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Wednesday, February 25, 2009

माँ तुझे सलाम... (राज सिंह जी की पोस्ट)

[दोस्तों,
कुछ तकनीकी कारणों से राज जी की यह पोस्ट प्रकाशित नहीं हो पा रही थी। मैंने इसे दुबारा प्रकाशित करने का प्रयास किया है। लीजिए माँ के लिए राज जी की सलामी: ]

माँ !
जय हो !
तेरी संतानों ........तेरे बच्चों ने ,कला की दुनियाँ में तेरा नाम आसमानों पे लिख दिया ! दुनियाँ भर में सिर्फ़ तेरी ही जय हो रही है ! जय हो माता तेरी जय हो !
लेकिन तेरी ' आन ,बान ,शान, मान ' से से बढ़ कर क्या हो सकता है कोई भी सन्मान ? हो सकता है ?? तेरे बेटे ' रहमान 'ने तो कह भी दिया ..........कहा " मेरे पास माँ है ...........!
सच्चा बेटा तेरा ! सच्चा हिन्दोस्तानी ! और उसने तो न जाने कितने पहले गाकर गुंजाभी दिया था ..................
माँ तुझे सलाम .................! अम्मा तुझे सलाम ................! वंदे मातरम ........!
पूरे देश ने झूम के गाया था उसे उसके साथ । मैंने भी बड़े आनंद मन से गया था माते !
और आज, उसकी उस शानदार ऊँचाई को मेरा छोटा सा सलाम ...........तेरे नाम !
_____________________________________________________________________
जय हो.........जय हो..............जय हो !
जननी मेरी .................. तेरी जय हो !
माता मेरी ....................तेरी जय हो !

तेरी गोद रहे ................आँगन मेरा !
आँचल हो तेरा ............चाहत मेरी !
ममता से भरी ............आँखें तेरी,
माँ सब कुछ है ..............वरदान तेरा !
सौभाग्य मेरा .........अरमान मेरा !
सम्मान मेरा ।
काबा मेरी ......काशी मेरी ..........
ईमान मेरा ............भगवान् मेरा !
जय हो ..........जय हो .......जय ,जय ,जय , जय , जय , जय , हो !
बस माँ मेरी तेरी जय हो .......तेरी जय हो .........तेरी जय हो !


तेरी सेवा ................अनहद नाद रहे
बस तू ही तूही .........याद रहे !
आनंद रहे ..........उन्माद रहे !
हम मिट जायें .........की रहे न रहें ।
बस तेरे सर पे .............ताज रहे ।
तेरे दामन में .........आबाद हैं हम ,
तो फ़िर कैसी......... फरियाद रहे ?
दुनियाँ देखे ............देखे दुनियाँ ...............ऐसी जय हो ...ऐसी जय हो
जय हो.....जय हो ! ................जय ही जय हो !

आई मेरी ..............माई मेरी !
जननी मेरी .........माता मेरी !
भारतमाता ..........माय मदर इंडिया
माय मदर इंडिया ...........भारतमाता !

जय हो .......तेरी.तेरी जय हो .........तेरी जय हो .....................जय हो !

_______________________________________________________
इस गीत का sangeet संयोजन भी मैंने किया है और mumbai में इसी की recording में vyast हूँ । आशा है कुछ दिनों में chitra sangeet mudran के बाद हम सब को देखने sunane का भी आनंद भी प्राप्त होगा .आशा है सब को आनंद मिलेगा .यह कृति rahman को समर्पित की jayegee । चल chitra जगत के सहयोग तथा saujanya को भी dhanyavaad !

posted by RAJ SINH at 9:17 PM on Feb 24, 2009

[प्रकाशन न हो पाने के बावजूद निम्न टिप्पणियाँ ब्लॉगर ने सहेज रखी थीं। उन्हें अविकल प्रस्तुत करता हूँ- सिद्धार्थ]

Blogger RAJ SINH said...

priya shastree jee,

kai bar koshish kar chuka . sheersak ke alawa sab gayab najar aa raha hai . sujhav den ya aap hee prayas karen prakashan ka .

chama karen ,arse baad yaad kiya maa ko.

thoda path vichlit aur uddeshya vichlit ho gaya tha .

February 25, 2009 1:41 PM
Blogger P.N. Subramanian said...

माँ की महत्ता है. क्षमा याचना करें. माँ है. सब ठीक हो जायेगा.

February 25, 2009 2:28 PM
Blogger नीरज गोस्वामी said...

राज साहेब ...विलक्षण रचना है ये आपकी...रहमान जी को एक सही भावांजलि है आपकी और हम सब की और से...हम सब आभारी हैं उनके जिन्होंने देश का नाम पूरे विश्व में रोशन कर दिया...
इसे संगीत बद्ध किये हुए सुनने के लिए बेताब हैं हम
नीरज

February 25, 2009 7:13 PM
Blogger Harkirat Haqeer said...

Raj ji. vilchan rachna mujhe bhi choti badi lino k siva kuch nazar nahi aaya ...chsma lga kr bhi dekha... ab aap hi sngka ka samidhan karen...!!

February 25, 2009 8:07 PM

Saturday, October 25, 2008

जीवन दायिनी, शक्तिदायिनी माँ


मै और मेरी माँ


आज धन-तेरस है, मेरी माँ का जन्म-दिवस, कहते है धन-तेरस के दिन सोना, चाँदी, रत्न आदि की खरीदारी को श्रेष्ठ माना जाता है, मेरी माँ भी एक रत्न के रूप में मेरे नाना को धन-तेरस के दिन प्राप्त हुई थी। माता-पिता की लाडली सन्तान होने के साथ-साथ मेरी माँ चार भाईयों की इकलौती बहन भी थी, नाना बड़े प्यार से उन्हे संतोष कहकर पुकारा करते थे, जैसा नाम वैसा ही गुण, खूबसूरत होने के साथ-साथ कोयली सी मीठी बोली सबको लुभाती थी।

नाना-नानी और चार भाईयों के प्यार में माँ पल कर बड़ी हुई। नटखट हिरनी सी यहाँ-वहाँ कुलाँचे भरती माँ सभी के मन को मोह लेती थी, तभी तो दादा जी उन्हे देख पोते की बहू बनाने को लालायित हो उठे थे। छोटी सी उम्र में माँ नाना का घर छोड़ एक अन्जान शहर में आ गई। लाड़ प्यार से पली माँ एक घर की बहू बन बैठी और वो भी घर की बड़ी बहू। घर में सब माँ को पाकर बहुत खुश थे। एक-एक कर मेरी दो बहन और भाई का जन्म हुआ, फ़िर मै पैदा हुई, समय जैसे पंख लगा उड़ता रहा। घर में खुशियाँ ही खुशियाँ लहरा रही थी, मेरे पिता की मै ही छोटी और लाडली बेटी थी, तभी मुझे पता चला मुझसे छोटा भी कोई आने वाला है, मेरे दादा-दादी एक बेटे की आस लगाये माँ का चेहरा निहारते रहते, हम सब की खुशी का पारावार न रहा जब मेरे छोटे भाई ने जन्म लिया।

रोमांच और खुशी से सारा घर नाच उठा मगर तभी सब पर बिजली सी गिरी एक दुर्घटना में मेरे पिता की दोनो आँखे चली गई। हम पर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। स्वाभिमान से जीने वाले मेरे पिता को हर काम के लिये किसी न किसी का सहारा लेना पड़ता था। कमाई का कोई साधन न था। किसी तरह चाचा के भेजे हुऎ पैसे ही घर की गुजर-बसर के काम आते थे। मैने अपनी माँ को पल्लू से मुँह छिपा कर कई बार रोते देखा था। नाना, मामा आ-आकर माँ को वापिस चलने के लिये कहते थे। नाना कहते थे संतोष इनके बच्चों को छोड़ और चल हमारे साथ, क्या सारी जिंदगी एक अंधे के साथ बितायेगी? अभी तेरी उम्र ही क्या है, हम तेरी दूसरी शादी कर देंगें, दर असल माँ उस समय सिर्फ़ सत्ताईस साल की थी। और उनके आगे पूरी जिंदगी पहाड़ सी खड़ी थी।

लेकिन माँ ने हिम्मत न हारी और अपने पिता को यह कह कर लौटा दिया कि यह हादसा अगर मेरे साथ या आपके अपने बेटे के साथ हो जाता तब भी क्या आप यही सलाह देते? नाना जी बेटी के सवाल का जवाब न दे पायें और उन्हे इश्वर के हवाले कर चले गये। ऎसा नही की माँ उस समय डरी नही, माँ बहुत डरी-सहमी सी रहती थी, परन्तु उन्हे मजबूत बनाने में मेरी दादी ने पूरी मदद की थी । दादी की हर डाँट-फ़टकार को माँ एक सबक की तरह लिया करती थी। पिता का नेत्रहीन होना अब उन्हे खलता नही क्योंकि पिता ने भी अपना हर काम खुद करना सीख लिया था, अब घर की कमान सम्भाली माँ के मजबूत हाथों नें। घर में ही रह कर उन्होने कपड़े सीलने, स्वेटर बनाने का काम शुरू कर दिया था। हम सब भाई-बहनों ने पढ़ाई के साथ-साथ घर का काम आपस में बाँट लिया था। मेरे पिता ने भी विपरीत परिस्थितियों में धैर्य नही खोया। माँ का हाथ बटाने की उन्होने भरसक कोशिश की।

मुझे आज भी याद है ठण्डी रोटी को गुड़ के साथ चूर कर वो हमारे लिये लड्डू बनाया करते थे। जिसे खाकर हम भाई बहन स्कूल जाया करते थे। दुनियां भर की तकलीफ़ों, रूकावटों के बावजूद माँ और बाबा ने हिम्मत नही हारी और हमें खूब पढ़ाया। इस काबिल बनाया की हम अपनी जिंदगी खुशी से बिता सकें। खुद अभावों में रहकर भी हमारे लिये सुख की कामना करने वाली वो माँ आज बहुत खुश है क्योंकि उसके दोनो बेटे आज ऊँची-ऊँची पोस्ट पर है और वो बेटियाँ जो हर पल उनकी आँखों में उम्मीद बन कर रहती थी। उनकी आँखों की रोशनी बन गई हैं।

आज भी जब कोई मुझे कहता है कि मुझमें बहुत आत्मविश्वास है, मै अपने पीछे माँ को खड़ा महसूस करती हूँ। पहले पढ़ा करते थे, अकबर और शिवाजी की तरह धरती माँ के न जाने कितने वीर-विरांगनाएं हैं जिन्हे माँ से संबल मिला है। मुझे भी मेरी माँ से ही विषम परिस्थितियों का डट कर सामना करने की प्रेरणा मिली है। माँ ने ही बताया कि कठीन परिश्रम, रिश्तों में इमानदारी बड़े से बड़े खतरों से भी हमें उबार लेती हैं। किसी रिश्ते को तोड़ना जितना आसान है निभाना उतना ही मुश्किल। माँ का होना जीवन में हर दिन धन तेरस सा लगता है। माँ वो नायाब रत्न है जिसे संजो कर वर्षों से मैने अपने दिल में सजा रखा है।

सुनीता शानू

Monday, October 20, 2008

मेरी माँ

अब आगे..........

दहेज़ में देने के लिए हाथी ही गया था

समय सुखमय चल रहा था, बाबा विनोबा भाबे का भूदान आन्दोलन जोरो पर चल रहा थाजमींदार स्वेचा से अपनी जमीं उनेह भेट कर रहे थेलेकिन बज्रपात जमिन्दरिया समाप्त कर दी गई, सीलिंग लागु हो गई

खर्चे उतने ही थे आमदनियां कम हो गईउस समय के भारत में वैसे भी उपज कम होती थी, सैकडो बीघा खेत में कुछ ही कुंतल फसल होती थी सिचाई के साधन भी सीमित थे, सुब कुछ प्रक्रति पर निर्भेर था

पहले जमींदारी के समय औरो से लगान, महसूल बसूल किया जाता थासब खत्म हो गया थाजो घोडो , हातियों से सफर करते थे वोह हल जोतने को मजबूर थेजो समय के साथ बदल गए वोह सुखी हो गये और जो बदले वोह धीरे -धीरे कंगाली की तरफ बढ़ गएउनका अतीत उनेह यह समजने नहीं देता था कि समय बदल गया है, और समय के साथ बदले तो मिट जाओगे

खैर मेरे नाना बदले और एक किसान के रूप में भी सफल हुए. लेकिन समय करवट लेता रहता हैमनुष्य रूप में जन्मे भगवान को भी कष्ट सहने पड़ते है

एक दिन खेत पर लडाई हुई, पानी को लेकर दोनों तरफों से गोली चली मेरे नाना के हाथ से दो कत्ल हो गए उनका निशाने बाज़ होना काम आयाजिदगी तो बच गई गृहस्थी उजड़ गई

नाना और बड़े मामा जेल चले गए. मुकद्दमा चला और नानाजी को उम्र कैद हो गयीएक घर बर्बाद हुआ कि उसका मरा थाऔर एक घर इसलिए बर्बाद हो गया उसके हाथ से मरादुश्मनी दोनों पक्षों को बर्बाद करती है मैंने नज़दीक से महसूस किया है .......


शेष फिर .......


मेरी माँ

अब आगे

हम आर्य है और आर्य श्रेष्ठ मनु ने कहा है "कन्याप्येंव पालनीया शिक्षा ......... । पुत्रियों का पुत्रो की समान सावधानी और ध्यान से पालन और शिक्षण होना चाहिए । लेकिन ऐसा होता कहा हैं ।

मेरी माँ का नाम रखा गया 'विजय लक्ष्मी ' । बड़े घरों की बेटियाँ स्कूल पढने नहीं जाती थी । मुश्किल से ५ वी जमात तक ही पढाई हो पाई। पर उस समय की पढाई अज की किताबी पढाई से लाख गुना बेहतर थी। और जो काम लड़किओं को जिन्दगी भर करने होते उसकी शिक्षा बखूबी सिखाई गई । और सीखी भी कढाई, बुनाई ,सिलाई और सबसे ज्यादा दुनिआदारी ।

जमींदारो के यहाँ महिलाओं को ,बेटिओं को खेत पर जाने की मनाही थी । अज भी परम्परागत परिवारों की महिलाएं यह नहीं जानती उनके खेत कहाँ पर है । सिर्फ चारदीवारी दुनिया थी उस समय ।

मेरे नाना गज़ब के शिकारी थे । ४-४ महीने जंगलो में शिकार खेलते थे । बैल गाड़ियों से रसद व कारतूस पहुचते रहते थे ,उधर से हिरन ,शेर ,चीते की खाले घर भिजवाई जाती थी । जमींदारो के शौक ने जंगली जानवर तो खत्म किये ही साथ ही अपने शौको को पूरा करने के लिए अपनी जमींदारियां भी खत्म कर दी ।

उधर माँ अपने मामा के पास से वापिस आ गई , लाड -प्यार हावी हो रहा था लेकिन नानी के कुशल निर्देशन में मेरी माँ घरेलू कामो में पारंगत हो चुकी थी । मेरे मामा जो माँ से बड़े थे उन्हें एक मास्टर घर पर पढाने आते थे । बहुत मारते थे ,लाढ़-प्यार में पले मामा की तरफदारी नाना करते थे । और मास्टर को मनाही हो गई की मार न हो । मास्टरजी ने फिर मारा उसका परिणाम यह हुआ उनकी नाक कटवा ली गई । इसके बाद पढाई से मेरी ननिहाल का नाता टूट गया । कोई मामा ज्यादा न पढ़ सका ।

नाना नानी ने अपनी बेटी के लिए दहेज सहेजना शुरू किया उस समय हाथी दहेज में देना शान की बात थी । इसलिए एक हाथी खरीदा गया ,बेटी को देने के लिए ....................

शेष आगे ...


Saturday, September 27, 2008

माँ: यादों का एक सफ़र !!

शास्त्री जी एवं अरविंद जी का न्यौता पा कर हम बहुत खुश थे( अब भी हैं), मां विषय ही ऐसा है। मां पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है, अब लिखने बैठे हैं तो न जाने कितनी यादें जहन में तुफ़ान मचाये हैं।सोच रही हूँ क्या भूलूं क्या याद करुं कि तर्ज पर आप को क्या बताऊं और क्या नहीं।

आइस्क्रीम वाले की घंटी सुनते ही जैसे बच्चे सब छोड़ दौड़ पड़ते हैं और सैकड़ों हाथ आइस्क्रीम लपक लेने को ललायित हो उठते हैं कुछ ऐसा ही हाल मेरी यादों का है। हर याद दूसरी याद पर चढ़ हमसे कह रही है पहले मैं, नहीं पहले मैं। एक नरम दिल इंसान होने के नाते मैं किसी को नाराज नहीं करना चाह्ती, इस लिए बिना ये सोचे कि ये याद कड़ी में बैठती है या नहीं, जैसे जैसे ये मेरा ध्यानाकर्षण कर रही हैं वैसे वैसे इन्हें यहां टांकती जा रही हूँ। आशा है आप इनकी धमाचौकड़ी से परेशान हो उठ कर नहीं चले जायेगें। तो आइए आप से प्रार्थना है कि मेरी यादों का हमसफ़र बन कदम दो कदम साथ चलें।

पीछे दूर तक द्रष्टि जाती है तो दिखाई देता है, नहीं सुना है, मम्मी जब रसोई में खाना बना रही होतीं हम पास जा बैठते (2 साल की उम्र में और कर भी क्या सकते थे)। मम्मी मुस्कुरा कर थोड़ा दूर बैठाने के इरादे से सब्जी की टोकरी हमारे सामने रख देतीं। उस जमाने में गैस के चुल्हे सब के घर नहीं होते थे न, और खाना भी फ़र्श पर बैठ कर बनाया जाता था, ज्यादा पास आने पर जल जाने का खतरा होता था। मम्मी खाना बनाती जातीं और साथ में हमसे खेलती जातीं( खेल? नहीं जी पढ़ाई…फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि हमें खेल लगता था) एक एक आलू ए, बी, सी, डी होता और एक एक प्याज 1, 2, 3 होता, कभी मम्मी ये सारे आलू प्याज टौकरी में वापस डालतीं और कभी हम।

गाजियाबाद की बात है, तब भी स्कूल में दाखिला लेने के लिए इंटरव्यू देना पड़ता था। सो हमें भी यह इंटरव्यू देना पड़ा। मम्मी के उस रसोई के खेलों की बदौलत प्रिंसीपल साहिबा ने हमें नर्सरी छोड़ सीधे पहली क्लास में दाखिला दे दिया और पढ़ाई की शुरुवात में ही हमें दो साल का फ़ायदा हो गया।

दूसरी याद मेरा पल्लु खींच कर मुझे याद दिला रही है कि मेरी पढ़ाई  में मम्मी का योगदान एम फ़िल के दिनों तक चला जब हम खुद भी मां बन चुके थे। अरे नहीं नहीं, एम ए के दिनों में मम्मी हमें पढ़ाती नहीं थीं फ़िर भी उनका योगदान कुछ कम नहीं था। बात दरअसल ये है कि उस जमाने में फ़ोटोकॉपी करने की सुविधा इतने व्यापक रूप से प्रचलित नहीं थी जैसे आज है और महंगी भी बहुत थी। सो मैं और मेरी सहेलियां कार्बन पेपर का इस्तेमाल कर नोटस बनाते थे। नोटस बनाने का काम बहुत ज्यादा होता था। मम्मी बिचारी हर दम अपने बच्चों की तकलीफ़ों से द्रवित कहती लाओ मैं कुछ लिख देती हूँ। हम कॉलेज चले जाते और मम्मी घर के सारे काम निपटाने के बाद अपने दोपहर की नींद की बलि चढ़ा कर हमारे नोटस लिखतीं जो हम किताब में निशान लगा जाते। हम शाम को आते जैसे लेक्चर में बैठ कर केन्टीन की टैबल तोड़ कर हम कोई बड़ा काम कर के आये हों और मम्मी बिचारी चायवाय बनाने में लग जातीं।

आज सोचती हूँ कितने आत्मकेंद्रित थे हम। मां को कितना टेकन फ़ोर ग्रांटेड लेते थे। आज हम शर्मसार हैं ये सोच सोच कर कि खुद मां बन जाने के बाद भी हमें ये एहसास बहुत कम था कि कैसे बिना जताये माँ हमारी जिन्दगी का सहारा बनी हुईं हैं। हमने एम फ़िल करने का फ़ैसला किया तो मम्मी ने अपनी ढलती उम्र को दरकिनार कर हमारे बेटे की देखभाल का दायित्व स्वभाविक रूप से अपने ऊपर ले लिया। हम फ़िर अपनी किताबों की दुनिया में खो गये और मम्मी ने एक बार फ़िर आलू प्याज का खेल शुरु कर दिया। इस बार चुनौतियां उनके लिए दुगुनी थी, अंग्रेजी में जो कविताएं सिखानी थीं।

जब हम अपने कैरियर की राह पर अपने कदम जमा रहे थे उनके बूढ़े पैर अपने नाती के उछलते कदमों से कदम मिलाते स्कूल की तरफ़ बढ़ रहे थे। कभी ये कदम बिना नागा अलीगढ़ में मेरे स्कूल की तरफ़ आया करते थे और लोग समझते थे कि वो शायद मास्टरनी हैं। मास्टरनी ही थीं सिर्फ़ औहदा नहीं मिला हुआ था,या कहें मिला ही हुआ था, वो कहते हैं न थानेदार की बीबी थानेदारनी तो मास्टर की पत्नी मास्टरनी हुई न!

हमने कौमार्य की दहलीज पर कदम रखा, पढ़ने का शौक बहुत था और जो हाथ लगता चट्ट कर जाते। एक दिन पिता जी ने हमें गुलशन नंदा का उपन्यास "जय देव" पढ़ते देख लिया। हमें तो कुछ नहीं कहा पर मम्मी से पता नहीं क्या कहा, उस दिन से मम्मी ने उपन्यास तो क्या पत्रिकाएं भी पढ़ना बंद कर दिया। आज हमें उनकी बोरियत का एहसास है। तभी की बात है हम शायद छटी कक्षा में रहे होगें, मम्मी हमें पढ़ा रही थीं और शायद रहीम के दोहे समझाने में असमर्थ रहीं। पापा पास ही बैठे थे, बस आनन फ़ानन में उन्हों ने फ़ैसला लिया कि मम्मी बच्चों की पढ़ाई ठीक से देख सकें इस लिए उन को अपनी पढ़ाई एक बार फ़िर से शुरु कर देनी चाहिए।

मम्मी ने सिर्फ़ इंटर किया हुआ था शादी से पहले। अब पापा के कहने पर कम से कम पंद्रह सालों के अंतराल के बाद उन्हों ने बी ए करने का निश्च्य किया। उस समय तक मेरे दोनों भाई भी उनकी गोद में शोभायमान हो चुके थे और हमें याद है जनवरी की कड़कती ठंड में वो सोफ़े पर बैठी पढ़ रही होती और मेरा छोटा भाई रोता हुआ उनकी गोदी में आ धमकता उनके बिना न सोने की जिद्द करता हुआ। परीक्षा के दिनों में भी आये गये मेहमानों की खातिरदारी करतीं वो पापा के साथ लगभग दौड़ती सी परीक्षा देने जाती और भागती सी वापस आ सीधा चौके में घुस जातीं और फ़िर रात को किताबें उनका इंतजार करती होतीं।

पापा का योगदान इस पूरी प्रक्रिया में ये रहता कि पापा के सहकर्मी दोस्त आ कर मम्मी को थोड़ी गाइडेंस दे जाते और जब तक मम्मी परीक्षा दे रही होती  पापा छोटे भाई को संभालते। हमने पहली बार खाना बनाने का प्रयास उसी समय किया था और मम्मी हमारी बनायी कच्ची पक्की सब्जी को देख कर भी गदगद हो गयी थीं। यह अलग बात है कि खाना तब भी बाहर से मंगाना पड़ा था, आटा गूंधने के प्रयास में हमने कभी पानी ज्यादा और कभी आटा ज्यादा करते करते पूरा डिब्बा जो खाली कर दिया था और पूरे महीने का बजट तो टें बोल गया था। फ़िर भी वो गदगद …ये मां के सिवा कोई और कर सकता है क्या?  

अनिता । कुछ हम कहें

Wednesday, September 24, 2008

मेरी माँ

अपनी माँ के बारे लिखना एक भावुक कार्य है । उनकी महानता का चित्रण कहीं पाठक आत्म प्रशंसा न समझे । लेकिन अपनी माँ के बारे में लिख कर मैं अपने को धन्य समझूंगा ।

एक ऐसा खानदान जिसमे लड़कियां पैदा होते ही मार दी जाती थी क्योंकि ठाकुर और ऊपर से जमींदार । बहुत समझाने के बाद यह तय हुआ कि एक लड़की जो पहले पैदा हो वोही जिन्दा रखी जायेगी । लेकिन परस्थिति ऐसी कर दी जाती थी कि बेटी जिन्दा न रह सके जैसे माँ का दूध वर्जित ,कोई दवाई नहीं ,कोई ध्यान नहीं -और थोड़े दिन बाद बेटी अपने बाप का सर न झुकवा ने का कारण बन कर मुक्त हो जाती थी ।

उसी परिवार में जन्मी मेरी माँ , लेकिन मेरे नाना को न जाने क्या लगाव हो गया उन्होंने अपनी बेटी को जिन्दा रखने का फैसला किया .लेकिन उनकी माँ यह नहीं चाहती थी ,इसलिए बेटी कैसे मरे उसका प्रयास चलता रहा । बेटी को माँ के दूध की मनाही थी । परन्तु मेरे नाना और नानी ने शहर से डिब्बे वाला दूध जो अंग्रेज अपनी चाय बनाने के काम लाते थे मंगा कर चुपके से अपनी बेटी को पिलाते थे ।

आखिर कष्ट सहते हुए एक फैसला लिय गया और मेरी माँ को अपनी ननसाल भेज दिया । वहां उनके मामा जो मिलट्री में थे उन्होंने अपने पास रख कर पाला। मेरी माँ के बाद ही उस गावं में लड़की बचना शरू हुई । और एक नई शरुआत हुई ,बेटी बचाने की ।
शेष aage

Tuesday, September 23, 2008

माँ –- किसने तुझे मौत की ओर धकेला!!

noii's मेरी माँ काफी स्वस्थ स्त्री थीं एवं उनका जीवन काफी संघर्षमय था. प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध, चीन के साथ एवं पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान देश में जो अकाल पडा था वह सब उन्होंने सहा था, लेकिन बताया किसी को नहीं.

सत्तर साल की उमर में जब उनको अचानक कैंसर हो गया तो यह परिवार के लिये काफी दु:ख की बात थी. डाक्टर ने उनको सिर्फ 6 महीने और दिये थे, लेकिन अस्पताल-घर-अस्पताल इस तरह उन्होंने तीन साल और बिता दिये. अचानक एक दिन फिर उनको अस्पताल ले जाना पडा एवं मेरी पत्नी सेवा के लिये पुन: उनके पास चली गईं. वह शहर हमारे घर से लगभग 120 किलोमीटर दूर था.

अगले दिन अचानक मेरी पत्नी का फोन आया कि मैं तुरंत सब कुछ छोड अस्पताल पहुंचूँ. ऐसा ही किया. डाक्टरों ने उनको सिर्फ कुछ क्षणों का समय दिया हुआ था. वहां पहुंच कर एक बात मैं ने नोट की कि मां बार बार मूँह खोल रही हैं एवं कुछ कहना चाहती हैं. मेरी पत्नी ने बताया कि प्यास के मारे उनकी हालत खराब हो रही है, एवं पानी मांग रही हैं,  लेकिन डाक्टर एवं नर्से उनको पानी पिलाने नहीं दे रहे.

मुझे यकीन नहीं हुआ कि यह क्या हो रहा है. नर्सों से पूछा तो वे बोलीं कि मां के गले की सारी मांसपेशियां काम करना बंद कर चुकीं है अत: पानी पिलाने पर पानी उनके फेंफडे में जाकर दम घुटने से उनका जीवन जा सकता था. मैं ने पूछा कि प्यासा रखा जाये तो कितने और घंटे वे जीवित रहेंगी. नर्सों ने कहा कि अधिकतम 6 घंटे क्योंकि अब उनकी अंतिम घडी आ गई है. तुरंत जाकर डाक्टर से पूछा तो उन्होंने भी जवाब यही दिया कि अधिकतम 6 घंटे और बचे हैं.

मैं एक क्षण भी वहां न रुका. दौड कर कमरे में जाकर अपनी पत्नी से कहा कि वे तुरंत मां को पानी पिलाये. पत्नी बडी हिचकिचाई कि कुछ अनहोनी हो गई तो लोग बुरा मानेंगे. मैं ने अपनी तुरंत पास खडी अपनी बहिन को बुलाया, एवं पत्नी एवं बहिन  से कहा कि रूई गीली करके वे तब तक मां को पानी पिलाते रहें जब तक उनकी प्यास न बुझ जाये. लोग डाक्टरों एवं संभावित मृत्यु के  डर के मारे कांप गये, लेकिन मेरा कोप देख कर उन्होंने मेरा कहा मान लिया.

मेरी सोच यह थी कि अर्ध मूर्छित पडी मां को प्यासा रख 6 अगले घंटे तक तडपाने के बदले उनकी प्यास पहले बुझाई जाये. अर्धमूर्छित पडी मेरी मां को प्यास से तडपा तडपा  कर  उनके जीवन को 6 घंटे और लम्बा करना मुझे स्वीकार्य न था. मैं चूंकि घर का ज्येष्ठ पुत्र था अत: पिताजी से लेकर किसी ने मेरे निर्णय का विरोध नहीं किया.

लगभग 1 घंटे गीली रूई से पानी पिलाने पर  मां की प्यास पूरी तरह मिट गई एवं वें आराम से सो गईं. 6 घंटे छोडिये, 10 घंटे बीत गये.  उस रात उनको होश आ गया. चार दिन के बाद वे इतनी स्वस्थ हो गईं कि अस्पताल से डिश्चार्ज कर दिया.

इसके बाद मेरी मां दो साल और जीवित रहीं. लेकिन यदि मैं ने अपने रिस्क पर -- मन कडा करके -- एक निर्णय न लिया होता तो उस दिन डीहाईड्रेशन से जरूर उनकी मृत्यु हो जाती. अगले दो साल हमारे लिये मां के साथ बिताये सबसे सुखद साल थे, शायद इस कारण कि समय पर मैं सही निर्णय ले सका.

शास्त्रीसारथी | Picture by noii's

Sunday, September 21, 2008

मां

(यह लेख मदर्स डे पर इसी साल 11 मई को लिखा गया और http://thenewsididnotdo.blogspot.com/ पर प्रकाशित हुआ)

मुंबई
11 मई 2008


इतवार की सुबह सबेरे छह बजे उठना हो, तो ऐसा लगता है कि मानो काला पानी की सज़ा भुगतनी पड़ रही है। लेकिन पिछले करीब नौ महीनों से अगर खादिम मोहल्ला की गलियों में आबपाशी नहीं कर पाया, तो इसकी वजह रही एक ऐसा जुनून, जिसमें इंसान सब कुछ भुला देता है। ये जुनून है बड़े परदे पर एक कहानी को उतारने का, और आज अगर मैं मोहल्ले की गलियों में लौटा हूं तो इसलिए नहीं कि फिल्म का तकरीबन सारा काम आज सिरे तक पहुंच गया और निर्माता ने फिल्म को फाइनल मिक्सिंग के बाद बड़े परदे पर देखकर बेइंतेहा खुशी ज़ाहिर की, बल्कि उस फोन की वजह से जो सुबह सुबह बेटे ने दिल्ली से किया। बोला- मां को हैप्पी मदर्स डे बोल दीजिए। अब उसके लिए उसकी मां सबकी मां है, लेकिन ये फोन आते ही मुझे याद आई अपनी मां, जो आज भी रोज़ाना चार घंटे बिजली वाले एक गांव में शाम होते ही छत पर बैठकर पेड़ों की फुनगियों को निहारती है, कि पत्ता हिलेगा तो तन को हवा भी लगेगी।

तीन किलोमीटर रोज़ाना बस्ता लादकर पैदल जब हम छठी में पढ़ने जाते थे, तब भी जून की तपती दोपहर मां ऐसे ही बिताती थी, और आज भी उसकी गर्मियां ऐसे ही बीतती हैं। मांएं सुखी क्यों नहीं रह पातीं ? चिल्ला जाड़े की कड़कड़ाती ठंड में सुबह सुबह बर्फ जैसे ठंडे गोबर को उतने ही ठंडे पानी में मिलाकर अहाता लीपते मां को बचपन में कई बार देखा है। सुबह शाम कुएं से बीस बीस बाल्टी पानी भरने के बाद हाथों में जो ढड्ठे पड़ते थे, उन पर मां ने कई बार मरहम भी लगाया है। कोई पांच हज़ार फिट में फैले पूरे घर को लीपने के बाद पंद्रह लोगों का दो टाइम खाना, दो टाइम नाश्ता बनाने वाली मां ने कुछ तो हसरतें हम लोगों की निकरें धोते हुए पाली होंगी। पर, आज तक वो कभी बेटों ने जानी नहीं। मांएं खुलकर बोल क्यों नहीं पातीं?

हम गांव में ही थे, जब मां बुआ के घर कानपुर गईं थीं और वहां से संतोषी मां की फोटो और शुक्रवार व्रत कथा की किताब लेकर लौटी थीं। फिल्म जय संतोषी मां रिलीज़ होने के बाद पूरे देश में मुझ जैसे तमाम बच्चों से शुक्रवार की इमली छिन गई थी। कभी गलती से स्कूल में शुक्रवार को चाट भी खा ली, तो लगता था कि कुछ ना कुछ अनिष्ट होकर रहेगा। संतोषी माताएं हमारी मांओं जैसी क्यों नहीं होतीं? शायद वो शुक्रवार का दिन ही रहा होगा, जब आले मे रखा मट्ठा नीचे रखी बर्तनों की पेटी पर गिर गया था। मां ने उस दिन पीतल और कांसे के बर्तन बड़े जतन से मांज मांज कर चमकाए थे, और शाम होती ही सारे बर्तन कसैले हो गए। मां की आंखों की किसी कोर में उस दिन आंसू आ गए थे। मांएं इतनी संवेदनशील क्यों होती हैं?

और, मां का वो चेहरा तो सामने आते ही जैसे पूरा संसार जम सा जाता है, जब मां ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए किडनी देने का फैसला किया था। लखनऊ एम्स के गलियारे में जिस तरह हम दोनों भाई, बहन, और पापा मां के सामने बैठे थे, ऐसा लग रहा था, मानो मां को कसाई के हाथों सौंपने जा रहे हैं। तीसरा भाई जिसने अभी ये भी नहीं समझा कि जवानी क्या होती है, शायद पढ़ाई के बोझ के मारे या किसी शुक्रवार को इमली खाने की वजह से आईसीयू में मौत से बख्शीश मांग रहा था। मांएं कसौटी पर बार बार क्यों कसी जाती हैं? मां की कुर्बानी काम ना आ सकी। छोटा भाई घर तो लौटा, लेकिन इस बार भी उसे भगवान के यहां जाने की जल्दी थी। कमबख्त, मेरे मुरादाबाद से लौटने का इंतज़ार भी न कर सका। बस स्ट्रेचर पर बेहोशी की हालत में मिला। मेरा हाथ लगते ही बोला- भाईजी स्कोर क्या हुआ है? क्रिकेट बहुत देखता था वो, उसे क्या पता कि भगवान उसकी गिल्ली कब की उड़ा चुके हैं। मेरा बेटा भी क्रिकेट बहुत खेलता है। छोटे भाई को भगवान ने जिस तारीख को अपने पास बुलाया, उसके ठीक नौ महीने बाद- ना एक दिन आगे ना एक दिन पीछे- इन महाशय ने अपनी दादी की गोद गंदी की। और, अब इतने बड़े हो गए हैं कि फोन करके मदर्स डे याद दिलाते हैं? हम जैसे गांव वालों को माएं मदर्स डे पर याद क्यों नहीं आतीं?

और चलते चलते वो गाना जो मां के लिए हमने बचपन में सीखा था...

तुझको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रूरत क्या होगी..
ऐ मां, तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी..

कहा सुना माफ़...

पंकज शुक्ल

Friday, September 19, 2008

अजब संजोग

आज माँ के बारे में, कैसा अजीब दिन १९९१ ,१९ सित' आखरी दिन जब माँ से मिल रहा था।

लखनऊ का एस जी पी जी आई का वह कमरा आज भी मेरी आँखों के सामने । एक छोटे सा ओपरेशन जो २० तारीख को होना था, बी आई पी मरीज़ स्वास्त मंत्री तीमारदार, मुख्य मंत्री हाल चाल ले रहा हो तो बड़ा डोक्टर आया ओपरेशन करने जो प्रोफेसर था और अनास्तासिया के समय सब कुछ ख़त्म।

विशिस्ट होने कि सजा मिली हमको । इससे आगे फिर कभी आज नहीं क्योंकि आज मेरी माँ बहुत दूर चली गई । और सब कुछ रह गया उनके पीछे । आज जो हम है वह उन्ही कि दें थी । पापा का संसद सदस्य होने में उनकी भूमिका सिर्फ यादें और यादे ...................

तेरी ममता जीवनदायी …माई ओ माई …

पिछले वर्ष इलाहाबाद में स्थानान्तरण से आने के बाद मेरे घर में पहली बार कम्प्यूटर आया, ...तत्काल इन्टरनेट लगा और अब ....ब्लॉग जगत में प्रवेश करने के बाद तो जिन्दगी ही बदल गयी है। पहले सत्यार्थमित्र, फिर हिन्दुस्तानी एकेडेमी और अबमाँ’; लगता है जैसे यह सब सपना है। ...लेकिन की-बोर्ड की खटर-पटर आश्वस्त करती है कि मैं जाग्रत अवस्था में हूँ। शास्त्री जी ‘सारथी’ का सानिध्य और उत्साहबर्द्धन तो अमूल्य है।

अपनी माँ के बारे में क्या लिखूँ... जब ०६ वर्ष का था, तभी पेशे से अध्यापक पिता ने गाँव से हटाकर निकट के कस्बे में हम सभी भाई-बहनों को एक शिशु मन्दिर में पढ़ने के लिए किराये के कमरे में स्थापित कर दिया। उनमें मैं सबसे छोटा था और सबसे बड़े भाई थे ११ साल के। हम तभी से स्वपाकी हो गये।

सप्ताहान्त पर गाँव जाना होता तो माँ दरवाजे पर ही प्रतीक्षा करती मिल जातीं ...शनिवार की शाम से लेकर सोमवार की सुबह सात-आठ बजे तक का समय ही के हिस्से में होता, जो हमारे गन्दे कपड़ों की सफाई, सरसो के उबटन से साप्ताहिक मालिश, चार भाई-बहनों के बीच सप्ताह भर में हुए विभिन्न झगड़ों के निपटारे और आगामी सप्ताह के लिए भोज्य पदार्थों और ‘नसीहतों’ की पोटली बाँधने में बीत जाती। ...यही समय हमारे लिए स्पेशल डिश खाने का भी होता जिसे बनाने में उन्हें विशेष महारत हासिल थी।


‘हाई स्कूलमें आकर हम और दूर हो गए। माँ का सानिध्य साप्ताहिक से बढ़कर मासिक या इससे भी लम्बा होता गया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद तो हम वार्षिक त्यौहारों में ही के आँचल की छाँव पा सकते थे। उस जमाने में गाँव पर टेलीफोन या बिजली भी नहीं थी। चिठ्ठियों से हाल-चाल मिला करता था। फिर नौकरी मिली तो भी माँ को अपने पास स्थायी रूप से नहीं बुला सका। बड़े से संयुक्त परिवार में सबसे बड़ी होने के नाते वह गाँव नहीं छोड़ सकीं।


इलाहाबाद ने मुझे उनकी सेवा का अवसर भी दिया है। मेरा बेटा जब दिसम्बर में एक साल का हुआ तो उस अवसर पर आने का मेरा आग्रह वे टाल नहीं सकीं। उसके बाद यहाँ के माघ-मेले का लोभ-संवरण वे खुद ही नहीं कर पायीं। यहाँ करीब महीने भर का दुर्लभ सानिध्य हमें बहुत सुख दे गया।


...इसी अवसर पर त्रिवेणी महोत्सव का भव्य आयोजन हुआ था। यहाँ का ‘कवि सम्मेलन’ और ‘मुशायरा’ उत्कृष्ट था। मैने वहाँ जब ताहिर फ़राज के कण्ठ से इस गीत को अत्यन्त भावुक स्वर में सुना तो अनायास मेरी आँखें भर आयीं…। …मैने क्या-क्या नहीं गवाँ दिया इस जीवन में माँ से दूर रहकर।


आप भी इन पंक्तियों को पढ़िएमुझे विश्वास है कि आप भी वैसा ही कुछ महसूस करेंगे..

अम्बर की ऊँचाई, सागर की ये गहराई

तेरे मन में है समाईमाई ओ माई

तेरा मन अमृत का प्याला, यहीं क़ाबा यहीं शिवाला

तेरी ममता जीवनदायी माई ओ माई


जी चाहे क्यूँ तेरे साथ रहूँ मैं बन के तेरा हमजोली

तेरे हाथ न आऊँ छुप जाऊँ, यूँ खेलूँ आँख मिचौली

परियों की कहानी सुनाके, कोई मीठी लोरी गाके

करदे सपने सुखदायीमाई ओ माई।


संसार के ताने-बाने से घबराता है मन मेरा

इन झूठे रिश्ते नातों में, बस प्यार है सच्चा तेरा

सब दुख सुख में ढल जाएँ, तेरी बाहें जो मिल जाए

मिल जाए मुझे खुदाईमाई ओ माई


जाड़े की ठण्डी रातों में जब देर से घर मै आऊँ

हल्की सी दस्तक पर अपनी तुझे जागता हुआ मैं पाऊँ

र्दी से ठिठुरती जाए, ठण्डा बिस्तर अपना

मुझे दे दे गरम रजाईमाई ओ माई


फ़िर कोई शरारत हो मुझसे नाराज करूँ मै तुझको

फ़िर गाल पे थप्पी मार के तू सीने से लगा ले मुझको

बचपन की प्यास बुझादे अपने हाँथों से खिलादे

पल्लू में बँधी मिठाई…..माई ओ माई

डबडबाई आँखों से मैने गीत के ये बोल मद्धिम रोशनी में कागज पर उतारे थे। ताहिर फ़राज साहब को सलाम करते हुए इन्हें यहाँ दे रहा हूँ। कोई शब्द बदल गया हो तो जरुर बताएं।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)