हाथ सिलाई की मशीन देख,
आज फिर बचपन की याद आ गई...
टुक टिक टुक टिक की धुन...
फिर आ कानों में छा गई...
कितने रंगों में सजाया करती थी....
कितने सपनों को सिला करती थी...
कभी रात भर जग कर तुरपाई...
फिर कुर्सी पर लगी आँख...सोई चारपाई
तेरे सपनों में अच्छी दिखती थी...
काला ठीका लगा कर चलती थी....
तू कल के माप के सपने बुनती थी...
मैं उन्हे पहन कर हँसती थी ...
फिर एक दिन ना जाने क्या हुआ था
...समय ने कुछ इस तरह छुआ था....
तूने चलना सिखाया मैं उड़ने लगी थी...
तेरे रंगों से कतराने लगी थी....
उस दिन तू अपना सपना लेकर...
रोई थी कोने में सिसक कर...
उस दिन एक लम्बी चिट्ठी लिखी थी.......
तूने सोचा मैं सोई.......
मैं सोई नहीं थी...
रंग मेरा बहुत सुंदर नहीं था...
पल्लू पकड़ तुझसे कहा था...
मुझे भी सिखाओ सपनों को बुनना....
तेरे सपने अब नहीं है पहनना....
रात भर जग कर जो सपना बुना था...
मशीन बंद कर उसपर रखा था....
"बड़ी तू हो गई...
जा खुद ही सिलना...... "
तूने सोचा मैं गई....
मैं वहीं पर खड़ी थी .....
किताबों को पढ़कर चली कुछ बनाने....
सखी ने कहा बड़ा सुन्दर बना है...
तुझको दिया था बड़े प्यार से...
तू पहनेगी इसको इस अरमान से..
तूने उसको एक कोने में टाँगा........
तूने सोचा मैने देखा नहीं...
भरी आँख ले वहीं पर खड़ी थी....
कितने ख्वाबों को मैने बुना है....
सबने कहा खूबसूरत बना है...
तूने उसे कभी देखा ही नहीं......
शायद इसलिए कभी मुझे भाया नहीं है
अकेले एक दिन मेरे कमरे में आकर...
तह किए ख्वाबों को तू देख रही थी...
तेरे सपनों के रंगों जैसे ही थे यह...
हल्की मुस्कान थी...आंसू की चमक भी......
तूने सोचा मैं वहाँ पर नहीं थी..
तेरे आशीष के लिए तरसी रुकी थी....
आज फिर यह धुन यादों में आई....
साथ में पुराने सपने भी लाई....
बिटिया मेरे सपनों में सजी थी....
काला ठीका लगा हँस कर खड़ी थी...
कोने में कुछ भी ना टंगा था...
क्या माँ ने उसको ओढ़े रखा था ...???