Tuesday, October 5, 2010

अजन्मी बिटिया के मन की पुकार

सपने में आई
ठुमकती-ठुमकती
रुनझुन करती
शरमाई, सकुचाई
नन्ही-सी परी
धीरे से बोली
माँ के कान में
माँ!तू मुझे जनम तो देती।

मैं धरती पर आती
मुझे देख तू मुस्कुराती,
तेरी पीड़ा हरती,
दादी की गोद में
खेलती-मचलती,
घुटवन चलती,
ख़ुशियों से बाबुल की
मैं झोली भरती,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।

मैयाँ-मैयाँ चलती मैं
बाबुल के अँगना में
डगमग डग धरती,
घर के हर कोने में
फूलों-सी महकती,
घर की अँगनाइयों में
रिमझिम बरसती,
माँ-बापू की
बनती मैं दुलारी,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।

तोतली बोली में
चिड़ियों को बुलाती,
दाना चुगाती
उनके संग-संग
मैं भी चहकती,
दादी का भी
मन बहलाती,
बाबा की मैं
कहलाती लाड़ली,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।

आँगन बुहारती
गुड़ियों का ब्याह रचाती
बाबुल के खेत पर
रोटी पहुँचाती,
सबकी आँखों का
बनती मैं सितारा,
पर जनम तो लेती माँ!
जनम तो लेती मैं।

ऊँचाइयों पर चढ़ती,
धारा के साथ-साथ
आगे ही आगे बढ़ती,
तेरे कष्टों को
मैं दूर करती,
तेरे तन-मन में
दूर तक उतरती,
जीवन के अभावों को
नन्हे भावों से भरती,
तेरे जीवन की
बनती मैं आशा,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।

ओढ़ चुनरिया
बनती दुल्हनियाँ
अपने भैया की
नटखट बहनियाँ,
ससुराल जाती तो
दोनों कुलों की
लाज मैं रखती,
देहरी दीपक बन
दोनों घरों को
भीतर और बाहर से
जगमग मैं करती,
सावन में मेहा बन
मन-आँगन भिगोती,
भैया की कलाई की
राखी मैं बनती,
बाबुल के
तपते तन-मन को
छाया मैं देती,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।

माँ बनती तो
तेरे आँगन को मैं
खुशियों से भरती,
बापू की आँखों की
रोशनी बनकर
जीवन में आशा का
संचार करती
तेरे आँगन का
बिरवा बनकर
तेरी बिटिया बनकर
माटी को मैं
चन्दन बनाती,
दुख दूर करती सारे
सुख के गीत गाती,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।

तेरे और बापू के
बुढ़ापे की लकड़ी बनकर
डगमग जीवन का
सहारा मैं बनती,
संघर्षों की धूप में
तपते तन को
देती मैं छाया

उदास मन को
देती मैं दिलासा,
पर जनम तो लेती
मैं जनम तो लेती
माँ!जनम तो देती
तू मुझे जनम तो देती।

डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, August 20, 2010

माँ की डांट और बदकिस्मत मैं - सतीश सक्सेना

आज सुबह पंडित महेंद्र मिश्र के "समय चक्र " पर मिश्र जी द्वारा मम्मी की डांट से दुखी होकर लिखी गयी निम्न लिखित चिट्ठी पढ़ी  तो अपनी माँ की याद आ गयी काश मेरी माँ होतीं और महेंद्र मिश्र की तरह ही इस उम्र में  ( ५५ साला ) मैं भी डांट खाता ...
आंसू छलछला उठे , मिश्र जी का यह मीठा कष्ट जानकर ... पर हर व्यक्ति तो महेंद्र मिश्र जैसा खुशकिस्मत नहीं हो सकता ...है न.......


"मम्मी ने डांटा पत्रों को पढ़कर या बात को सुनकर हाँ, हूँ, नहीं में याने कम शब्दों में जबाब नहीं दिया करो ... जबाब ऐसा दो की समझ में तो आये की आपने क्या सुना और क्या पढ़ा है .... अब बताइये मैं क्या करूँ ... कम शब्दों में जबाब देना गलत है क्या ... जबाब कम शब्दों में दिया तो क्या अनर्थ हो गया ... अब बताइये मैं क्या करूँ ... पढ़ता हूँ तो खैर नहीं कम लिखता हूँ तो खैर नहीं कम शब्दों में बोलता हूँ तो खैर नहीं .... अब आप ही बताइये मैं क्या करूँ ..."

Saturday, August 7, 2010

गुदगुदाती स्मृतियाँ

स्मृतियाँ,
कभी रुलाती हैं
तो कभी गुदगुदाती हैं
कभी मासूम बच्चा बन,
छोटा-सा बालक बन
अपनी तोतली बोली में
मन की बातें कह जाती हैं !

स्मृतियाँ,
दिलाती हैं याद
कभी माँ का दुलार,
तो कभी पिता का प्यार,
कभी दादी माँ की
और कभी नानी माँ की
कहानी बनकर
ले जाती हैं
परियों के लोक,
जहाँ दिखाई देते हैं
चाँद और सितारे,
जो लगते हैं मन को
मोहक और प्यारे,
दिखाई देते हैं वहाँ
रंग-बिरंगे फूल
जहाँ नहीं होती,
उदासी की धूल
फूल अपनी सुगंध
बिखेरते हैं चारों ओर,
औरों को भी सिखाते हैं
सुगंध फैलाना,
मनभर खुशबू लुटाना
सबको हँसाना
और गुदगुदाना
तन के साथ-साथ
मन को भी सुंदर बनाना !

स्मृतियाँ,
कभी ले जाती हैं
उस नन्हे संसार में
जहाँ प्यारी-सी
दुलारी-सी गुड़िया है
उसका छोटा-सा घर है !
और है
भरा-पूरा परिवार
नहीं है दुख की कहीं छाया,
पीड़ा की कोई भी लहर
यहाँ-वहाँ कहीं पर भी
कभी दिखाई नहीं देती !

स्मृतियाँ,
जब ले जाती हैं
भाई-बहिनों के बीच
जहाँ खेल है,तालमेल है
तो कभी-कभी
बड़ा ही घालमेल है !

स्मृतियाँ,
ले जाती हैं
दोस्तों के बीच
जहाँ पहुँचकर
देती हैं अनायास
ऊँची उड़ान मन-पतंग को,
देती हैं अछोर ऊँचाइयाँ,
तो कभी कटी पतंग-सी
देती हैं निराशा मन को,
कभी उड़नखटोले में
सैर करातीं हैं,
कभी ले जाती हैं
अलौकिक दुनिया में
जगाती हैं मन में आशा
रखती हैं सदैव दूर दुराशा !

स्मृतियाँ ,
खो जाती हैं
भीड़ में बच्चे की तरह
जब मिलती हैं
तो माँ की तरह
सहलाती हैं,दुलारती हैं
और रात को
नींद के झूले में
मीठे स्वर में
लोरी सुनाती हैं
ले जाती हैं
कल्पना के लोक
जहाँ मन रहता है
कटुता से दूर,बहुत दूर,
मन बजाता है
खुशी का संतूर !
दुःख की अनुभूतियाँ
मन में नहीं समाती हैं;
सुख की कोयल
कभी गीत गाती है
तो कभी
मधुर-मधुर स्वर में
गुनगुनाती हैं,
और कभी
पंचम स्वर में
जीवन का
मधुर राग सुनाती हैं

डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, July 23, 2010

चलो........कुछ समय बस माँ बनकर जियें


माँ शब्द की गहराई को अल्फ़ाज़ों में बांधना किसी के लिए भी आसान नहीं है शायद यही वजह है कि मेरे पास भी माँ से जुड़ी कोई भावुक कविता नहीं है। बस एक अपील है उन सब बहनों के लिए जो माँ हैं या माँ बनने जा रहीं हैं प्लीज़..... कुछ समय के लिए बस माँ बनिये सिर्फ माँ ! अपने बच्चों को पूरा समय दीजिये उनके साथ खेलिए............गाइये...... गुनगुनाइए...... बरसात कि बूंदों में भीगिए...... सुबह जब वो आँख खोले उसके सामने रहिये और रात को उसे अपने सीने में छुपाकर इस बात का अहसास करवाइए कि आप हमेशा उसके पास हैं.......उसके साथ हैं । कभी कभी उसे लेकर यूँ ही टहलने निकल जाइये वो जिधर इशारा करे चलते रहिये । कुछ समय के लिए समय की पाबन्दी को भूलकर बस ! माँ बन जाइये।

हाल ही में एक खबर सुनने में आई कि एक कामकाजी जोड़े की बच्ची ने आया कि देखरेख में अपनी सुनने की ताकत हमेशा के लिए खो दी। कारण यह था कि परेशानी से बचने के लिए आया बच्ची को कमरे में बंद कर टीवी काफी तेज आवाज़ में चला देती थी।

हम आगे बढ रहे हैं , प्रगतिशील हो रहे हैं और ऐसी घटना इसी तरक्की की बानगी भर है। बच्चे को दुनिया में लाने से पहले ही आज के पेरेंट्स हर तरह की प्लानिंग कर लेते हैं पर उसे समय देने के मामले पर विचार कम ही होता है। पिछले कुछ सालों में वर्किंग मदर्स की संख्या में जितना इज़ाफा हुआ है मासूम बच्चों की मुश्किलें भी उतनी बढ़ी हैं। क्रेच और बेबी सीटर जैसे शब्द आम हो गए हैं। अगर संयुक्त परिवार है तो दादी-नानी बच्चों की माँ बन रही हैं (आजकल ऐसे परिवार बस गिनती के हैं ) नहीं तो इन नौनिहालों की परवरिश पूरी तरह नौकरों के भरोसे है। बड़े शहरों में ज्यादातर कामकाजी जोड़ों के बच्चे पूरे दिन अकेले आया के साथ गुजार रहे हैं। सोचने की बात यह है की जो बच्चा आपकी गैर-मौजूदगी में उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में बोलकर बताने के लायक भी नहीं है उसे यों अकेला छोड़ना कहाँ तक उचित है ? मेरे विचारों को जानकर कृपया यह न सोचें कि मैं कामकाजी महिलाओं को उलाहना दे रही हूँ या उनकी परिस्थिति नहीं समझती । मैं उनके जज़्बे को सलाम करती हूँ जिसके दम पर वे घर और दफ्तर की ज़िन्दगी में तालमेल बनाकर चलती हैं। पर मैं मानती हूँ की माँ होने की जिम्मेदारी से बढ़कर कोई काम नहीं हो सकता। माँ बनना और अपने बच्चे के विकास को हर लम्हा जीना एक विरल अनुभूति है। जिसे महसूस करना हर माँ का हक़ भी है और जिम्मेदारी भी। कई अध्ययन यह साबित कर चुके हैं कि बच्चे का मनोविज्ञान जैसा उसकी माँ के साथ होता है किसी और के साथ नहीं होता.....दादी-नानी के साथ भी नहीं। ऐसे में एक अजनबी (आया) के साथ बचपन बीतना बच्चों के किये कितना तकलीफदेह हो सकता है यह समझना मुश्किल नहीं है। हम लाख दलीलें देकर भी इस बात को नहीं झुठला सकते कि माँ का विकल्प मनी या आया नहीं हो सकता, कभी भी नहीं। माँ बच्चे के जीवन की धुरी होती है । उसकी हर छोटी बड़ी समझाइश बच्चे के जीवन की दिशा बदल सकती है । लेकिन मौजूदा दौर में तो मांओं के पास वक़्त ही नहीं है तो फिर समझाइश कैसी ? ज़ाहिर सी बात है कि नौकरों के सहारे पलने वाले बच्चों की परवरिश में प्यार और संस्कार की कमी तो है ही मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना भी कुछ कम नहीं है। बचपन के इन हालातों का असर बच्चे की पूरी ज़िन्दगी पर पड़ता है और आगे चलकर हमारे इन्हीं बच्चों का व्यव्हार समाज की दिशा व दशा तय करता है। आज हमारे समाज में औरतों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और भेदभाव से तकरीबन हर महिला को शिकायत है। ऐसे में माँ होने के नाते आप एक जिम्मेदारी उठायें । अपने बच्चे की परवरिश की , वो बच्चा जो इस समाज का भावी नागरिक होगा शुरू से ही उसे सही सीख देकर एक सुनागरिक बनायें। बेटी को हौसले से जीने का पाठ पढ़ायें और बेटे को घर हो या बाहर औरतों की इज्ज़त करना सिखाएं। ज़ाहिर सी बात है की ऐसी परवरिश के लिए उनके साथ समय बिताना, उन्हें समझना और समझाना बहुत ज़रूरी है। तो फिर मातृत्व को जीने और बच्चों के पालन-पोषण को सही मायने देने के लिए चलो........कुछ समय के लिए बस माँ बनकर जीयें ।


Tuesday, May 18, 2010

ऊन के धागे

ऊन के उलझे धागे
सुलझाने का
प्रयास कर रही है रमिया
रंग-बिरंगी ऊन के धागे
गुँथे हुए हैं ऐसे
एक-दूसरे से
कि उन्हें अलग करना
नहीं है आसान !
पर रमिया कर रही है प्रयास
एक-एक धागे को
सुलझाने का,
कभी लाल, कभी नीला
तो कभी पीला,
और मन-ही-मन
हो रही है खुश
गुनगुना रही है
सुंदर सलोना गीत !
खोई है वह अतीत में
पर बुन रही है
भविष्य के नए सपने !
इतने में
उसका छोटा पोता
आया और बोला,
’ दादी माँ !
मैं भी सुलझाऊँगा धागे
बनाऊँगा ऊन के गोले ! ‘
दादी माँ ने उसे
समझाया और बोली---
’ मेरे लाल !
इन धागों को सुलझाने में
जीवन के अनमोल क्षण
गँवाए हैं मैंने
तू मत उलझ इनके साथ ! ‘
रमिया का अतीत
उतर आया
उसकी बूढ़ी आँखों में
उसके सपने
लेने लगे आकार,
याद आया अचानक :
जब छोटी थी वह
तो अपने भैया के लिए
झाड़ू की सींकों में
डालकर फंदे बुनती थी स्वेटर,
बड़ी हुई तो माँ ने
साइकिल की तानों की
बनवाकर दीं सलाइयाँ
और धीरे-धीरे वह
बुनने लगी स्वेटर,
बनाया उसने
अपनी छोटी-सी,
प्यारी-सी गुड़िया का स्वेटर
फिर बुना भैया के लिए
नन्हा-सा टोपा
और अपने लिए स्कार्फ,
उसे पहनकर भर जाती
स्वाभिमान से,
पर आज उसका बुना
स्वेटर या टोपा
नहीं पहनता कोई,
उलझी है वह
अपने ही विचारों में
जीवन की उलझनें
खोलते-खोलते
पक गए हैं सारे बाल
भर गया है चेहरा झुर्रियों से
लेकिन अभी भी है
आस और दृढ़ विश्वास
उसके मन में,
नहीं थकीं हैं
उसकी बूढ़ी आँखें,
अभी भी युवा है मन,
उसी तरह आज भी
सुलझा रही है
ऊन के धागे और
विचारों की उलझन,
इसी विश्वास के साथ
कि धागे खुलकर
बुनेंगे रंग-बिरंगा भविष्य !

डॉ. मीना अग्रवाल

Sunday, May 9, 2010

मां का मतलब हां है (अविनाश वाचस्‍पति)

हर दिन होता है मां का

नहीं प्रश्‍न इसमें ना का

फिर मनाते हैं क्‍यों सब

सिर्फ एक दिन हां का

Friday, May 7, 2010

* ममता की छाँव...!!! *


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Thursday, May 6, 2010

" माँ "

माँ ,
एक शब्द ,
छिपा है जिसमे ,
एक अनोखा संसार !

माँ ,
एक शब्द ,
आँचल में जिसकी ,
सुकून है सारे जहाँ का !

माँ ,
एक शब्द ,
गहराई है जिसकी ,
अथाह सागर के समान !

माँ ,
एक शब्द ,
सबसे है न्यारा ,
सबसे प्यारा ये शब्द !

– सोनल पंवार

Thursday, April 22, 2010

प्रलय का इंतजार

आज की यह पोस्ट माँ पर, पर वो माँ जो हर किसी की है। जो सभी को बहुत कुछ देती है, पर कभी कुछ माँगती नहीं. पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उसका ही शोषण करने लगते हैं. जी हाँ, यह हमारी धरती माँ है. हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर धरती माँ की नहीं. यदि धरती ही ना रहे तो क्या होगा॥कुछ नहीं. ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद हम नित उसी धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. हम जिसकी छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. सौभाग्य से आज विश्व पृथ्वी दिवस है. लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पृथ्वी दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने परिवेश को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.

आज आफिस के लिए निकला तो बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा आपको पता है आज विश्व पृथ्वी दिवस है। आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें पेड़-पौधों की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए. पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है. पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे.
अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं. आखिर हम बच्चों में धरती और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से धरा का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-माँ-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरिना चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ..क्या ये प्रलय नहीं है. गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा धरती माँ कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा !!

Saturday, April 17, 2010

कुछ नया लिखूँ

बचपन से आज तक की यात्रा
आहिस्ता-आहिस्ता की है पूरी,
पर आज भी है मन में
एक आस अधूरी
नहीं ढाल पाई अपने को
उस आकार में
जैसा माँ चाहती थी !
माँ की मीठी यादें,
उनके संग बिताए
क्षणों की स्मृतियाँ
आज हो गईं हैं धुँधली,
छा गया है धुआँ
विस्मृति का !
मन-मस्तिष्क पर छाए
धुएँ को हटाकर
जब झाँकती हूँ अंदर,
और उतरती हूँ
धीरे-धीरे अंतर में,
तो माँ की हँसती,
मुस्कुराती सलोनी सूरत
तैर-तैर जाती है
मेरी आँखों में !
देती है प्रेरणा,
करती है प्रेरित
कि कुछ नया करूँ,
समय की स्लेट पर
भावों के स्वर्णिम अक्षरों से
कुछ नया लिखूँ,
पर माँ ! मन के भाव
न जाने क्यों सोए हैं?
क्यों नहीं होती झंकृति
रोम-रोम में,
क्यों नहीं बजती बाँसुरी
तन-मन में,
क्यों नहीं सितार के तार
बजने को होते हैं व्याकुल,
क्यों नहीं हाथ
बजाने को होते हैं आकुल,
लगता है, माँ!
तुझसे मिले संस्कार
तन्द्रा में हैं अलसाए,
रिसती जा रही हैं स्मृतियाँ
घिसती जा रही है ज़िंदगी
सोते जा रहे हैं भाव,
लेकिन डरना नहीं माँ!
मैं थपथपाऊँगी भावों को
जगाऊँगी उन्हें
और ले जाऊँगी
कल्पना के सागर के उस पार
जहाँ लगाकर डुबकी
लाएँगे ढूँढकर
अनगिन काव्य-मोती,
उन्हीं मोतियों की माला से
सजाऊँगी अपना वैरागी मन
और तब, हाँ तब ही,
होगा नवसृजन,
और बजेगी चैन की बाँसुरी !
पहनकर दर्द के घुँघुरू
नाचेगी जब पीड़ा
ता थेई तत् तत् ,
शब्दों की ढोलक
देगी थाप जब
ता किट धा ,
व्याकुलता की बजेगी
उर में झाँझ
और साथ देगी
कल्पना की सारंगी
तो होगी अनोखी झंकार
तो मिलेगा आकार
मन के भावों को,
माँ ! दो आशीर्वाद मुझे--
कर सकूँ नवसृजन
और जब आऊँ
तुम्हारे पास
तो तुम्हें पा मुस्कुराऊँ,
एक ही संकल्प
बार-बार और क्षण-क्षण
न दोहराऊँ !

डॉ. मीना अग्रवाल

Sunday, March 28, 2010

मम्मी मेरी सबसे प्यारी

मम्मी मेरी सबसे प्यारी,
मैं मम्मी की राजदुलारी।

मम्मी प्यार खूब जताती,

अच्छी-अच्छी चीजें लाती।


करती जब मैं खूब धमाल,

तब मम्मी खींचे मेरे कान।

मम्मी से हो जाती गुस्सा,

पहुँच जाती पापा के पास।


पीछे-पीछे तब मम्मी आती,

चाॅकलेट देकर मुझे मनाती।

थपकी देकर लोरी सुनाती,

मम्मी की गोद में मैं सो जाती।


Saturday, February 27, 2010

होली पर माँ !

क्या आपको याद है ...


होली  के अवसर पर माँ  आपके लिए क्या क्या करती थी , गुझिया बनाने से लेकर रंग और पिचकारी का इंतजाम , नए नए वस्त्र सिलवाना  और अंत में घंटो रगड़ रगड़ के नहलाना धुलाना ! सारा त्यौहार उन दिनों माँ के इर्द गिर्द ही घूमता था  ! त्यौहार और खुशियों का पर्याय होती थी तब माँ !


इस होली पर आप बच्चों के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं या  माँ भी उसमें शामिल है ! इस होली पर  आपको  शुभकामनायें देते हुए मैं , आपको  माँ के बारे में  थोडा अधिक ध्यान दिलाना चाहता हूँ  !


आशा है बुरा न मानेंगे ! उन्हें आपकी अधिक जरूरत है .....    

Friday, February 12, 2010

मां

माँ तो है संगीत रूप
माँ गीत रूप, माँ नृत्य रूप
माँ भक्ति रूप, माँ सक्ति रूप
माँ की वाणी है मधु स्वरूप
गति है माँ की ताल रूप
सब कर्म बने थिरकन स्वरूप
व्यक्तित्व बना माँ का अनूप
शृद्धा की है वह प्रतिरूप
माँ के हैं अनगिनत रूप .

डॉ. मीना अग्रवाल

Monday, January 11, 2010

माँ की ममता को पहचानो, ऐसा न हो कि कल उसे ढूँढ़ते फिरें

कहीं पढ़ा था कि ‘‘जब तुम बोल भी नहीं पाते थे तो मैं तुम्हारी हर बात को समझ लेती थी और अब जब तुम बोल लेते हो तो कहते हो कि माँ तुम कुछ समझती ही नहीं।’’

किसी भी माँ के द्वारा कहे ये शब्द वाकई कितने सार्थकता सिद्ध करते दिखते हैं। यह बात सत्य है कि एक माँ जो अपने बच्चे के बचपने को भली-भाँति पढ़-समझ लेती है, उसी माँ की वृद्धावस्था को उसके बच्चे बिलकुल भी नहीं समझते। इसे कुछ इस तरह भी कहा जा सकता है कि समझने का प्रयास नहीं करते हैं।

माँ के रूप उसके स्वरूप को देवत्व प्राप्त है, कहा भी गया है कि भगवान सभी जगह नहीं पहुँच सकता उसीलिए उसने माँ को बनाया।

आज उसी माँ को हमने स्वयं अपनी जगह तलाशते देखा है। कुछ दिनों पूर्व कुछ ऐसा देखा कि लगा कि यह दुआ करना मातृत्व का अपमान होगा किन्तु माँ की होती दुर्दशा से अच्छा है कि औलाद ही न हों।

तब याद आने लगे वे परिवार जहाँ आज भी माँ को माँ का प्यार, स्नेह, सम्मान दिया जाता है। ऐसे परिवारों में आज भी सौगातें बिछी दिखाई देतीं हैं।

कहना होगा कि माँ के स्वरूप को आज समझने की आवश्यकता है। उसे मात्र एक औरत के रूप में न देखा जाये। हम स्वयं कई बार स्वयं को इस सोच के साथ व्यथित पाते हैं कि कल क्या होगा जबकि हमारी माँ हमें छोड़ कर चली जायेगी?

यह कल्पना अपने में भयावह है किन्तु जीवन की सत्यता यही है। जो जीवन है उसे समाप्ति की ओर भी जाना है। तब माँ-विहीन जीवन की कल्पना करके ही सिहर जाते हैं।

यह पोस्ट उस घटना के परिणामस्वरूप लिखी जा रही है जो हमने देखी है। (किसी भी माँ का तिरस्कार करना हमारा मन्तव्य नहीं, इस कारण उस घटना का जिक्र करना हम आवश्यक नहीं समझते)

कृपया जिसके पास भी माँ है वे माँ की महिमा, उसके ममत्व को समझें। ऐसा न हो कि कल माँ के न होने पर उसके प्यार, दुलार, स्नेह और अपनत्व को हम किसी और में खोजते फिरें।