Friday, August 14, 2009

अम्मा

कितनी कितनी कितनों की ही बिगडी बात बनाती अम्मा
हँसते हँसते होंठों में ही अपनी बात छुपाती अम्मा ।
मेरे तेरे इसके उसके दर्द से होती रुआँसी अम्मा,
हम खा जाते चोट तो फिर, हमको कैसे बहलाती अम्मा ।
रात काटती आँखों में जब होते हम बीमार कभी,
सुबह सवेरे पर उनमें ही सूरज नया उगाती अम्मा ।
भोर अंधेरे उठ जाती और सारे काम सम्हालती अम्मा,
रात अंधेरी जब छा जाती, लोरी खूब सुनाती अम्मा ।
अब अम्मा के हाथ थके और आँखों के सूरज बदराये,
फिर भी तो होटों पे हरदम एक मुस्कान खिलाती अम्मा ।
हम अम्मा के पास रहें या उससे दूर ही क्यूं न रहें,
वह रहती है मन में हरदम, हम सबकी महतारी अम्मा ।