Showing posts with label के.के. यादव. Show all posts
Showing posts with label के.के. यादव. Show all posts

Thursday, April 22, 2010

प्रलय का इंतजार

आज की यह पोस्ट माँ पर, पर वो माँ जो हर किसी की है। जो सभी को बहुत कुछ देती है, पर कभी कुछ माँगती नहीं. पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उसका ही शोषण करने लगते हैं. जी हाँ, यह हमारी धरती माँ है. हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर धरती माँ की नहीं. यदि धरती ही ना रहे तो क्या होगा॥कुछ नहीं. ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद हम नित उसी धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. हम जिसकी छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. सौभाग्य से आज विश्व पृथ्वी दिवस है. लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पृथ्वी दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने परिवेश को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.

आज आफिस के लिए निकला तो बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा आपको पता है आज विश्व पृथ्वी दिवस है। आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें पेड़-पौधों की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए. पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है. पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे.
अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं. आखिर हम बच्चों में धरती और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से धरा का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-माँ-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरिना चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ..क्या ये प्रलय नहीं है. गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा धरती माँ कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा !!

Sunday, March 28, 2010

मम्मी मेरी सबसे प्यारी

मम्मी मेरी सबसे प्यारी,
मैं मम्मी की राजदुलारी।

मम्मी प्यार खूब जताती,

अच्छी-अच्छी चीजें लाती।


करती जब मैं खूब धमाल,

तब मम्मी खींचे मेरे कान।

मम्मी से हो जाती गुस्सा,

पहुँच जाती पापा के पास।


पीछे-पीछे तब मम्मी आती,

चाॅकलेट देकर मुझे मनाती।

थपकी देकर लोरी सुनाती,

मम्मी की गोद में मैं सो जाती।


Wednesday, July 8, 2009

'एक माँ' कविता गजरौला टाइम्स में

27 जून 2009 को साप्ताहिक ''गजरौला टाइम्स'' के स्तंभ 'ब्लॉग टाइम्स' में 'माँ' ब्लॉग पर प्रकाशित कृष्ण कुमार यादव की कविता एक माँ का प्रकाशन !!

Sunday, June 21, 2009

एक पोस्ट पिता के लिए भी (फादर्स-डे पर)

आज फादर्स डे है। माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं. इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है. माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति प्रेम का इज़हार कई तरीकों से किया जाता है, पर बेटों-बेटियों द्वारा पिता के प्रति इज़हार का यह दिवस अनूठा है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि स्त्री-शक्ति का एहसास करने हेतु तमाम त्यौहार और दिन आरंभ हुए पर पित्र-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे की कल्पना अजीब जरुर लगती है.पाश्चात्य देशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ पर फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है. पर भारत में कही इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से छुटकारा तो नहीं चाहते हैं. इस पर भी विचार करने की जरुरत है. जरुरत फादर्स-डे की अच्छी बातों को अपनाने की है, न कि पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में उसे अपनाने की जरुरत है.

माना जाता है कि फादर्स डे सर्वप्रथम 19 जून 1910 को वाशिंगटन में मनाया गया। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। सोनेरा डोड जब नन्हीं सी थी, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में माँ की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे माँ का भी प्यार दिया। एक दिन यूँ ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? ....इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने फादर्स डे पर अपनी सहमति दी। फिर 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की।1972 में अमेरिका में फादर्स डे पर स्थायी अवकाश घोषित हुआ। फ़िलहाल पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है।भारत में भी धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है.इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य में भी.
आकांक्षा यादव
C/o कृष्ण कुमार यादव

Sunday, May 10, 2009

मदर्स डे पर शुभकामनायें !!

मातृत्व नहीं है सिंहासन,
मातृत्व नहीं है राजतन्त्र !
वह है जीवन की उर्जा के,
अक्षय बीजों का बीजमंत्र !!
_______________________________________
मदर्स डे पर आप सभी को शुभकामनायें। यदि आप माँ के साथ हैं तो उनका दिल ना दुखाएं और यदि माँ से भौतिक रूप से दूर हैं तो आज का दिन माँ को समर्पित कर दें। एक बार फिर से बच्चे बन कर देखिये.....माँ के नाजुक हाथों का स्पर्श स्वमेव अपने ऊपर आशीर्वाद के रूप में पाएंगे !!!

कृष्ण कुमार यादव
www.kkyadav.blogspot.com

Thursday, April 9, 2009

माँ का मर्म (लघु कथा)

"बधाई हो! घर में लक्ष्मी आई है", कहते हुए नन्हीं सी बिटिया को दादी की गोद में देते हुए नर्स बोली। "हुँह..... क्या खाक बधाई। पहली ही बहू के पहली संतान वो भी लड़की हुई और वो भी सिजेरियन......" कहते हुए उन्होंने मुँह फेर लिया और उस नन्हीं सी जान पर स्नेह की एक बूँद भी बरसाने की जरूरत नहीं समझी प्रीती की सासू माँ ने। जल्द ही अपनी गोद हल्की करते हुए बच्ची को बढ़ा दिया अपने बेटे की गोद में। रवि को तो जैसे सारा जहाँ मिल गया अपने अंश को अपने सामने पाकर। पिछले नौ महीने कितनी कल्पनाओं के साथ एक-एक पल रोमांच के साथ बिताया था प्रीती और रवि ने। खुशी के आँसू की दो बूँदें टपक पड़ी उस नन्ही सी बिटिया पर।

कुछ दिनों के अंतराल पर अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जब घर जाने की तैयारी हुई तो प्रीती फूली न समा रही थी। पिछले नौ महीनों से जिस घड़ी की इंतजार वह कर रही थी, आज आ ही गई। अपनी गोद भरी हुई पाकर जब प्रीति ने घर में प्रवेश किया तो मारे खुशी के उसके आँसू बहने लगे। वह इस खुशी के पल को संभालने की कोशिश करने लगी। हँसते-खेलते ग्यारह दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। लेकिन सासू माँ का मुँह टेढ़ा ही बना रहा। प्रीति चाहती थी कि दादी का प्यार उस नन्हीं सी जान को मिले, लेकिन उसकी ऐसी किस्मत कहाँ ?

खैर, जब बारहवें दिन बरही-रस्म की बात आयी तो सासू माँ को जैसे सब कुछ सुनाने का अवसर मिल गया और इतने दिन का गुबार उन्होंने एक पल में ही निकाल लिया...... "कैसी बरही, किसकी बरही, बिटिया ही तो जन्मी है। हमारे यहाँ बिटिया के जन्म पर कोई रस्म-रिवाज नहीं होता.... कौन सी खुशी है जो मैं ढोल बजाऊँ, सबको मिठाई खिलाऊँ.... कितनी बार कहा था जाँच करा लो, लेकिन नहीं माने तुम सब। लो अब भुगतो, मुझे नहीं मनाना कोई रस्म-रिवाज......।

सासू माँ की ऐसी बात सुनकर प्रीति का दिल भर आया। रूँधे हुए गले से बोली, "सासू माँ! आज अगर यह बेटी मेरी गोद में नहीं होती तो कुछ दिन बाद आप ही मुझे बाँझ कहती और हो सकता तो अपने बेटे को दूसरी शादी के लिए भी कहती जो शायद आपको दादी बना सके, लेकिन आज इसी लड़की की वजह से मैं माँ बन सकी हूँ। यह शब्द एक लड़की के जीवन में क्या मायने रखता हैं, यह आप भी अच्छी तरह जानती हैं। आप उस बाँझ के या उस औरत के दर्द को नहीं समझ सकेंगी, जिसका बच्चा या बच्ची पैदा होते ही मर जाते हैं। ये तो ईश्वर की दया है सासू माँ, कि मुझे वह दिन नहीं देखना पड़ा। आपको तो खुश होना चाहिए कि आप दादी बन चुकी हैं, फिर चाहे वह एक लड़की की ही। आप तो खुद ही एक नारी हैं और लड़की के जन्म होने पर ऐसे बोल रही हैं। कम से कम आपके मुँह से ऐसे शब्द नहीं शोभा देते, सासू माँ!" इतना कहते ही इतनी देर से रोके हुए आँसुओं को और नहीं रोक सकी प्रीती।

प्रीती की बातों ने सासू माँ को नयी दृष्टि दी और उन्हें उसनी बातों का मर्म समझ में आ गया था। उन्होंने तुरन्त ही बहू प्रीती की गोद से उस नन्हीं सी बच्ची को गोद में ले लिया और अपनी सम्पूर्ण ममता उस पर न्यौछावर कर उसको आलिंगन में भर लिया।शायद उन्होंने इस सत्य को स्वीकार लिया कि लड़की भी तो ईश्वर की ही सृष्टि है। जहाँ पर नवरात्र के पर्व पर कुँवारी कन्याओं को खिलाने की लोग तमन्ना पालते हैं, जहाँ दुर्गा, लक्ष्मी, काली इत्यादि देवियों की पूजा होती है, वहाँ हम मनुष्य ये निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि हमें सिर्फ लड़का चाहिए, लड़की नहीं।

आकांक्षा यादव
w/o कृष्ण कुमार यादव kkyadav.y@rediffmail.com

Saturday, March 7, 2009

एक माँ

ट्रेन के कोने में दुबकी सी वह
उसकी गोद में दुधमुँही बच्ची पड़ी है
न जाने कितनी निगाहें उसे घूर रही हैं,
गोद में पड़ी बच्ची बिलबिला रही है
शायद भूखी है
पर डरती है वह उन निगाहों के बीच
अपने स्तनों को बच्ची के मुँह में लगाने से
वह आँखों के किनारों से झाँकती है
अभी भी लोग उसको सवालिया निगाहों से देख रहे हैं
बच्ची अभी भी रो रही है
आखिर माँ की ममता जाग ही जाती है
वह अपने स्तनों को उसके मुँह से लगा देती है
पलटकर लोगों की आँखों में झाँकती है
इन आँखों में है एक विश्वास, ममत्व
उसे घूर रहे लोग अपनी नजरें हटा लेते हैं
अब उनमें एक माँ की नजरों का सामना
करने की हिम्मत नहीं।

कृष्ण कुमार यादव

Tuesday, January 20, 2009

माँ के आँसू

बचपन से ही देखता आ रहा हूँ माँ के आँसू
सुख में भी, दुख में भी
जिनकी कोई कीमत नहीं
मैं अपना जीवन अर्पित करके भी
इनका कर्ज नहीं चुका सकता।

हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये
ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया
लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया
सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा
माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा
शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो
पर यह मेरी भूल थी।

आज मैं सफल व्यक्ति हूँ
सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ
पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने?
माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा
जिसे वह छाती से लगा जी भर कर प्यार कर सके
पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ
माँ का साथ दूर होता जाता है
शायद यही नियम है प्रकृति का।
कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com

Sunday, January 4, 2009

परी

बचपन में
माँ रख देती थी चाॅकलेट
तकिये के नीचे
कितना खुश होता
सुबह-सुबह चाॅकलेट देखकर
माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट
मुझे क्या पता था
वो परी कोई और नहीं
माँ ही थी !!!

कृष्ण कुमार यादव

Thursday, December 25, 2008

मातृत्व

उसके आने के अहसास से
सिहर उठती हूँ
अपने अंश का
एक नए रूप में प्रादुर्भाव
पता नहीं क्या-क्या सोच
पुलकित हो उठती हूँ
उसकी हर हलचल
भर देती है उमंग मुझमें
बुनने लगी हूँ अभी से
उसकी जिन्दगी का ताना-बाना
शायद मातृत्व का अहसास है।

आकांक्षा यादव
w/o कृष्ण कुमार यादव
kkyadav.y@rediffmail.com

Tuesday, December 16, 2008

माँ का पत्र

घर का दरवाजा खोलता हूँ
नीचे एक पत्र पड़ा है
शायद डाकिया अंदर डाल गया है
उत्सुकता से खोलता हूँ
माँ का पत्र है
एक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
रात को सपने में देखता हूँ
माँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।


कृष्ण कुमार यादव
http://kkyadav.blogspot.com/
kkyadav.y@rediffmail.