श्री प्रमोद कुमार मिश्र बिहार के पश्चिमी चम्पारण में प्राथमिक स्तर के शिक्षक हैं। बच्चों को क, ख, ग ... की शिक्षा देने का काम है इनका, लेकिन अपने वातावरण के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होने से इनका जीवन इस छोटे से काम को भी बड़ी गम्भीरता से करने में गुजरता है। ये अन्य शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का दायित्व भी बखूबी निभाते हैं। श्री मिश्र ने अपनी शैक्षणिक गतिविधियों को रोचकता का नया रंग देने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी इसमें शामिल करने का कारगर उपाय ढूँढ निकाला है।
दशहरे की छुट्टियों में मेरी इनसे मुलाकात हो गयी। अपने गाँव में अत्यन्त सादगी भरा जीवन गुजारते हुए इनका जीवन आधुनिक साधनों से बहुत दूर है। बात-बात में इनसे “माँ” के सम्बन्ध में चर्चा हुई तो भावुक हो उठे। कुरेदने पर उन्होंने एक ऐसे बच्चे की कहानी सुनायी जिसके माँ-बाप नहीं थे, बिलकुल अनाथ था, और इनके स्कूल में पढ़ने आया था। उसके दुःख पर इनके कवि हृदय से जो शब्द फूट पड़े उन्हें सुनाने लगे तो मेरा मन भी भर आया। मेरे अनुरोध पर इन्होंने इसे गाकर सुनाया तो मैने अपने मोबाइल के कैमरे को चालू कर लिया। बिना किसी साज़ के एक घरेलू बर्तन पर हाथ फेरते हुए इन्होंने जो आँखें नम कर देने वाली स्वर लहरी बिखेरी उन्हें आपके लिए सजो लाया हूँ। सुनिए:
आपकी सुविधा के लिए इस भोजपुरी गीत के बोल और इसका भावार्थ नीचे दे रहा हूँ।
गीत के बोल भोजपुरी में:
कवना जनम के बैर हमसे लिया गइल।
हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
(१)
का होला माई-बाप, हमहू ना जानी;
गोदिया के सुख का होला, कइेसे हम मानी।
जनमें से नाव मोरा, ‘टुअरा’ धरा गइल;
...........हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
(२)
केहू देहल माड़-भात, केहू तरकारी;
कबहू त भगई पहिनी, कबहू उघारी।
एही गति बीतल मोरा, बचपन सिरा गइल;
..............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
(३)
बकरी चरावत मोरा, बितलि लरिकइया;
केहू न ‘बाबू’ कहल, केहू ना ‘भइया’।
कहि-कहि ‘अभागा’ लोगवा, जियरा जरा गइल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
(४)
केकरा संघे खेले जाईं, केहू ना खेलावल;
अपना में ए टुअरा के, केहू ना मिलावल।
रोए-रोए मनवा मोरा, अँखिया लोरा गइल;
.............हाय रे विधाता तहरो मतिया हेरा गइल॥
भावार्थ:
हे ईश्वर, तूने मुझे किस जन्म (के बुरे कर्म) की सजा दी है, तुम्हारा ध्यान किस ओर खो गया है?
(१) माँ-बाप क्या होते हैं, यह मैं नहीं जानता, न ही मुझे गोद के सुख का कोई पता है। मेरा तो जन्म के बाद नाम ही अनाथ (टुअरा) रख दिया गया।
(२) किसी ने (दयावश) मुझे चावल दे दिया तो किसी ने सब्जी, कभी जांघिया पहनने को मिला तो कभी नंगा ही रहना पड़ा; और इसी तरह से मेरा बचपन बीत गया।
(३) मेरा बचपन बकरी चराते हुए बीता, मुझे कभी किसी ने ‘बाबू’ या ‘भइया’ कहकर सम्बोधित नहीं किया। मुझे तो ‘अभागा’ कह-कहकर लोगों ने मेरा जी जला डाला।
(४) मैं किसके साथ खेलने जाऊँ, मुझे कोई नहीं खिलाता; इस अनाथ को अपने दल में कोई शामिल नहीं करता। इसके लिए रो-रोकर मेरी आँखें आँसू से भर गयीं हैं।
(सिद्धार्थ)
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Monday, October 13, 2008
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