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Tuesday, May 12, 2015

माँ

लेती नही दवाई माँ,
जोडे पाई पाई माँ।
दुःख थे पर्वत राई माँ
हारी नही लडाई माँ।

इस दुनिया में सब मैले हैं
किस दुनिया से आई माँ।
दुनिया के सब रिश्ते ठंडे
गरमा-गरम रजाई माँ।

जब भी कोई रिश्ता उधडे
करती है तुरपाई माँ
बाबूजी बस तनखा लाये
पर बरकत ले आई माँ।

बाबूजी थे छडी बेंत की
मख्खन और मलाई माँ।
बाबूजी के पांव दबाकर
सब तीरथ हो आई माँ।

नाम सभी हैं गुड से मीठे,
अम्मा, मैया, माई, माँ।
सभी साडियाँ छीज गईं पर
कभी नही कह पाई माँ।

अम्मा में से थोडी थोडी
सबने रोज चुराई माँ।
घर में चूल्हे मत बाँटों रे,
देती रही दुहाई माँ।

बाबूजी बीमार पडे जब
साथ साथ मुरझाई माँ।
रोती है लेकिन छुप छुप कर
बडे सब्र की जाई माँ।

लडते लडते सहते सहते
रह गई एक तिहाई माँ
बेटी की ससुराल रहे खुश
सब जेवर दे आई माँ।

अम्मा से घर घर लगता है
घर में घुली समाई माँ।
बेटे की कुर्सी है ऊँची
पर उसकी ऊँचाई माँ।

घर में शगुन हुए हैं माँ से
है घर की शहनाई माँ।
दर्द बडा हो या छोटा हो
याद हमेशा आई माँ।

सभी पराये हो जाते हैं
होती नही पराई माँ।

किसी अनाम कवि की यह कविता बहुत प्यारी लगी सोचा आप सबसे बाँटू इसे।

Sunday, May 20, 2012

कैसी होती है माँ ...??


माँ पर लिखी यह रचना इतनी मार्मिक है कि मैंने आज बरसों बाद अपनी जननी को, जिसका चेहरा भी मुझे याद नहीं, खूब याद किया ...और बिलकुल अकेले में याद किया, जहाँ हम माँ बेटा दो ही थे, बंद कमरे में ....
भगवान् से कहा कि मुझ से सब कुछ ले ले... पर माँ का चेहरा केवल एक बार दिखा भर दे...बस एक बार उन्हें प्यार करने का दिल करता है, केवल एक बार ...कैसी होती है माँ ...??

कई बार, रातों में उठकर ,
दूध गरम कर लाती होंगी 
मुझे खिलाने की चिंता में 
खुद भूखी रह जाती होंगी 
मेरी  तकलीफों  में अम्मा,  सारी रात  जागती होगी   !
बरसों मन्नत मांग गरीबों को, भोजन करवाती होंगी !

सुबह सबेरे बड़े जतन से 
वे मुझको नहलाती होंगी
नज़र न लग जाए, बेटे को 
काला तिलक,लगाती होंगी 
चूड़ी ,कंगन और सहेली, उनको कहाँ लुभाती होंगी  ?
बड़ी बड़ी आँखों की पलके,मुझको ही सहलाती होंगी !

सबसे  सुंदर चेहरे वाली,
घर में रौनक लाती होगी  
अन्नपूर्णा अपने घर की ! 
सबको भोग लगाती होंगी 
दूध मलीदा खिला के मुझको,स्वयं  तृप्त हो जाती होंगी !
गोरे चेहरे वाली अम्मा  !  रोज  न्योछावर होती होंगी !

रात रात भर सो गीले में ,
मुझको गले लगाती  होंगी 
अपनी अंतिम बीमारी में ,
मुझको लेकर चिंतित होंगीं 
बच्चा  कैसे  जी   पायेगा , वे  निश्चित ही रोई  होंगी !
सबको प्यार बांटने वाली,अपना कष्ट छिपाती होंगी !


अपनी बीमारी  में, चिंता
सिर्फ लाडले ,की ही होगी !
गहन कष्ट में भी, वे ऑंखें , 
मेरे कारण चिंतित  होंगी   !
अपने अंत समय में अम्मा ,मुझको गले लगाये होंगी !
मेरे नन्हें हाथ पकड़ कर ,फफक फफक कर रोई होंगी !

Friday, August 20, 2010

माँ की डांट और बदकिस्मत मैं - सतीश सक्सेना

आज सुबह पंडित महेंद्र मिश्र के "समय चक्र " पर मिश्र जी द्वारा मम्मी की डांट से दुखी होकर लिखी गयी निम्न लिखित चिट्ठी पढ़ी  तो अपनी माँ की याद आ गयी काश मेरी माँ होतीं और महेंद्र मिश्र की तरह ही इस उम्र में  ( ५५ साला ) मैं भी डांट खाता ...
आंसू छलछला उठे , मिश्र जी का यह मीठा कष्ट जानकर ... पर हर व्यक्ति तो महेंद्र मिश्र जैसा खुशकिस्मत नहीं हो सकता ...है न.......


"मम्मी ने डांटा पत्रों को पढ़कर या बात को सुनकर हाँ, हूँ, नहीं में याने कम शब्दों में जबाब नहीं दिया करो ... जबाब ऐसा दो की समझ में तो आये की आपने क्या सुना और क्या पढ़ा है .... अब बताइये मैं क्या करूँ ... कम शब्दों में जबाब देना गलत है क्या ... जबाब कम शब्दों में दिया तो क्या अनर्थ हो गया ... अब बताइये मैं क्या करूँ ... पढ़ता हूँ तो खैर नहीं कम लिखता हूँ तो खैर नहीं कम शब्दों में बोलता हूँ तो खैर नहीं .... अब आप ही बताइये मैं क्या करूँ ..."

Monday, January 11, 2010

माँ की ममता को पहचानो, ऐसा न हो कि कल उसे ढूँढ़ते फिरें

कहीं पढ़ा था कि ‘‘जब तुम बोल भी नहीं पाते थे तो मैं तुम्हारी हर बात को समझ लेती थी और अब जब तुम बोल लेते हो तो कहते हो कि माँ तुम कुछ समझती ही नहीं।’’

किसी भी माँ के द्वारा कहे ये शब्द वाकई कितने सार्थकता सिद्ध करते दिखते हैं। यह बात सत्य है कि एक माँ जो अपने बच्चे के बचपने को भली-भाँति पढ़-समझ लेती है, उसी माँ की वृद्धावस्था को उसके बच्चे बिलकुल भी नहीं समझते। इसे कुछ इस तरह भी कहा जा सकता है कि समझने का प्रयास नहीं करते हैं।

माँ के रूप उसके स्वरूप को देवत्व प्राप्त है, कहा भी गया है कि भगवान सभी जगह नहीं पहुँच सकता उसीलिए उसने माँ को बनाया।

आज उसी माँ को हमने स्वयं अपनी जगह तलाशते देखा है। कुछ दिनों पूर्व कुछ ऐसा देखा कि लगा कि यह दुआ करना मातृत्व का अपमान होगा किन्तु माँ की होती दुर्दशा से अच्छा है कि औलाद ही न हों।

तब याद आने लगे वे परिवार जहाँ आज भी माँ को माँ का प्यार, स्नेह, सम्मान दिया जाता है। ऐसे परिवारों में आज भी सौगातें बिछी दिखाई देतीं हैं।

कहना होगा कि माँ के स्वरूप को आज समझने की आवश्यकता है। उसे मात्र एक औरत के रूप में न देखा जाये। हम स्वयं कई बार स्वयं को इस सोच के साथ व्यथित पाते हैं कि कल क्या होगा जबकि हमारी माँ हमें छोड़ कर चली जायेगी?

यह कल्पना अपने में भयावह है किन्तु जीवन की सत्यता यही है। जो जीवन है उसे समाप्ति की ओर भी जाना है। तब माँ-विहीन जीवन की कल्पना करके ही सिहर जाते हैं।

यह पोस्ट उस घटना के परिणामस्वरूप लिखी जा रही है जो हमने देखी है। (किसी भी माँ का तिरस्कार करना हमारा मन्तव्य नहीं, इस कारण उस घटना का जिक्र करना हम आवश्यक नहीं समझते)

कृपया जिसके पास भी माँ है वे माँ की महिमा, उसके ममत्व को समझें। ऐसा न हो कि कल माँ के न होने पर उसके प्यार, दुलार, स्नेह और अपनत्व को हम किसी और में खोजते फिरें।

Thursday, October 29, 2009

क्या आपके घर में, एक बुढिया ......?

कुछ समय पहले माँ की मर्ज़ी के बिना इस घर का पत्ता भी नहीं हिलता था, अक्सर उनकी एक हाँ से कितनी बार हमारे जीवन में खुशियों का अम्बार लगा मगर धीरे धीरे उनकी शक्तिया और उन शक्तियों का महत्व कम होते होते आज नगण्य हो गया !
 अब अम्मा से उनकी जरूरतों के बारे में कोई नहीं पूछता, सब अपने अपने में व्यस्त है, खुशियों के मौकों और पार्टी आयोजनों से भी अम्मा को खांसी खखार के कारण दूर ही रखा जाता है ! 
बाहर डिनर पर न ले जाने का कारण भी हम सबको पता हैं..... कुछ खा तो पायेगी नहीं अतः होटल में एक और प्लेट का भारी भरकम बिल क्यों दिया जाये, और फिर घर पर भी तो कोई चाहिए ... 
और परिवार के मॉल जाते समय, धीमे धीमे दरवाजा बंद करने आती माँ की आँखों में छलछलाये आंसू कोई नहीं देख पाता !

Thursday, July 16, 2009

माँ के भी बदले हैं स्वरुप

भगवान हर जगह नहीं हो सकता इस कारण उसने माँ को बनाया। यह वाक्य माँ के सम्मान में लगभग हर जगह लिखा मिल जाता है। हमारा मानना इससे कुछ अलग है और वह ये कि धरती पर माँ ही है जिससे भगवान का अस्तित्व कायम है।

माँ के सम्मान, आदर में हमें बहुत कुछ बताया गया, बहुत कुछ पढ़ाया गया। यह एक ऐसा शब्द है जिसके लिए शायद ही किसी के मन में निरादर की भावना रही होगी। माँ के दयास्वरूप, ममतामयी, परोपकारी स्वरूप की कल्पना हम सबने की है और उसको वास्तविकता में भी देखा है। इन कोमलकांत स्वरूपों के साथ-साथ हमने माँ का शक्तिशाली, शत्रुमर्दन स्वरूप भी माँ दुर्गा के रूप में सँवारा है।
इधर देखने में आ रहा है कि माँ के ममतामयी और शक्तिशाली स्वरूप के अतिरिक्त उसका एक और रूप सामने आया है। इस रूप को हम यदि देखें तो घृणा होती है। माँ के इस घृणास्पद स्वरूप के क्या कारण हो सकते हैं, इस पर तो बहुत गहन सामाजिक शोध की आवश्यकता है।
माँ के इस रूप को कई सालों, माहों, दिनों से देखा जा रहा था किन्तु हमारा ध्यान इस पर हाल ही में इसलिए और गया क्योंकि पिछले एक सप्ताह में तीन घटनाओं ने माँ का यही रूप दिखाया। एक माँ द्वारा अपने दो बच्चों की हत्या इस कारण कर दी गई क्योंकि वे बच्चे उसके प्रेम-सम्बन्ध में बाधक बन रहे थे। एक माँ अपने तीन बच्चों, जिनमें एक तीन माह का दुधमुँहा बच्चा भी शामिल है, को छोड़ कर अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक और घटना में एक माँ अपने नवजात बच्चे को सड़क पर फेंक कर भाग गई, बाद में इस बच्चे की मृत्यु हो गई।
इस तरह की घटनायें अब समाज में आये दिन घटतीं हैं। इन घटनाओं को देखकर किसी गीत या आरती की एक पंक्ति याद आती है कि ‘पूत कपूत सुने हैं जग में, माता सुनी न कुमाता।’ क्या अब माता भी कुमाता कहलायेगी? आधुनिकता के वशीभूत क्या माँ के स्वरूप भी बदले-बदले नजर आयेंगे? क्या आज की महिला स्वयं को माँ नहीं एक स्त्री ही समझेगी?

Tuesday, June 23, 2009

माँ

कहते हैं, क्यूं कि ईश्वर हर जगह नही हो सकता इसी लिये उसने माँ बनाई है ।
इस संदर्भ में मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ रही है ।
एक माँ थी और उसका एक छोटा सा बेटा । माँ मेहनत करके बच्चे को बड़ा कर रही थी । कालांतर में बच्चा बडा़ हो गया । जवान हुआ । लायक भी हो गया । और जैसे कि होना चाहिये और होता है उसे प्रेम हो गया ।
प्रेमिका औऱ प्रेमी बहुत खुश । चाह हुई कि घर संसार बसायें । पर प्रेमिका नही चाहती थी कि उन दोनों के बीच कोई तीसरा भी हो । तो उसने अपने प्रेमी से पूछा, ”तुम मुझसे कितना प्यार करते हो “ उसने कहा , “मैं दुनिया में सबसे ज्यादा तुम्हें चाहता हूँ “। उसने कहा,” साबित कर सकोगे” उसने कहा , “हाँ “ । “तो तुम अपनी माँ का दिल लेकर आओ” प्रेमिका बोली ।
लडका तो प्रेम में पागल हो रहा था, घर आया और माँ को मार कर उसका दिल निकाल लिया । लडका दिल लेकर प्रेमिका को अर्पण कर ने जा रहा था कि उसे ठोकर लगी और हाथ से माँ का दिल फिसल कर गिर गया । लडका उसे झुक कर उठाने लगा तो दिल में से हलके से आवाज़ आई , “बेटा तुझे कहीं चोट तो नही आई” ।

Saturday, March 7, 2009

एक माँ

ट्रेन के कोने में दुबकी सी वह
उसकी गोद में दुधमुँही बच्ची पड़ी है
न जाने कितनी निगाहें उसे घूर रही हैं,
गोद में पड़ी बच्ची बिलबिला रही है
शायद भूखी है
पर डरती है वह उन निगाहों के बीच
अपने स्तनों को बच्ची के मुँह में लगाने से
वह आँखों के किनारों से झाँकती है
अभी भी लोग उसको सवालिया निगाहों से देख रहे हैं
बच्ची अभी भी रो रही है
आखिर माँ की ममता जाग ही जाती है
वह अपने स्तनों को उसके मुँह से लगा देती है
पलटकर लोगों की आँखों में झाँकती है
इन आँखों में है एक विश्वास, ममत्व
उसे घूर रहे लोग अपनी नजरें हटा लेते हैं
अब उनमें एक माँ की नजरों का सामना
करने की हिम्मत नहीं।

कृष्ण कुमार यादव

Wednesday, February 25, 2009

माँ तुझे सलाम... (राज सिंह जी की पोस्ट)

[दोस्तों,
कुछ तकनीकी कारणों से राज जी की यह पोस्ट प्रकाशित नहीं हो पा रही थी। मैंने इसे दुबारा प्रकाशित करने का प्रयास किया है। लीजिए माँ के लिए राज जी की सलामी: ]

माँ !
जय हो !
तेरी संतानों ........तेरे बच्चों ने ,कला की दुनियाँ में तेरा नाम आसमानों पे लिख दिया ! दुनियाँ भर में सिर्फ़ तेरी ही जय हो रही है ! जय हो माता तेरी जय हो !
लेकिन तेरी ' आन ,बान ,शान, मान ' से से बढ़ कर क्या हो सकता है कोई भी सन्मान ? हो सकता है ?? तेरे बेटे ' रहमान 'ने तो कह भी दिया ..........कहा " मेरे पास माँ है ...........!
सच्चा बेटा तेरा ! सच्चा हिन्दोस्तानी ! और उसने तो न जाने कितने पहले गाकर गुंजाभी दिया था ..................
माँ तुझे सलाम .................! अम्मा तुझे सलाम ................! वंदे मातरम ........!
पूरे देश ने झूम के गाया था उसे उसके साथ । मैंने भी बड़े आनंद मन से गया था माते !
और आज, उसकी उस शानदार ऊँचाई को मेरा छोटा सा सलाम ...........तेरे नाम !
_____________________________________________________________________
जय हो.........जय हो..............जय हो !
जननी मेरी .................. तेरी जय हो !
माता मेरी ....................तेरी जय हो !

तेरी गोद रहे ................आँगन मेरा !
आँचल हो तेरा ............चाहत मेरी !
ममता से भरी ............आँखें तेरी,
माँ सब कुछ है ..............वरदान तेरा !
सौभाग्य मेरा .........अरमान मेरा !
सम्मान मेरा ।
काबा मेरी ......काशी मेरी ..........
ईमान मेरा ............भगवान् मेरा !
जय हो ..........जय हो .......जय ,जय ,जय , जय , जय , जय , हो !
बस माँ मेरी तेरी जय हो .......तेरी जय हो .........तेरी जय हो !


तेरी सेवा ................अनहद नाद रहे
बस तू ही तूही .........याद रहे !
आनंद रहे ..........उन्माद रहे !
हम मिट जायें .........की रहे न रहें ।
बस तेरे सर पे .............ताज रहे ।
तेरे दामन में .........आबाद हैं हम ,
तो फ़िर कैसी......... फरियाद रहे ?
दुनियाँ देखे ............देखे दुनियाँ ...............ऐसी जय हो ...ऐसी जय हो
जय हो.....जय हो ! ................जय ही जय हो !

आई मेरी ..............माई मेरी !
जननी मेरी .........माता मेरी !
भारतमाता ..........माय मदर इंडिया
माय मदर इंडिया ...........भारतमाता !

जय हो .......तेरी.तेरी जय हो .........तेरी जय हो .....................जय हो !

_______________________________________________________
इस गीत का sangeet संयोजन भी मैंने किया है और mumbai में इसी की recording में vyast हूँ । आशा है कुछ दिनों में chitra sangeet mudran के बाद हम सब को देखने sunane का भी आनंद भी प्राप्त होगा .आशा है सब को आनंद मिलेगा .यह कृति rahman को समर्पित की jayegee । चल chitra जगत के सहयोग तथा saujanya को भी dhanyavaad !

posted by RAJ SINH at 9:17 PM on Feb 24, 2009

[प्रकाशन न हो पाने के बावजूद निम्न टिप्पणियाँ ब्लॉगर ने सहेज रखी थीं। उन्हें अविकल प्रस्तुत करता हूँ- सिद्धार्थ]

Blogger RAJ SINH said...

priya shastree jee,

kai bar koshish kar chuka . sheersak ke alawa sab gayab najar aa raha hai . sujhav den ya aap hee prayas karen prakashan ka .

chama karen ,arse baad yaad kiya maa ko.

thoda path vichlit aur uddeshya vichlit ho gaya tha .

February 25, 2009 1:41 PM
Blogger P.N. Subramanian said...

माँ की महत्ता है. क्षमा याचना करें. माँ है. सब ठीक हो जायेगा.

February 25, 2009 2:28 PM
Blogger नीरज गोस्वामी said...

राज साहेब ...विलक्षण रचना है ये आपकी...रहमान जी को एक सही भावांजलि है आपकी और हम सब की और से...हम सब आभारी हैं उनके जिन्होंने देश का नाम पूरे विश्व में रोशन कर दिया...
इसे संगीत बद्ध किये हुए सुनने के लिए बेताब हैं हम
नीरज

February 25, 2009 7:13 PM
Blogger Harkirat Haqeer said...

Raj ji. vilchan rachna mujhe bhi choti badi lino k siva kuch nazar nahi aaya ...chsma lga kr bhi dekha... ab aap hi sngka ka samidhan karen...!!

February 25, 2009 8:07 PM

Saturday, February 7, 2009

माँ के लिए प्रार्थना... एक दर्द भरा गीत!

आज मुझे एक बिशिष्ट कवि सम्मेलन में जाने का मौका मिला। विशिष्ट इसलिए कि यह नामी-गिरामी, स्थापित, प्रसिद्ध और पूर्णकालिक कवियों का मंच नहीं था। बल्कि यह सरकारी सेवा कर रहे अधिकारियों की काव्य-प्रतिभा को सामने लाने का एक प्रयास था।

इलाहाबाद स्थित उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के सभागार में आयोजित इस ‘प्रशासनिक कवि सम्मेलन’ में जाने से पहले मुझे केवल उन अधिकारियों का नाम पता था। एक-दो को छो्ड़कर उनकी कवित्व क्षमता के बारे में मैं बिलकुल अन्जान था। उत्सुकता वश वहाँ जाना एक दुर्लभ सुख दे गया। लगभग तीन घण्टे तक हम अनेक काव्य रसों से सराबोर होते रहे।

लेकिन जिस एक गीत ने हमारी आँखें भिगो दीं उसे सुनाया इस कार्यक्रम के संयोजक और युवा गीतकार व शायर इमरान ‘प्रतापगढ़ी’ ने। इस नवयुवक की प्रतिभा विलक्षण है। यूँ तो इमरान ने अपने लिए संचालक की भूमिका चुनी थी और मंच को अपने वाक‌चातुर्य से जीवन्त रखा लेकिन श्रोताओं की जिद पर उसने जब एक बच्चे द्वारा अपनी बीमार माँ को बचा लेने के लिए की जा रही प्रार्थना को शब्द और स्वर दिया तो खचाखच भरा हाल नम आँखो के साथ तालियाँ बजाता रहा।

मैने उस दृश्य को अपने मोबाइल फोन के वीडियो कैमरे में उतारने की कोशिश की है। शोर शराबे के बीच ऑडियो क्वालिटी बहुत अच्छी तो नहीं है, लेकिन थोड़ा धैर्य से सुनने पर निश्चित ही मेरी तरह आपभी सिहर उठेंगे

इमरान ने गीत से पहले एक शेर पढ़ा:

तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है,

कि जैसे याद की खुशबू किसी हिचकी से आती है।

मुझे आती है तेरे बदन से ऐ माँ वही खुशबू,

जो एक पूजा के दीपक में पिगलते घी से आती है॥

ये रहा गीत का वीडियो मोबाइल कैमरे से:


आपकी सुविधा के लिए इस मार्मिक गीत के शब्द यहाँ प्रस्तुत हैं:

खुदा मुझसे माँ की मोहब्बत न छीने
अगर छीनना है जहाँ छीन ले वो
जमी छीन ले आसमाँ छीन ले वो
मेरे सर की बस एक ये छत न छीने
खुदा मुझसे माँ की मोहब्बत न छीने

अगर माँ न होती जमीं पर न आता
जो आँचल न होता कहाँ सर छुपाता
मेरा लाल कहकर बुलाती है मुझको
कि खुद भूखी रहकर खिलाती है मुझको
कि होंठों कि मेरी हँसी छीन ले वो
कि गम देदे हर एक खुशी छीन ले वो
यही एक बस मुझसे दौलत न छीने
खुदा मुझसे माँ की मोहब्बत न छीने

मुझे पाला पोसा बड़ा कर दिया है
कि पैरों पे अपने खड़ा कर दिया है
कभी जब अँधेरों ने मुझको सताया
तो माँ की दुआ ने ही रस्ता दिखाया
ये दामन मेरा चाहे नम कर दे जितना
वो बस आज मुझ पर करम कर दे जितना
जो मुझ पर किया है इनायत न छीने
खुदा मुझसे माँ की मोहब्बत न छीने

अगर माँ का सर पर नहीं हाँथ होगा
तो फ़िर कौन है जो मेरे साथ होगा
कहाँ मुँह छुपाकर के रोया करूंगा
तो फ़िर किसकी गोदी में सोया करूंगा
मेरे सामने माँ की जाँ छीनकर के
मेरी खुशनुमा दासताँ छीन कर के
मेरा जोश और मेरी हिम्मत न छीने
खुदा मुझसे माँ की मोहब्बत न छीने

इमरान ‘प्रतापगढ़ी’

प्रस्तुति: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

Sunday, January 4, 2009

परी

बचपन में
माँ रख देती थी चाॅकलेट
तकिये के नीचे
कितना खुश होता
सुबह-सुबह चाॅकलेट देखकर
माँ बताया करती
जो बच्चे अच्छे काम
करते हैं
उनके सपनों में परी आती
और देकर चली जाती चाॅकलेट
मुझे क्या पता था
वो परी कोई और नहीं
माँ ही थी !!!

कृष्ण कुमार यादव

Tuesday, December 16, 2008

माँ का पत्र

घर का दरवाजा खोलता हूँ
नीचे एक पत्र पड़ा है
शायद डाकिया अंदर डाल गया है
उत्सुकता से खोलता हूँ
माँ का पत्र है
एक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
रात को सपने में देखता हूँ
माँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।


कृष्ण कुमार यादव
http://kkyadav.blogspot.com/
kkyadav.y@rediffmail.

Saturday, December 6, 2008

तन्हा माँ के सपने....

माँ,
एक शब्द नहीं,
एक भावना है,
मानव के चरणबद्ध विकास,
उसके बढ़ते स्वरुप की अवधारणा है.
माँ,
जो भूलकर अपना अस्तित्व,
संवारती है
मनुष्य का अस्तित्व,
बड़े जतन से,
बड़े ही मन से,
गढ़ती है एक मनुष्य.
माँ,
जिसके किसी भी कृत्य के पीछे,
किसी भी कार्य के पीछे
नहीं छिपा होता स्वार्थ,
नहीं चाहती उसका कोई अर्थ,
बस लगी रहती है,
सवारने में उसे,
जो निर्मित है उसी के रक्त से,
सृजित है उसी के अंश से.

माँ,
अपने सपनों को,
अपने बच्चे के सपनों में मिला कर,
गिनती है एक-एक दिन,
देखती रहती है सपने,
अपने सपने के सच होने सपने,
उस खुशनुमा दिन के सपने,
जब सच होंगे उसके सपने,
उसके बच्चे के सपने.
फ़िर आता है एक वो भी दिन,
जब संवारते लगते हैं सपने,
महकने लगते हैं सपने.

माँ,
इस महकते सपनों के बीच भी,
सच होते सपनों के बीच भी,
रह जाती है अकेली,
रह जाती है तनहा,
क्योंकि उसका सपना,
उसका अपना,
छोड़ कर उसे सपनों की दुनिया में,
चला जाता है
कहीं दूर,
सच करने को अपने सपने.
और माँ,
माँ, अकेले ही रहकर
अपने सपनों के बीच,
दुआएं देती है,
आशीष देती है कि
सच होते रहें उसके बच्चे के सपने,
बच्चे के सपनों में मिले उसके सपने.

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
dr.kumarendra@gmail.com

Thursday, December 4, 2008

मेरा प्यारा सा बच्चा

मेरा प्यारा सा बच्चा
गोद में भर लेती है बच्चे को
चेहरे पर नजर न लगे
माथे पर काजल का टीका लगाती है
कोई बुरी आत्मा न छू सके
बाँहों में ताबीज बाँध देती है।

बच्चा स्कूल जाने लगा है
सुबह से ही माँ जुट जाती है
चैके-बर्तन में
कहीं बेटा भूखा न चला जाये।
लड़कर आता है पड़ोसियों के बच्चों से
माँ के आँचल में छुप जाता है
अब उसे कुछ नहीं हो सकता।

बच्चा बड़ा होता जाता है
माँ मन्नतें माँगती है
देवी-देवताओं से
बेटे के सुनहरे भविष्य की खातिर
बेटा कामयाबी पाता है
माँ भर लेती है उसे बाँहों में
अब बेटा नजरों से दूर हो जायेगा।

फिर एक दिन आता है
शहनाईयाँ गूँज उठती हैं
माँ के कदम आज जमीं पर नहीं
कभी इधर दौड़ती है, कभी उधर
बहू के कदमों का इंतजार है उसे
आशीर्वाद देती है दोनों को
एक नई जिन्दगी की शुरूआत के लिए।

माँ सिखाती है बहू को
परिवार की परम्परायें व संस्कार
बेटे का हाथ बहू के हाथों में रख
बोलती है
बहुत नाजों से पाला है इसे
अब तुम्हें ही देखना है।

माँ की खुशी भरी आँखों से
आँसू की एक गरम बूँद
गिरती है बहू की हथेली पर। 

कृष्ण कुमार यादव                      
भारतीय डाक सेवा  | वरिष्ठ डाक अधीक्षक
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
Kkyadav.y@rediffmail.com

Wednesday, November 19, 2008

प्रकृति इन मांओं के साथ क्‍यो अन्‍याय कर रही हैं ?

मॉ शब्‍द को सुनते ही सबसे पहले परंपरागत स्‍वरूपवाली उस मॉ की छवि ऑखो में कौंधती है , जिसके दो चार नहीं , पांच छह से आठ दस बच्‍चे तक होते थे , पर उन्‍हें पालने में उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। हमारे यहां 90 के दशक तक संयुक्‍त परिवार की बहुलता थी। अपने सारे बच्‍चों की देखभाल के साथ ही साथ उन्‍हें अपनी पूरी युवावस्‍था ससुराल के माहौल में अपने को खपाते हुए सास श्‍वसुर के आदेशों के साथ ही साथ ननद देवरों के नखरों को सहनें में भी काटना पडता था।
दिनभर संयुक्‍त परिवार की बडी रसोई के बडे बडे बरतनों में खाना बनाने में व्‍यस्‍त रहने के बाद जब खाने का वक्‍त होता , अपने प्‍लेट में बचा खुचा खाना लेकर भी वह संतुष्‍ट बनीं रहती, पर बच्‍चों की देखभाल में कोई कसर नहीं छोडती थी। पर युवावस्‍था के समाप्‍त होते ही और वृद्धावस्‍था के काफी पहले ही पहले ही उनके आराम का समय आरंभ हो जाता था। या तो बेटियां बडी होकर उनका काम आसान कर देती थी या फिर बहूएं आकर। तब एक मालकिन की तरह ही उनके आदेशों निर्देशों का पालन होने लगता था और वह घर की प्रमुख बन जाया करती थी। अपनी सास की जगह उसे स्‍वयमेव मिल जाया करती थी।
पर आज मां का वह चेहरा लुप्‍त हो गया है। आज की आधुनिक स्‍वरूपवाली मां , जो अधिकांशत: एकल परिवार में ही रहना पसंद कर रही हैं , के मात्र एक या दो ही बच्‍चे होते हैं , पर उन्‍हें पालने में उन्‍हें काफी मशक्‍कत करनी पडती है। आज की महत्‍वाकांक्षी मां अपने हर बच्‍चे को सुपर बच्‍चा बनाने की होड में लगी है। इसलिए बच्‍चों को भी नियमों और अनुशासन तले दिनभर व्‍यस्‍तता में ही गुजारना पडता है। आज के युग में हर क्षेत्र में प्रतियोगिता को देखते हुए आधुनिक मां की यह कार्यशैली भी स्‍वाभाविक है , पर आज की मॉ एक और बात के लिए मानसि‍क तौर पर तैयार हो गयी है। अपने बच्‍चे के भविष्‍य के निर्माण के साथ ही साथ यह मां अपना भविष्‍य भी सुरक्षित रखने की पूरी कोशिश में रहती है , ताकि वृद्धावस्‍था में उन्‍हे अपने संतान के आश्रित नहीं रहना पडे यानि अब अपने ही बच्‍चे पर उसका भरोसा नहीं रह गया है।
मात्र 20 वर्ष के अंदर भारतीय मध्‍यम वर्गीय समाज में यह बडा परिवर्तन आया है , जिसका सबसे बडी शिकार रही हैं वे माएं , जिनका जन्‍म 50 या 60 के दशक में हुआ है और 70 या 80 के दशक में मां बनीं हैं। उन्‍होने अपनी युवावस्‍था में जिन परंपराओं का निर्वाह किया , वृद्धावस्‍था में अचानक से ही गायब पाया है। इन मांओं में से जिन्‍हें अपने पति का सान्निध्‍य प्राप्‍त है या जो शारीरिक , मानसिक या आर्थिक रूप से मजबूत हैं , उनकी राह तो थोडी आसान है , पर बाकी के कष्‍ट का हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। संयुक्‍त परिवार मुश्किल से बचे हैं ,विवाह के बाद बहूएं परिवार में रहना नहीं पसंद करने लगी हैं। सास की मजबूरी हो , तो वह बहू के घर में रह सकतीं हैं , पर वहां उसके अनुभवों की कोई पूछ नही है , वह एक बोझ बनकर ही परिवार में रहने को बाध्‍य है , अपने ही बेटे बहू के घर में उसकी हालत बद से भी बदतर है। कहा जाता है कि प्रकृति को भूलने की आदत नहीं होती है , जो जैसे कर्म करता है , चाहे भला हो या बुरा , वैसा ही फल उसे प्राप्‍त होता है , एक कहावत भी है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ यदि यह बात सही है , तो प्रकृति इन मांओं के साथ क्‍यो अन्‍याय कर रही हैं ?


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Wednesday, November 12, 2008

डॉ अमर ज्योति - अम्मा पर !

डॉ अमर ज्योति की अम्मा पर लिखी रचना जब पढने लगा तो पहली बार लगा कि इस रचना को दोबारा पढूं, फिर तीसरी बार और फिर चौथी बार एक एक लाइन को बार बार पढने का मन किया ! हर लाइन का बेहद गूढ़ अर्थ है इसमें ! बच्चे को छाया एवं सुरक्षा महसूस होती रहे और अभाव महसूस ना हों इसके लिए माँ क्या क्या प्रयत्न करती है, शायद ही कोई पिता यह महसूस कर पाया होगा !



सरदी में गुनगुनी धूप सी, ममता भरी रजाई अम्मा,
जीवन की हर शीत-लहर में बार-बार याद आई अम्मा।
भैय्या से खटपट, अब्बू की डाँट-डपट, जिज्जी से झंझट,
दिन भर की हर टूट-फूट की करती थी भरपाई अम्मा।

कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो,
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बौराई अम्मा।

भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।

बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।

Monday, November 10, 2008

दुनिया का सबसे आसान शब्‍द है मां


दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्‍द, सबसे प्‍यारा शब्‍द है मां। किसी एक महिला के मां बनते ही पूरा घर ही रिश्‍तों से सराबोर हो जाता है। कोई नानी तो कोई दादी , कोई मौसी तो कोई बुआ , कोई चाचा तो कोई मामा , कोई भैया तो कोई दीदी , नए नए रिश्‍ते को महसूस कराती हुई पूरे घर में उत्‍सवी माहौल तैयार करती है एक मां। लेकिन इसमें सबसे बडा और बिल्‍कुल पवित्र होता है अपने बच्‍चे के साथ मां का रिश्‍ता। यह गजब का अहसास है , इसे शब्‍दों में बांध पाना बहुत ही मुश्किल है।
प्रसवपीडा से कमजोर हो चुकी एक महिला सालभर बाद ही सामान्‍य हो पाती है। मां बनने के बाद बच्‍चे की अच्‍छी देखभाल के बाद अपने लिए बिल्‍कुल ही समय नहीं निकाल पाती है। बच्‍चा स्‍वस्‍थ और सानंद हो , तब तो गनीमत है ,पर यदि कुछ गडबड हुई , जो आमतौर पर होती ही है, बच्‍चे की तबियत के अनुसार उसे खाना मिलता है , बच्‍चे की नींद के साथ ही वह सो पाती है , बच्‍चे की तबियत खराब हो , तो रातरातभर जागकर काटना पडता है , परंतु इसका उसपर कोई प्रभाव नहीं पडता , मातृत्‍व का सुखद अहसास उसके सारे दुख हर लेता है।
परंपरागत ज्‍योतिष में मां का स्‍थान चतुर्थ भाव में है। यह भाव हर प्रकार की चल और अचल संपत्ति और स्‍थायित्‍व से संबंध रखता है। यह भाव सुख शांति देने से भी संबंधित है। हर प्रकार की चल और अचल संपत्ति का अर्जन अपनी सुख सुविधा और शांति के लिए ही लोग करते हैं । भले ही उम्र के विभिन्‍न पडावों में सुख शांति के लिए लोगों को हर प्रकार की संपत्ति को अर्जित करना आवश्‍यक हो जाए , पर एक बालक के लिए तो मां की गोद में ही सर्वाधिक सुख शांति मिल सकती है , किसी प्रकार की संपत्ति का उसके लिए कोई अर्थ नहीं।
यूं तो एक बच्‍चा सबसे पहले ओठों की स‍हायता से ही उच्‍चारण करना सीखता है , इस दृष्टि से प फ ब भ और म का उच्‍चारण सबसे पहले कर सकता है। पर बाकी सभी रिश्‍तों को उच्‍चारित करने में उसे इन शब्‍दों का दो दो बार उच्‍चारण करना पडता है , जो उसके लिए थोडा कठिन होता है , जैसे पापा , बाबा , लेकिन मां शब्‍द को उच्‍चारित करने में उसे थोडी भी मेहनत नहीं होती है , एक बार में ही झटके से बच्‍चे के मुंह से मां निकल जाता है यानि मां का उच्‍चारण भी सबसे आसान।
मां शब्‍द के उच्‍चारण की ही तरह मां के साथ रिश्‍ते को निभा पाना भी बहुत ही आसान होता है। शायद ही कोई रिश्‍ता हो , जिसे निभाने में आप सतर्क न रहते हों , हिसाब किताब न रखते हों , पर मां की बात ही कुछ और है। आप अपनी ओर से बडी बडी गलती करते चले जाएं , माफी मांगने की भी दरकार नहीं , अपनी ममता का आंचल फैलाए अपने बच्‍चे की बेहतरी की कामना मन में लिए बच्‍चे के प्रति अपने कर्तब्‍य पथ पर वह आगे बढती रहेगी।
पर कभी कभी मां का एक और रूप सामने आ जाता है , बच्‍चे को मारते पीटते या डांट फटकार लगाते वक्‍त प्रेम की प्रतिमूर्ति के क्रोध को देखकर बडा अजूबा सा लगता है। पर यह एक मां की मजबूरी होती है , उसे दिल पर पत्‍थर रखकर अपना वह रोल भी अदा करना पडता है। इस रोल को अदा करने के लिए उसे अंदर काफी दर्द झेलना पडता है , पर बच्‍चे के बेहतर भविष्‍य के लिए वह यह दर्द भी पी जाती है।
पर हम उनकी इस सख्‍ती , इस कठोरता को याद रखकर अपने मन में उनके लिए गलत धारणा भी बना लेते हैं। साथ ही कर्तब्‍यों के मार्ग पर चलती आ रही मांओं को अधिकारों से वंचित कर देते हैं। जब उन्‍हें हमारी जरूरत होती है , तो हम वहां पर अनुपस्थित होते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि कोई हमारे साथ भी यही व्‍यवहार करे तो हमें कैसा लगेगा ?


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Thursday, November 6, 2008

तुम सुन रही हो न माँ ।

माँ केवल माँ नही होती
वह होती है शिक्षक
रोटी बेलते बेलते केवल अक्षर और अंक ही नही
और भी बहुत कुछ पढाती है
यह करो वह नही, कहते कहते संस्कारित करती है
दंड भी देती है कई बार कठोर
हमारी हर गतिविधि पर होती है उसकी पैनी नजर
और हमारी सुरक्षा सर्वोपरि
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है रक्षक
सिखाती है इस दुनिया में रहने और जीने के तरीके
दुनिया में हमेशा धोका समझ कर चलो
भरोसा मत करो जाने पहचाने का भी,
अनजान का तो बिलकुल भी नही
य़हाँ वहाँ अकेले बिना जरूरत न जाना
कितनी बुरी लगती थी तब उसकी यह टोका टाकी
अब पता चलता है कितनी सही थी माँ
माँ केवल माँ नही होती
वह होती है परीक्षक
उसकी सिखाई बातों को हमने कितना आत्मसात किया
यह जाने बिना उसे चैन कहाँ
हलवा बनाओ, बर्तन चमकाओ
सवाल करो,जवाब तलाशो, कविता सुनाओ
हजार चीजें ।
माँ होती है परिचारिका भी
और कभी कभी डॉक्टर
बुखार में कभी भी आँख खुले माँ हमेशा सिरहाने
माथे पर पट्टियाँ रखते हुए
छोटे मोटे बुखार, सर्दी जुकाम तो वह
अपने अद्रक वाली बर्फी या काढे से ही ठीक कर देती
तब माँ कितनी अच्छी लगती
आज जब सिर्फ उसकी याद ही बाकी है
उसकी महत्ता समझ आ रही है ।
तुम सुन रही हो न माँ ?

Wednesday, October 22, 2008

तुम्हारा प्रतिबिम्ब


हूँ मैं
तेरी ही छाया
तुम्हारे ही भावों
में ढली
तुम्हारी ही आकृति हूँ
हूँ  मैं ही तो
तुम्हारे स्नेह का अंकुर
तुम्हारे ही अंतर्मन
के रंगों से सजी
तुम्हारी  ही तस्वीर हूँ
हूँ मैं ही तो ....
तुम्हारे दिल की धडकन
तुम्हारे सासों की सरगम
इस सुनहरे संसार में
गहरे से इस सागर अपार में
तुम्हारा ही तो प्रतिबिम्ब हूँ !!


बच्चे अपने माता पिता के ही प्रतिबिम्ब होते हैं | मुझे बहुत अच्छा लगता है जब कोई कहता है मेरे पास आ कर कि मैं बिल्कुल अपने पापा की शकल की दिखायी देती हूँ ..या बहुत दिनों बाद मिलने वाला जब यह कहता है कि मेरी शकल  में मेरी माँ का अक्स दिखायी देता है ...| लगता है कहीं तो हम उनको छू पाये | अब उम्र धीरे धीरे बीत रही है..मेरी ख़ुद की बच्चियां अब बड़ी हो रही है ..और अब मिलने वाले उनको कहते हैं अरे !!आपकी बेटी तो बिल्कुल आपके कालेज टाइम मैं जैसी आप थी,वैसी दिखायी देती है ..:) समय बदलता जाता है पर कुछ लफ्ज़ शायद कभी नही बदलते ..यूँ ही पीढी दर पीढी  हम कहते चले जाते हैं | यही विचार जब दिल में उमड पड़े तो कविता में ढल गए |

रंजना [रंजू]भाटिया

Wednesday, October 15, 2008

संसार का सबसे मीठा शब्द ""माँ""


शब्दों का संसार रचा
हर शब्द का अर्थ नया बना
पर कोई शब्द
छू पाया
माँ शब्द की मिठास को

माँ जो है ......
संसार का सबसे मीठा शब्द
इस दुनिया को रचने वाले की
सबसे अनोखी और
आद्वितीय कृति

है यह प्यार का
गहरा सागर
जो हर लेता है
हर पीड़ा को
अपनी ही शीतलता से

इंसान तो क्या
स्वयंम विधाता
भी इसके मोह पाश से
बच पाये है
तभी तो इसकी
ममता की छांव में
सिमटने को
तरह तरह के रुप धर कर
यहाँ जन्म लेते आए हैं

रंजना [रंजू ] भाटिया