलचल
भर देती है उमंग मुझमें
बुनने लगी हूँ अभी से
उसकी जिन्दगी का ताना-बाना
शायद मातृत्व का अहसास है।
आकांक्षा यादव
w/o कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com
Tuesday, December 16, 2008
माँ का पत्र
घर का दरवाजा खोलता हूँ
नीचे एक पत्र पड़ा है
शायद डाकिया अंदर डाल गया है
उत्सुकता से खोलता हूँ
माँ का पत्र है
एक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
रात को सपने में देखता हूँ
माँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।
कृष्ण कुमार यादव
http://kkyadav.blogspot.com/
kkyadav.y@rediffmail.
नीचे एक पत्र पड़ा है
शायद डाकिया अंदर डाल गया है
उत्सुकता से खोलता हूँ
माँ का पत्र है
एक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
रात को सपने में देखता हूँ
माँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।
कृष्ण कुमार यादव
http://kkyadav.blogspot.com/
kkyadav.y@rediffmail.
Thursday, November 6, 2008
तुम सुन रही हो न माँ ।
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है शिक्षक
रोटी बेलते बेलते केवल अक्षर और अंक ही नही
और भी बहुत कुछ पढाती है
यह करो वह नही, कहते कहते संस्कारित करती है
दंड भी देती है कई बार कठोर
हमारी हर गतिविधि पर होती है उसकी पैनी नजर
और हमारी सुरक्षा सर्वोपरि
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है रक्षक
सिखाती है इस दुनिया में रहने और जीने के तरीके
दुनिया में हमेशा धोका समझ कर चलो
भरोसा मत करो जाने पहचाने का भी,
अनजान का तो बिलकुल भी नही
य़हाँ वहाँ अकेले बिना जरूरत न जाना
कितनी बुरी लगती थी तब उसकी यह टोका टाकी
अब पता चलता है कितनी सही थी माँ
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है परीक्षक
उसकी सिखाई बातों को हमने कितना आत्मसात किया
यह जाने बिना उसे चैन कहाँ
हलवा बनाओ, बर्तन चमकाओ
सवाल करो,जवाब तलाशो, कविता सुनाओ
हजार चीजें ।
माँ होती है परिचारिका भी
और कभी कभी डॉक्टर
बुखार में कभी भी आँख खुले माँ हमेशा सिरहाने
माथे पर पट्टियाँ रखते हुए
छोटे मोटे बुखार, सर्दी जुकाम तो वह
अपने अद्रक वाली बर्फी या काढे से ही ठीक कर देती
तब माँ कितनी अच्छी लगती
आज जब सिर्फ उसकी याद ही बाकी है
उसकी महत्ता समझ आ रही है ।
तुम सुन रही हो न माँ ?
वह होती है शिक्षक
रोटी बेलते बेलते केवल अक्षर और अंक ही नही
और भी बहुत कुछ पढाती है
यह करो वह नही, कहते कहते संस्कारित करती है
दंड भी देती है कई बार कठोर
हमारी हर गतिविधि पर होती है उसकी पैनी नजर
और हमारी सुरक्षा सर्वोपरि
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है रक्षक
सिखाती है इस दुनिया में रहने और जीने के तरीके
दुनिया में हमेशा धोका समझ कर चलो
भरोसा मत करो जाने पहचाने का भी,
अनजान का तो बिलकुल भी नही
य़हाँ वहाँ अकेले बिना जरूरत न जाना
कितनी बुरी लगती थी तब उसकी यह टोका टाकी
अब पता चलता है कितनी सही थी माँ
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है परीक्षक
उसकी सिखाई बातों को हमने कितना आत्मसात किया
यह जाने बिना उसे चैन कहाँ
हलवा बनाओ, बर्तन चमकाओ
सवाल करो,जवाब तलाशो, कविता सुनाओ
हजार चीजें ।
माँ होती है परिचारिका भी
और कभी कभी डॉक्टर
बुखार में कभी भी आँख खुले माँ हमेशा सिरहाने
माथे पर पट्टियाँ रखते हुए
छोटे मोटे बुखार, सर्दी जुकाम तो वह
अपने अद्रक वाली बर्फी या काढे से ही ठीक कर देती
तब माँ कितनी अच्छी लगती
आज जब सिर्फ उसकी याद ही बाकी है
उसकी महत्ता समझ आ रही है ।
तुम सुन रही हो न माँ ?
Wednesday, October 29, 2008
माँ के ख़त

माँ ..
दीवाली के रोशन दीयों की तरह
मैंने तुम्हारी हर याद को
अपने ह्रदय के हर कोने में
संजों रखा है
आज भी सुरक्षित है
मेरे पास तुम्हारा लिखा
वह हर लफ्ज़
जो खतों के रूप में
कभी तुमने मुझे भेजा था
आशीर्वाद के
यह अनमोल मोती
आज भी मेरे जीवन के
दुर्गम पथ को
राह दिखाते हैं
आज भी रोशनी से यह
जगमगाते आखर और
नसीहत देती
तुम्हारी वह उक्तियाँ
मेरे पथ प्रदर्शक बन जाते हैं
और तुम्हारे साथ -साथ
चलने का
एक मीठा सा एहसास
मुझ में भर देते हैं ..
रंजना [रंजू ] भाटिया
दीवाली के रोशन दीयों की तरह
मैंने तुम्हारी हर याद को
अपने ह्रदय के हर कोने में
संजों रखा है
आज भी सुरक्षित है
मेरे पास तुम्हारा लिखा
वह हर लफ्ज़
जो खतों के रूप में
कभी तुमने मुझे भेजा था
आशीर्वाद के
यह अनमोल मोती
आज भी मेरे जीवन के
दुर्गम पथ को
राह दिखाते हैं
आज भी रोशनी से यह
जगमगाते आखर और
नसीहत देती
तुम्हारी वह उक्तियाँ
मेरे पथ प्रदर्शक बन जाते हैं
और तुम्हारे साथ -साथ
चलने का
एक मीठा सा एहसास
मुझ में भर देते हैं ..
रंजना [रंजू ] भाटिया
Tuesday, October 7, 2008
माँ दुर्गा की पूजा का तिहवार भला है...!!
माँ दुर्गा की पूजा का तिहवार भला है।
घर-घर में पूजा-अर्चन का दीप जला है॥
बच्चों के स्कूल बन्द, सब खिले हुए हैं।
छुट्टी औ मेला, माँ का उपहार मिला है॥
माँ की उंगली पकड़ चले माँ के मन्दिर को।
कुछ ने राह पकड़ ली नानीजी के घर को॥
गाँवों में मेला - दंगल पर दाँव चला है।
रावण का पुतला भी इसमें खूब जला है॥
मुझको भी वह दुर्लभ छाँव दिलाती माता।
शहर छोड़कर माँ के चरणों से मिल पाता॥
ममता के आँचल से लेकर मन की ऊर्जा।
नयी राह पर बढ़ने को ‘सिद्धार्थ’ चला है॥
माँ दुर्गा की पूजा का तिहवार भला है।
घर-घर में पूजा-अर्चन का दीप जला है॥
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
Thursday, September 25, 2008
माँ
कैसी होती है माँ ?
धरती सी सहनशील
सागर सी गुरु-ह्रदय
सूरज सी कार्यरत
बादल सी करुणामय
ईश्वर सी प्रेममयी
साक्षात माया ममता
ऐसी होती है माँ ।
ममता की मृदु छाया
संतानों पे धरती
जीवन की तपिश से
भरसक रक्षा करती
खुद भूखे रहती पर
सब को खाना देती
तन,मन,धन, सारा
न्योछावर कर देती
ऐसी होती है माँ ।
माँ का सम्मान करें
आदर अभिमान धरें
आहत वो हो जाये
ना ऐसी बात करें
थकी हारी देह को
थोडा विश्राम भी दें
हँसी उसे आजाये
कुछ ऐसी बात करें
कितनी है प्यारी माँ
जग से है न्यारी माँ
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धरती सी सहनशील
सागर सी गुरु-ह्रदय
सूरज सी कार्यरत
बादल सी करुणामय
ईश्वर सी प्रेममयी
साक्षात माया ममता
ऐसी होती है माँ ।
ममता की मृदु छाया
संतानों पे धरती
जीवन की तपिश से
भरसक रक्षा करती
खुद भूखे रहती पर
सब को खाना देती
तन,मन,धन, सारा
न्योछावर कर देती
ऐसी होती है माँ ।
माँ का सम्मान करें
आदर अभिमान धरें
आहत वो हो जाये
ना ऐसी बात करें
थकी हारी देह को
थोडा विश्राम भी दें
हँसी उसे आजाये
कुछ ऐसी बात करें
कितनी है प्यारी माँ
जग से है न्यारी माँ
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