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Tuesday, May 18, 2010

ऊन के धागे

ऊन के उलझे धागे
सुलझाने का
प्रयास कर रही है रमिया
रंग-बिरंगी ऊन के धागे
गुँथे हुए हैं ऐसे
एक-दूसरे से
कि उन्हें अलग करना
नहीं है आसान !
पर रमिया कर रही है प्रयास
एक-एक धागे को
सुलझाने का,
कभी लाल, कभी नीला
तो कभी पीला,
और मन-ही-मन
हो रही है खुश
गुनगुना रही है
सुंदर सलोना गीत !
खोई है वह अतीत में
पर बुन रही है
भविष्य के नए सपने !
इतने में
उसका छोटा पोता
आया और बोला,
’ दादी माँ !
मैं भी सुलझाऊँगा धागे
बनाऊँगा ऊन के गोले ! ‘
दादी माँ ने उसे
समझाया और बोली---
’ मेरे लाल !
इन धागों को सुलझाने में
जीवन के अनमोल क्षण
गँवाए हैं मैंने
तू मत उलझ इनके साथ ! ‘
रमिया का अतीत
उतर आया
उसकी बूढ़ी आँखों में
उसके सपने
लेने लगे आकार,
याद आया अचानक :
जब छोटी थी वह
तो अपने भैया के लिए
झाड़ू की सींकों में
डालकर फंदे बुनती थी स्वेटर,
बड़ी हुई तो माँ ने
साइकिल की तानों की
बनवाकर दीं सलाइयाँ
और धीरे-धीरे वह
बुनने लगी स्वेटर,
बनाया उसने
अपनी छोटी-सी,
प्यारी-सी गुड़िया का स्वेटर
फिर बुना भैया के लिए
नन्हा-सा टोपा
और अपने लिए स्कार्फ,
उसे पहनकर भर जाती
स्वाभिमान से,
पर आज उसका बुना
स्वेटर या टोपा
नहीं पहनता कोई,
उलझी है वह
अपने ही विचारों में
जीवन की उलझनें
खोलते-खोलते
पक गए हैं सारे बाल
भर गया है चेहरा झुर्रियों से
लेकिन अभी भी है
आस और दृढ़ विश्वास
उसके मन में,
नहीं थकीं हैं
उसकी बूढ़ी आँखें,
अभी भी युवा है मन,
उसी तरह आज भी
सुलझा रही है
ऊन के धागे और
विचारों की उलझन,
इसी विश्वास के साथ
कि धागे खुलकर
बुनेंगे रंग-बिरंगा भविष्य !

डॉ. मीना अग्रवाल